कविता — 35
औदास्यमय उत्ताप की छाया से बचते वीरवर,
नहीं देखते शूल कितने बिखरे पड़े हैं मार्ग पर।
गाड़ते हैं निज दृष्टि को वे तो सदा ही लक्ष्य पर,
वे चैन लेते हैं तभी जब पहुंच जाते गंतव्य पर।।
आत्मावलम्बी बोध से जो ऊर्जा लेते सदा,
निष्काम कर्म योग से जीवन महकता सर्वदा।
जो भी मिलता मार्ग में संतोष उसी में धारते,
अपना पराया छोड़कर भव से सभी को तारते।।
पराधीनता के भाव को जीवन से दूर फेंक दो,
आर्यत्व के श्रेष्ठ भाव से जीवन को श्रेष्ठत्व दो।
अमृतपुत्र हो तुम सोच लो अमृतत्व तुम में भरा,
जो भी समझा इस तथ्य को वह बताओ ! कब मरा?
यदि कर्मफल में विश्वास है तो एक बात जान लो,
जो भी तुम्हारे पास है उसे प्रारब्ध का फल मान लो।
फल देता है परमात्मा हमें सदा किये के अनुसार ही,
समझो कि फल जो भी मिला, है कर्म के अनुसार ही।।
तामसिकता के भाव में मत जीवन व्यर्थ खोइए
राजसिकता भी है बुरी, तुम उससे भी दूर होइए ।
सात्विकता के भाव को सदा सद्भाव से दुलारिये,
‘राकेश’ इसी भाव से ईशत्व के तत्व को पुकारिये ।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत
One reply on “अमृतपुत्र हो तुम सोच लो ….”
अति सुंदर भाव। आप धन्य हैं।