चन्द्रकांत जोशी
भारतीय जनता पार्टी से लेकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं की इस बात के लिए तारीफ करना होगी कि विगत कई वर्षों से ये कांग्रेसी और कम्युनिस्ट लेखकों द्वारा भारत के गौरवशाली अतीत, परंपरा, मूल्यों और जीवन दर्शन को लेकर लिखे गए कुत्सित व षड़यंत्रकारी लेखों और किताबों का लातार विरोध करते आ रहे हैं। कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों ने किस बेशर्मी से हमारे गौरवशाली इतिहास को विकृत और नष्ट किया है ये बात अब किसी से छुपी नहीं है। ताजा उदाहरण राम जन्म भूमि में मिले सबूत हैं, कि किस तरह इरफान हबीब से लेकर रोमिला थापर जैसे तथाकथित इतिहासकार देश के सामने हर मुद्दे पर झूठा इतिहास थोपते रहे। लेकिन आश्चर्य और दुर्भाग्य है कि भाजपा के नेता खुद संघ और भाजपा द्वारा प्रचारित किए जा रहे इतिहास को न पढ़ते हैं न जानना चाहते हैं।
ऐसे ही इतिहासकारों ने अंग्रेजों के गुलाम रहे तथाकथित राजा राममोहन राय (22 मई 1772 – 27 सितंबर 1833) को भी देश का ऐसा महान समाज सुधारक बना दिया है जो न तो ढंग से पढ़ा लिखा था न राजा था। ब्राह्मण घर में पैदा हुआ राम मोहन राय कैसे राजा बना और इसाई धर्म ग्रहण करने के बाद अंग्रेजों ने उसे समाज सुधारक बना दिया।
सुबह उठते ही हमारे स्वनाम धन्य नेताओँ और मंत्रियों का एक ही काम होता है जिसकी जन्म तिथि या पुण्य तिथि हो उसके पुण्य कार्यों को याद करते हुए उसे श्रध्दांजलि देना। एक नेता और मंत्री के श्रध्दांजलि देते ही ट्वीटर पर श्रध्दांजलियों का ऐसा ताँता लग जाता है कि हर एक को यही लगता है कि अगर मैने श्रध्दांजलि नहीं दी तो मुझे भी मोक्ष नहीं मिलेगा। सुबह उठते ही कई मंत्रियों ने राजा राममोहन राय को याद करते हुए धड़ाधड़ ट्वीट कर दिए। ये भाजपा के नेता और मंत्री अगर डॉ. मुरली मनोहर जोशी से ही पूछ लेते कि हमें राजा राम मोहन राय पर क्या ट्वीट करना है तो वो उन्हें बेहतर मार्गदर्शन दे देते।
राजा राम मोहन राय के बारे में जानने के पहले भारत की गुरुकल व्यवस्था के बारे में जान लीजिए, इसी गुरुकुल व्वस्था को खत्म करने के लिए तथाकथित राजा राम मोहन राय ने अंग्रजों के साथ मिलकर इसाई शिक्षा व्यवस्था देश पर थोपी थी। एक अंग्रेज था जिसका नाम था जी. डब्लू. लिटनर, उसने भारत की शिक्षा व्यवस्था पर सबसे बड़ा सर्वेक्षण किया और अपनी रिपोर्ट में कहा था कि १८२३ में भारत मे एक भी ऐसा गांव नहीं था जहा गुरुकुल न हो, किसी किसी गांव मे तो एक से ज्यादा गुरुकुल थे | उस ज़माने मे भारत मे सामान्य गांवो की संख्या लगभग ७ लाख ३२ हज़ार थी और इतने ही गुरुकुल थे |
जब कुछ अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी के कर्मचारी के रूप में भारत आए और यहां के समाज में कुछ प्रतिष्ठा पाने का प्रयास करने लगे तो उन्होंने पाया कि इस समाज में शिक्षा का बहुत महत्व है। इसलिए उन्होंने कोलकाता और काशी मे विद्यालय स्थापित किए ।
1780 ईस्वी मे कोलकाता मे एक मदरसा बनाया ताकि उस इलाके के नवाब प्रसन्न हों और 1791 ईस्वी मे काशी मे संस्कृत विद्यालय बनाया ताकि काशी सहित आसपास के हिंदू राजा प्रसन्न हों।
इंग्लैंड मे यह वह दौर था जब वहाँ भारत की लूट से पहली बार धन पहुँचना शुरू हुआ जो भारतीय व्यापारियों के लिए तो नगण्य धन था पर कंगाल और भूखे इंग्लैंड के लिए वह मानो स्वर्ग का खजाना खुल गया था । भारत के सुंदर मुलायम सूती और रेशमी वस्त्र इंग्लैंड और यूरोप के रईस लोगों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं थे।
इस 1793 में इंग्लैंड से पादरी विलियम कैरी भारत आया । इसने इंग्लैंड में रहकर एक पुस्तक लिखी थी- “हिंदुओं तथा अन्य विधर्मियों को ईसाई कैसे बनाया जाए।” उसने बंगाल में कोलकाता के आस पास आकर लोगों को ईसाई बनाने का अभियान छेड़ दिया। कोलकोता में कुछ समय बाद ही उसकी भेंट ब्याज का धंधा करने वाले युवक राम मोहन राय से हुई जो थोड़ी अरबी फारसी पढ़ा था। वह कंपनी के लोगों को ब्याज पर रकम उधार देता था और अपना गुजारा ब्याज की रकम से चलाता था । इस तरह वह कंपनी के लोगों से काफी घुल मिल गया था।
राजा राम मोहन राय का जन्म 14 अगस्त, 1774 को हुगली जिले, बंगाल प्रेसीडेंसी के राधानगर गाँव में रमाकांत राय और तारिणी देवी के घर हुआ था। उनके पिता एक अमीर ब्राह्मण और रूढ़िवादी व्यक्ति थे, और धार्मिक परंपराओँ का सख्ती से पालन करते थे।
14 साल की उम्र में राम मोहन ने एक भिक्षु बनने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन उनकी माँ ने इस विचार का विरोध किया तो उन्होंने ये विचार त्याग दिया।
हालाँकि उनके पिता रमाकांत बहुत रूढ़िवादी थे, लेकिन चाहते थे कि उनका बेटा उच्च शिक्षा हासिल करे। उन्होंने गाँव के स्कूल से बंगाली और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद, राम मोहन को एक मदरसे में फारसी और अरबी का अध्ययन करने के लिए पटना भेजा गया। उस समय फारसी और अरबी पढ़ना जरुरी समझा जाता था क्योंकि यह मुगलों के शासन के दौर में इस भाषा का का ज्ञान होना जरुरी था।
राम मोहन राय ने कुरान और अन्य इस्लामिक शास्त्रों का अध्ययन किया। पटना में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, वह संस्कृत सीखने के लिए बनारस (काशी) गए।
उस समय की परंपराओं के बाद, राम मोहन ने नौ साल की उम्र में बाल विवाह हुआ, लेकिन उनकी पहली पत्नी की शादी के तुरंत बाद मृत्यु हो गई।
उनकी शादी दूसरी बार दस साल की थी और शादी से उनके दो बेटे थे। 1826 में अपनी दूसरी पत्नी की मृत्यु के बाद, उन्होंने तीसरी बार शादी की और उनकी तीसरी पत्नी ने उन्हें छोड़ दिया।
1805 में उसे ईस्ट इंडिया कंपनी में उसे जॉन डिगबॉय नामक अधिकारी के सहायक के रूप में नौकरी मिल गई। यहाँ काम करते हुए उसने अंग्रेजों को खुश करने के लिए बाईबिल पढ़ना शुरु कर दी।
1815 में रॉय ने एकेश्वरवादी हिंदू धर्म के अपने सिद्धांतों को प्रचारित करने के लिए अल्पकालिक आत्मीय सभा (फ्रेंडली सोसाइटी) की स्थापना की। इसके साथ ही राम मोहन राय का झुकाव ईसाई धर्म में हुआ और उसने ओल्ड (हिब्रू बाइबिल) और न्यू टेस्टामेंट को पढ़ने के लिए हिब्रू और ग्रीक भाषा सीखी। 1820 राम मोहन राय ने प्रीस ऑफ जीसस, गाइड टू पीस एंड हैप्पीनेस शीर्षक पुस्तकों में ईसा मसीह की नैतिक शिक्षाओं को प्रकाशित किया ताकि हिंदू लोग अपने धार्मिक ग्रंथों को छोड़ ईशु की मान्यताओं पर भरोसा करने लगे।
राम मोहन राय अपने समाचार पत्रों, ग्रंथों और पुस्तकों में पारंपरिक हिंदू धर्म की मूर्तिपूजा और अंधविश्वास बताते हुए उनकी आलोचना करते रहे।
1822 में रॉय ने अपने हिंदू एकेश्वरवादी सिद्धांतों को सिखाने के लिए एंग्लो-हिंदू स्कूल और चार साल बाद वेदांत कॉलेज की स्थापना की। जब 1823 में बंगाल सरकार ने एक और पारंपरिक संस्कृत महाविद्यालय प्रस्तावित किया, तो रॉय ने कहा कि संस्कृत पढ़ने से नई पीढ़ी को कोई ज्ञान नहीं मिलेगा। इसके लिए राय ने अंग्रेजी शिक्षा की वकालात की।
अगस्त 1828 में रॉय ने ब्राह्म समाज (सोसाइटी ऑफ ब्रह्मा) गठन किया जिसे हिंदू सुधारवादी संप्रदाय नाम देकर इसके माध्यम से इसाई धारणाओं का प्रचार किया गया।
पादरी कैरी ने राममोहन राय के साथ मिलकर जालसाजी भरा ग्रंथ लिखा: “महानिर्वाण तंत्र ” और यह बताया कि “महानिर्वाण तंत्र” भारतीय दर्शन का बहुत बड़ा ग्रंथ है जो कि ईसाइयत के सिद्धांतों को ही संस्कृत में प्रस्तुत करता है और परमेश्वर के विषय में ईसाइयों की जो मान्यता है, ठीक वही मान्यता महानिर्वाण तंत्र मे भी ईश्वर की है।
अंग्रेजों की गुलामी करते हुए मुलाजिम रहते हुए राममोहन राय ने एक अभियान छेड़ दिया कि बंगाल में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो । इसके साथ ही उसने यह अभियान भी चलाया कि अंग्रेज लोग बंगाल में ज्यादा से ज्यादा संख्या में आकर बसें । उसके लिए भारतीयों के समक्ष यह तर्क रखा कि देखो, यह लोग हमारा धन इंग्लैंड ले जाते हैं अगर यही रहेंगे तो हमारा धन यहीं रहेगा और वे यहीं पर व्यापार करेंगे ।
राममोहन की मदद से कंपनी ने एक एंग्लो संस्कृत स्कूल कोलकाता मे खोला , बाद मे उसे ही वेदान्त महाविद्यालय का नाम दिया जबकि वहाँ ईसाई सिद्धान्त ही वेदान्त कहकर पढ़ाये जाते थे ।
राममोहन राय फारसी के जानकार होने के कारण और पादरी विलियम कैरी के माध्यम से अकबर शाह द्वितीय (22 अप्रैल 1760 – 28 सितंबर 1837) नामक जो मुगल खानदान का वंशज दिल्ली में बचा था, उसके संपर्क में आया। अकबर शाह द्वितीय अपनी पेंशन बढ़ाने की अर्जी इंग्लैंड की महारानी को भेजना चाहता था।
राम मोहन राय ने अपने आपको अंग्रेजों का करीबी बताकर अकबर शाह द्वितीय को समझाया कि इंग्लैंड में आप मुझे एक राजा की उपाधि देकर भेजें ताकि लोग वहाँ मेरी इज्जत करें और आपका काम भी आसान हो जाए। राजा ने राम मोहन राय को मुगल सम्राट द्वारा राजा की उपाधि देकर 19 नवंबर, 1830 को इंग्लैंड भेजा।
1833 में ब्रिस्टल, इंग्लैंड में रहने के दौरान मेनिन्जाइटिस से उनकी मृत्यु हो गई। उसे इसाई पद्धति से दफनाया गया । कुछ समय बाद, जिस ईसाई कब्रिस्तान में उसे दफनाया गया था, वहाँ के लोगों ने उसकी कब्र का वहाँ होने का विरोध का और उसकी मौत के 9 साल बाद उसे उस कब्र से निकाल कर ब्रिस्टल मे एक दूसरे कब्रिस्तान की कब्र में फिर से 7 फुट गहरे गड्ढे में दफनाया गया।
उस कब्रिस्तान के पादरी लोग प्रतिवर्ष 27 सितंबर को राम मोहन राय की स्मृति में प्रार्थना करने उस कब्र पर इकट्ठा होते हैं और नेहरू जी की प्रेरणा से तथा कांग्रेस शासन की योजना से भारतीय राजदूत वहां कब्रिस्तान में पहुंचकर” मृतक राम मोहन राय को ईसाई गॉड सद्गति दें” , इस प्रार्थना की सभा में शामिल होते रहे।