मां भारती के प्रति पूर्णतया समर्पित व्यक्तित्व के स्वामी थे क्रांतिवीर सावरकर
प्रणय कुमार
विनायक दामोदर सावरकर यानी स्वातंत्र्यवीर सावरकर पर एक विचारधारा विशेष के लोग आरोप लगाते रहे हैं| उनका आरोप है कि वीर सावरकर ने तत्कालीन ब्रितानी हुकूमत से माफ़ी माँगी थी और उनकी शान में क़सीदे पढ़े थे। यद्यपि राजनीतिक क्षेत्र में आरोप लगाओ और भाग जाओ की प्रवृत्ति प्रचलित रही है।उसके लिए आवश्यक प्रमाण प्रस्तुत करने का दृष्टांत कोई सामने नहीं रखता। परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या उन आरोपों से उनका महात्म्य कम हो जाता है? आइए, उन पर लगे आरोपों के आईने में उनका अवलोकन-मूल्यांकन करें।
उनकी माफ़ी उनकी रणनीतिक योजना का हिस्सा भी तो हो सकती है! क्या शिवाजी द्वारा औरंगज़ेब से माफ़ी माँग लेने से उनका महत्त्व कम हो जाता है? कालेपानी की सज़ा भोगते हुए गुमनाम अँधेरी कोठरी में तिल-तिलकर मरने की प्रतीक्षा करने से बेहतर तो यही होता कि बाहर आ सक्रिय-सार्थक-सोद्देश्य जीवन जिया जाय।कोरोना-काल में हम सबने यह अनुभव किया है कि सभी सुविधाओं के मध्य भी घर में बंद रहना यातनाप्रद है, फिर वीर सावरकर को तो भयावह यातनाओं के अंतहीन दौर से गुजरना पड़ा था।
जहाँ तक ब्रितानी हुकूमत की तारीफ़ की बात है तो अधिकांश स्वतंत्रता-सेनानियों ने अलग-अलग समयों पर किसी-न-किसी मुद्दे पर ब्रिटिश शासन की तारीफ़ में वक्तव्य ज़ारी किए हैं।इन तारीफों को उनकी राजनीतिक समझ का हिस्सा या तत्कालीन परिस्थितियों का परिणाम माना गया।फिर सावरकर जी के साथ यह अन्याय क्यों?
गाँधी जी ने समय-समय पर ब्रिटिश सरकार को पत्र लिखकर उनके प्रति आभार प्रदर्शित किया है, उनके प्रति निष्ठा जताई है। उन्होंने सार्वजनिक रूप से ऐसे पत्र लिखे हैं, जिसमें भारतीयों को अंग्रेजों का वफ़ादार बनने की नसीहत दी है, ब्रिटिशर्स द्वारा शासित होने को भारतीयों का सौभाग्य बताया है।वे अंग्रेजों के अनेक उपकारों का ज़िक्र करते हुए भाव-विभोर हए हैं।बल्कि गाँधी ऐसे चिंतक रहे हैं जिनका चिंतन काल-प्रवाह के साथ सबसे ज़्यादा परिवर्तित हुआ है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गाँधी द्वारा तत्कालीन वायसराय को लिखे पत्रों को पढ़िए। आप जानेंगे कि गाँधी वहाँ अंग्रेजों की चापलूसी-सी करते प्रतीत होते हैं। वे अंग्रेजों की ओर से भारतीय सैनिकों की भागीदारी को उनका फ़र्ज़ बताते नहीं थकते! तो क्या इन सबसे स्वतंत्रता-संग्राम में उनका महत्त्व कम हो जाता है? क्या यह सत्य नहीं कि किसी एक पत्र, माफ़ीनामे या स्वीकारोक्ति से किसी राष्ट्रनायक का महत्त्व या योगदान कम नहीं होता?
एक ओर जहाँ गाँधी जी स्वतंत्रता-पश्चात की धार्मिक-सामुदायिक एकता का काल्पनिक-वायवीय स्वप्न संजोते रहे और मज़हबी कट्टरता से आसन्न संकट को भाँप नहीं पाए, वहीं सावरकर जी यथार्थ का परत-दर-परत उघाड़कर देख सके कि इस्लाम का मूल चरित्र ही हिंसक, आक्रामक, विस्तारवादी और अन्यों के प्रति अस्वीकार्य-बोध से भरा है।गाँधी राजनीतिज्ञ की तुलना में एक भावुक संत अधिक नज़र आते हैं, जो स्वयं को और अपनों को दंड देकर भी महान बने रहना चाहते हैं, जबकि पूज्य सावरकर इतिहास का विद्यार्थी होने के कारण सभ्यताओं के संघर्ष और उसके त्रासद परिणामों को देख पा रहे थे।इसीलिए वे विभाजन के पश्चात किसी भी एकपकक्षीय, बनावटी, लिजलिजी, पिलपिली एकता को सिरे से ख़ारिज कर रहे थे।
मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, सुरेंद्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण गोखले जैसे काँग्रेसी नेताओं या राजा राममोहन राय जैसे अनेकानेक समाज सुधारकों ने खुलकर ब्रिटिश शासन और उनकी जीवन-शैली की पैरवी की, यदि इस आधार पर उनके योगदान को कम करके नहीं देखा जाता तो इनके बरक्स राष्ट्र के लिए तिल-तिल जीने वाले पूज्य सावरकर जी पर सवाल उठाने वालों की मानसिकता समझी जा सकती है।
आंबेडकर भी अनेक अवसरों पर ब्रिटिशर्स की पैरवी कर चुके थे, यहाँ तक कि स्वतंत्रता-पश्चात दलित समाज को वांछित अधिकार दिलाने को लेकर वे स्वतंत्रता का तात्कालिक विरोध कर चुके थे।तो क्या इससे उनका महत्त्व और योगदान कम हो जाता है? उन्होंने भी इस्लाम के आक्रामक, असहिष्णु, विघटनकारी, विस्तारवादी प्रवृत्तियों से तत्कालीन नेताओं को सावधान और सचेत किया था। वे विभाजन के पश्चात ऐसी किसी भी कृत्रिम-काल्पनिक-लिजलिजी-पिलपिली एकता के मुखर आलोचक थे, जो थोड़े से दबाव या चोट से बिखर जाय, रक्तरंजित हो उठे।उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि इस्लाम का भाईचारा केवल उसके मतानुयायियों तक सीमित है।मुसलमान कभी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानेगा, क्योंकि वह स्वयं को आक्रांताओं के साथ अधिक जोड़कर देखता है।उनका मानना था कि मुसलमान कभी स्थानीय स्वशासन को नहीं आत्मसात करता, क्योंकि वह कुरान और शरीयत से निर्देशित होता है और उसकी सर्वोच्च आस्था इस्लामिक मान्यता एवं प्रतीकों-स्थलों के प्रति रहती है, जो उसे शेष सबसे पृथक करती है।आंबेडकर इस्लाम की विभाजनकारी प्रवृत्तियों से भली-भाँति परिचित थे।
पूज्य सावरकर जी की मातृभूमि-पुण्यभूमि वाली अवधारणा पर प्रश्न उछालने वाले क्षद्म बुद्धिजीवी क्या आंबेडकर को भी कटघरे में खड़े करेंगें? सच यह है कि ये दोनों राजनेता यथार्थ के ठोस धरातल पर खड़े होकर वस्तुपरक दृष्टि से अतीत, वर्तमान और भविष्य का आकलन कर पा रहे थे।यह उनकी दूरदृष्टि थी, न कि संकीर्णता।
पूज्य सावरकर जी मानते थे कि जब तक भारत में हिंदू बहुसंख्यक हैं, तभी तक भारत का मूल चरित्र धर्मनिरपेक्ष रहने वाला है| कोरी व भावुक धर्मनिरपेक्षता की पैरवी करने वाले कृपया बताएँ कि भारत से पृथक हुआ पाकिस्तान या बांग्लादेश क्या गैर इस्लामिक तंत्र दे पाया? वहाँ की मिट्टी, आबो-हवा, लबो-लहज़ा, तहज़ीब- कुछ भी तो हमसे बहुत भिन्न न थी? छोड़िए इन दोनों मुल्कों को, क्या कोई ऐसा राष्ट्र है जो इस्लामिक होते हुए भी धर्मनिरपेक्ष शासन दे पाने में पूरी तरह कामयाब रहा हो? तुर्की का उदाहरण हमारे सामने है, जिसकी बुनियाद में धर्मनिरपेक्षता थी, पर आज मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे संगठन या वहाबी विचारधारा वहाँ केंद्रीय धुरी है।
सच तो यह है कि स्वातंत्र्यवीर सावरकर का महत्त्व न तो उन पर लगाए गए आरोपों से कम होता है, न उनके हिंदू-हितों की पैरोकारी से| उनका रोम-रोम राष्ट्र को समर्पित था| उनकी राष्ट्रभक्ति अक्षुण्ण और अनुकरणीय थी| राष्ट्र की बलिवेदी पर उन्होंने तिल-तिल होम कर दिया| वे अखंड भारत के पैरोकार व पक्षधर थे| उन्होंने अपनी प्रखर मेधा शक्ति के बल पर 1857 के विद्रोह को ‘ग़दर’ के स्थान पर ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम” की संज्ञा दिलवाई| उनका समग्र व वस्तुपरक इतिहास-बोध व विवेचना उन्हें किसी भी इतिहासकार से अभूतपूर्व इतिहासकार सिद्ध करता है| उन्होंने मुंबई में पतित पावन मंदिर की स्थापना कर एक अनूठी पहल की| वे छुआछूत के घोर विरोधी रहे | उन्होंने धर्मांतरित जनों के मूल धर्म में लौटने का पुरज़ोर अभियान चलाया | समाज-सुधार के लिए वे आजीवन प्रयत्नशील रहे| तत्कालीन सभी बड़े राजनेताओं में उनका बड़ा सम्मान था| गाँधी-हत्या के मिथ्या आरोपों से भी न्यायालय ने उन्हें अंततः ससम्मान बरी किया| राष्ट्र उन्हें सदैव एक सच्चे देशभक्त, प्रखर चिंतक, दृष्टिसंपन्न इतिहासकार, समावेशी संगठक और कुशल राजनेता के रूप में याद रखेगा। आज आवश्यकता अपने राष्ट्रनायकों के प्रति कृतज्ञता के भाव व्यक्त करने की है, न कि उनके प्रति अविश्वास और अनास्था के बीज बोने की।