औरों को न समझें अपनी तरह
इंसान की फितरत होती है कि वह जिस माहौल में पला-बढ़ा और रचा-बसा होता है उसी के आभामण्डल के साथ जीता हुआ हर क्षण उसी में इतना रमा होता है कि उसे दूसरे सारे लोग भी अपनी ही तरह नज़र आते हैं। उसके भीतर गहरे तक इन भावों का जमावड़ा बना रहता है कि वह जैसा सोचता है, जैसा करता है और जैसा चाहता है वैसा ही दुनिया के और लोग भी न्यूनाधिक रूप में सोचते, चाहते और करते हैं। इस मामले में हर इंसान दूसरों को भी अपनी ही प्रजाति का मान लेता है।
जो लोग अच्छी सोच वाले, उच्च कुल और परंपरा के होते हैं वे हमेशा अच्छा ही अच्छा, सकारात्मक और कल्याणकारी सोचते हैं, श्रेष्ठ कर्म करते हैं और ऎसे काम करते हैं कि जिससे दूसरे सभी जीवों से लेकर जगत तक को सुकून एवं आनंद की प्राप्ति एवं अहसास होता है और सभी को लगता है कि जमाने में जो भी लोग हों, वे इन्हीं की तरह संवेदनशील, रागात्मक और ऊँची सोच रखने वाले हों, तो कितना अच्छा हो, यह धरती ही स्वर्ग बन जाए।
लेकिन ऎसा आमतौर पर होता नहीं है। एक तो आज का युग कलियुग है और दूसरा अब इंसानों की बजाय लोग चलती-फिरती गुमटियां और दुकानें ही दुकानें हो गए हैं जहां मुनाफे और घाटे के सिवा और कोई बात होती ही नहीं है। हर आदमी अपने आप में धंधा होता जा रहा है। कोई छोटा है कोई बड़ा।
अच्छे लोगों के लिए पूरा जमाना अच्छा और सच्चा है। ऎसे लोग हमेशा धर्म, सत्य और सिद्धान्त पर चलते हैं और इन्हीं की बातें करते हैं, इन्हीं के लिए संघर्ष करते हैं। दूसरी ओर युगीन प्रभाव कह डालें या आदमी की धंधेबाजी मानसिकता का चातुर्य, खूब सारे लोग संबंधों को भी लाभ-हानि की तराजू पर तौलने लगे हैं, एक-दूसरे से मुनाफा और कमीशन की बातें करते हैं, और इसी फिकर में रहते हैं कि किस प्रकार अपने आपको बुलंदियों पर लाएं, अपने भण्डारों को कैसे भरपूर रखें और किस प्रकार जमाने भर का माल-असबाब, यश-प्रतिष्ठा को अपने पिटारों में कैद कर रखें ताकि जमाने भर में उनकी तूती बोलती रहे।
हममें से खूब सारे लोग इसी मानसिकता के हैं और यही कारण है कि हम न अच्छे लोगों को बर्दाश्त कर पाते हैं, न हमारा इतना साहस है। न हममें उदारता बची है, न औरों को स्वीकार कर पाने का जज्बा। न हम किसी की खुशी देख पाते हैं, न खुशी के मौकों पर भागीदारी निभा पाते हैं। हमारा चित्त दूषित है, मन मलीन है और तन की, हमारे सिवा और कौन जान सकता है।
जानें कितने बरसों से निरन्तर प्रदूषित मानसिकता और साम्राज्यवादी सोच को लेकर अपनी ही अपनी श्रेष्ठता और अपने नेतृत्व का झण्डा गाड़ने के फेर में हम क्या कुछ नहीं कर रहे हैं। हमारी निगाह गिद्धों की मानिंद उधर ही जाती है जिधर कुछ न कुछ पड़ा हुआ हो, अपनी कल्पनाओं में हम हमेशा उसी के बारे में सोचते हैं जो बहुत कम परिश्रम में प्राप्त हो जाए, हमारे जेहन में अपनी आत्मप्रतिष्ठा और लोकप्रियता लूटने की हवस इतनी अधिक है कि हम दिन-रात उसी-उसी फेर में परिभ्रमण करते रहते हैं।
हमने कभी नहीं सोचा कि हमारे आस-पास भी खूब सारे लोग हैं जो हमारी तरह भी हैं और हमसे कहीं अधिक योग्य भी। इन सभी के कँधों पर सवार होकर, इन्हें अपने कहारों की तरह इस्तेमाल कर हम अपने आपके रथी होने का दंभ भरने लगे हैं।
औरों के कंधों का भरपूर इस्तेमाल कर हमने बहुत कुछ दागना सीख लिया है और दागते रहते हुए सिद्धहस्त भी हो गए हैं। हमारी जादूगरी, बाजीगरी और गोरखधंधों का कोई जवाब नहीं। हमारे आस-पास ऎसे अनुचरों की फौज भी हमने खड़ी कर रखी है कि कभी वे और कभी हम मुख्य धारा में आकर वो सब कुछ पा जाते हैं जो कबीलों के डेरों में एक-दूसरे को नेता मानकर स्वीकारा और उपभोग किया जाकर पाया जाता रहा है। फिर तालियां बजाने और बजवाने वालों से लेकर जयगान करने वालों तक का इंतजाम हम लालीपॉप देकर बहुत ही आसानी से कर ही लिया करते हैं।
जिन लोगों का मन एक बार ललचा जाता है फिर वह सोने के बने हिरण मारीच के चक्कर में ऎसा फंस जाता है कि उसे हर कहीं स्वर्णमृग ही दिखाई देते हैं। जिन्दगी भर मृगमरीचिका में भटक जाने के आदी लोगों की मानसिकता इतनी प्रदूषित होती है कि उनकी आँखों पर स्वार्थ, मक्कारी, धूर्तता, दूसरों को पछाड़ने से लेकर अपना ही अपना अक्स चारों तरफ देखने का फोबिया ऎसा चढ़ जाता है कि फिर उतरने का नाम ही नहीं लेता।
ऎसे लोगों के दिल और दिमाग पर काली घनी परतों की वजह से ऎसा अंधेरा छा जाता है कि इन्हें इन अंधेरों में ही अपने अक्स के साथ लहराते इन्द्रधनुष नज़र आते हैं। यह वह स्थिति होती है जब इंसान अपने तुच्छ और उच्छिष्ट अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए कहीं भी, कुछ भी कर लेने की स्थिति मेें आ जाता है।
तकरीबन यही अवस्था वह परिपक्व और पूर्णावस्था होती है जिसमें इंसान हर किसी को अपनी ही तरह का मानता है और उसका पक्का यकीन यही होता है कि वह जैसा सोच रहा है, वैसा ही और लोग भी सोचते और करते हैं। औरों के बारे में अक्सर अधिकांश लोग यही धारणा पाल लेते हैं।
यही कारण है कि जब भी मनोमालिन्य से घिरे लोगों को कुछ नग्न सत्य और यथार्थ बताया जाता है, वे इसे किसी कीमत पर स्वीकार नहीं कर पाते बल्कि औरों को ही गलत ठहराते हैं। इसका कारण यह है कि जिन लोगों का मन मैला होता है, मस्तिष्क प्रदूषित होता है, व्यवहार में लोेभ-लालच व छीनाझपटी और कल्पनाओं में पूरे संसार का यश-वैभव व प्रतिष्ठा को लूट लेने की इच्छा होती है, वे लोग अपने जीवन में किसी भी क्षण अच्छा और सकारात्मक सोच ही नहीं सकते, ऎसे लोग हमेशा खुद भी गलत होते हैं और दूसरों को भी गलत ठहराते हैं।
ये लोग यह मानने को कभी तैयार ही नहीं होते कि दुनिया में खूब सारे लोग ऎसे भी हैं जो उनकी तरह नहीं सोचते हैं, लाख गुना अच्छे हैं और सभी को साथ लेकर चलते हुए समुदाय के लिए जीने की सोच रखकर हर काम करते हैं।
ऎसे ही मलीन लोग जिन्दगी भर तर्क-कुतर्कों का सहारा लेते हैं और छोटी-छोटी बातों में नियंत्रण खोकर सब कुछ अपने ऊपर ओढ़ लिया करते हैं भले ही उनका इससे कोई संबंध हो न हो। आजकल ऎसे खूब सारे लोग हैं जो अपने जीवन को धंधा बना चुके हैं और मुनाफे का खेल खेलते हुए पूरे समाज में गंदगी फैलाने में लगे हुए हैं।
इन लोगों के लिए इनके जैसे ही निम्न श्रेणी के सदा-भिक्षुक वृत्ति के लोग मिल भी जाते हैं जिनके साथ महफिल लगाकर ये दुनिया में अपनी अलग ही आसुरी भजन मण्डली जमा कर एक-दूसरे का कीर्तिगान करते रहते हैं और ‘अहो रूप अहो ध्वनि’ का डंका बजाते हुए मौके-बेमौके अपने अस्तित्व का सबूत देने की हरचंद कोशिशें करते रहते हैं।
इनमें से कुछ लोग ही किसी दैवी कृपा या समझदारों के इशारों को समझ पाते हैं कि जैसा वे सोचते हैं, जरूरी नहीं कि वैसा ही और लोग भी सोचते हैं। और लोग हमसे अधिक शुभ्र और स्वस्थ चित्त रखने वाले होते हैं जिनकी निगाह नीर-क्षीर और पावन होती है , हमारी तरह मैली नहीं कि जिसमें तल भी दिखाई देना बंद हो जाए और पानी भी कीचड़ वाला मटमैला।
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