आजकल विरोध शब्द इतना सर्वव्यापक हो चला है जितना कि भ्रष्टाचार और स्वार्थ। हर आदमी किसी न किसी को अपना विरोधी बता रहा है या विरोधी मान बैठा है। आमतौर पर कोई किसी का विरोधी नहीं हो सकता। अधिकांश मामलों में हम जिन्हें अपना विरोधी मानते हैं, उनका अपने से कोई लेन-देन या किसी भी प्रकार का संबंध नहीं होता, वे लोग एकतरफा भ्रमों की वजह से दूसरों को विरोधी मान बैठते हैं अथवा अपने आस-पास रहने वाले नालायकों द्वारा कान भरे जाने की वजह से बिना किसी कारण के हम दूसरे लोगों को अपना विरोधी मान लिया करते हैं और एकतरफा भ्रमों, शंकाओं और आशंकाओं में जीते हुए अपना भी चिंतन खराब करते हैं और दूसरों के बारे में भी गलतफहमियाँ पाले रहते हुए दुष्प्रचार करते रहने का पाप अपने खाते में इकट्ठा करते रहते हैं।
यह हमारी वैचारिक दुर्बलता और मानसिक दारिद्रय ही कहा जा सकता है कि हम अपने आस-पास रहने वाले चापलुसों, खुदगर्जों, झूठे-मक्कार व धूर्त लोगों की बातों में आकर अपने जीवन-व्यवहार और मन को इतना प्रदूषित कर लेते हैं कि हमारे भीतर से अच्छे और बुरे इंसान की परख करने की सारी क्षमताएँ समाप्त हो जाती हैं और हमारे मस्तिष्क का पूरा नियंत्रण उन लोगों की मुट्ठियों में कैद हो जाता है जो दिमाग को खिलौना मानकर हमें नचाने के आदी होते हैं।
ऎसे लोग हर युग में रहे हैं और रहेंगे, बचना हमें ही है इनसे। विरोध का मनोविज्ञान कई रोचकताओं से घिरा हुआ रहा है। सामान्यतौर पर अपना विरोधी वही हो सकता है, और होना चाहिए जो हमारी बराबरी या मुकाबले का हो। लेकिन आजकल ऎसा नहीं होता। अब मामूली इंसान भी किसी शिखर पुरुष का विरोध करने लग गया है।
जीवन विकास से जुड़े विभिन्न चरणों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को न्याय सम्मत माना जा सकता है लेकिन दूसरों को उखाड़-पछाड़ कर, नीचे गिराकर, छवि धूमिल कर, बुनियादहीन बातें उड़ाकर, आधारहीन लाँछन लगाकर विरोध के लिए विरोध करने का जो शगल पिछले चार-पाँच दशकों से चला आ रहा है उसने विरोध की सारी मर्यादाओं और मानवी अनुशासन का गुड़गोबर ही कर दिया है।
आजकल बिना किसी बात के विरोध करना पब्लिसिटी पाने और दूसरों की बराबरी पर पहचाने जाने का सबसे सस्ता व सर्वसुलभ हथकण्डा ही बन कर रह गया है। बिना औकात का इंसान भी यदि किसी दूसरे बड़े आदमी के बारे में कुछ अंट-शंट बक दे तो वह प्रचार पा जाता है, उसका नाम शीर्षस्थ लोगों के साथ जोड़ा जाने लगता है और इस प्रकार जीवन में बिना कुछ परिश्रम किए कोई भी सामान्येतर इंसान भी शोहरत का मुकाम पा जाने को उतावला हो गया है, भले ही इसकी चमक कुछ ही दिन की मेहमान क्यों न हो।
विरोध और प्रतिस्पर्धा में रात-दिन का अंतर है। लेकिन आजकल अधिकांश लोग प्रतिस्पर्धा करने में विश्वास नहीं रखते, क्योंकि उसमें सफलता पाने के लिए परिश्रम, धैर्य और अनुशासन की जरूरत होती है जबकि विरोध सभी प्रकार की मर्यादाओं, अनुशासन और सिद्धान्तों के खुले उल्लंघन की खुली छूट देता है, जिसमें निर्णायक भी कोई और नहीं होता, वही होता है कि जो अधिक से अधिक विरोध कर इसका लाभ लेने का हुनर पा जाता है।
विरोध का पूरा नज़रिया ही आजकल बदला हुआ हो गया है। जिन लोगों का कहीं से कोई मेल नहीं है, कद-काठी, मानसिक और शारीरिक, विचारधाराओं, व्यवहार, चरित्र और जीवनपद्धति से लेकर किसी भी मामले में कोई संबंध न हो, वे लोग भी ऎसे व्यक्तियों का विरोध कर रहे हैं जो उनके कई गुना श्रेष्ठ हैं।
इस मामले में हमें पशुओं और पुरातन युगों की ऎतिहासिक और पौराणिक घटनाओं से भी सबक लेने की आवश्यकता है। विरोध के मामले में सब तरफ गड़बड़झाला है। रिश्वतखोर, भ्रष्ट और पैसे कमाने की अँधी दौड़ में जुटे लोग पुरुषार्थियों व सज्जनों का विरोध कर रहे हैं, सत्ता हथियाने और बनाए रखने के लोभी उन लोगों का विरोध कर रहे हैं जिन्होंने ऋषियों की तरह जीवन जीकर किंगमेकर की भूमिका को धन्य किया हो।
चोर-उचक्के और मुनाफाखोर लोग ईमानदारों का विरोध कर रहे हैं, भोग-विलासी लोग उनका विरोध कर रहे हैं जो संसार छोड़कर वैराग्य का आश्रय पा चुके हैं, पद, पैसों, प्रतिष्ठा, पुरस्कारों, सम्मानों, अलंकरणों के तीव्र आकांक्षी और यश के भूखे-प्यासे लोग उनका विरोध कर रहे हैं जिन लोगों को कभी इनकी कामना तक नहीं रही, न कभी इसके लिए आवेदन किया, बल्कि मंच, लंच और स्वागत-सत्कार से दूर ही रहे।
किताबों की भीड़ बढ़ाकर स्वनामधन्य लेखक, साहित्यकार और प्रकाशक होने का दम भरने वाले उन लोगों का विरोध कर रहे हैं जिन्हें न रद्दी जमा करने से कोई सरोकार है, न कतरनों की प्रदर्शनी का शौक रखते हैं। मंचों पर दहाड़ने वाले उनका विरोध कर रहे हैं जिन्हें न मंचों का मोह है, न भाषणों या रचनाओं के पठन का। पैसों को परमेश्वर मानकर मर जाने वाले लोग उनका विरोध कर रहे हैं जिनके लिए पैसे की कोई अहमियत कभी नहीं रही। चाटुकारों, चापलुसों और असुरों की भीड़ बढ़ाकर अपने अस्तित्व को जताने वाले लोग उनका विरोध कर रहे हैं जो मौन होकर निष्काम सेवा करने में तल्लीन हैं।
पता नहीं विरोध शब्द को ही क्या हो गया है। परिभाषाएं बदल गई हैं, अर्थ प्रदूषित हो गए हैं और विरोध के नाम पर विरोध का दौर ऎसा चल पड़ा है कि लोग इसे हथियार मानकर एक-दूसरे के पीछे पड़े हुए हैं। हालात इतने अजीबोगरीब हो चुके हैं जिन लोगों को दूसरे लोगों से किसी प्रकार का कोई मतलब नहीं है, जीवन और परिवेश के किसी सरोकार से कोई रिश्ता नहीं है, जो लोग अपने काम में मस्त हैं, उन लोगों का भी नालायक लोग मिलकर विरोध करने लग जाते हैं और बेमौत मारकर गिद्धों और श्वानों की तरह टूट पड़ते हैं।
शर्मनाक दुर्भाग्य यह है कि विरोध करने वाली प्रजाति में उन लोगों की संख्या ज्यादा है जो किताबी कीड़ों भरे अभयारण्य के जीव कहे जाते हैं और माना जाता है कि इनकी बुद्धि समाज और देश के काम आने लायक है। मच्छर हँसों से मुकाबला करने लगे हैं, चींटियां खरगोशों से, कुत्ते हाथियों से और खच्चर हिरणों से मुकाबला करने लगे हैं।
उल्लू मशालचियों से मुकाबला करने लगे हैं, गधे घोड़ों से मुकाबला करने लगे हैं, और यह मुकाबला भी ऎसा कि न सिर है, न पैर। मुकाबला भी इसलिए करना है कि विरोध दर्ज कराना है और विरोध होगा तभी इनके साथ तुलना की जा सकेगी, नाम उछलेगा और इस पब्लिसिटी का कहीं न कहीं फायदा जरूर मिलेगा ही। हर कोई उन्मुक्त, उच्छृंखल और मुक्त है, किसी का भी विरोध करने के लिए।
कहीं विरोध अभिनय का हिस्सा बन गया है, कहीं प्रतिशोध का, और कहीं नालायकी का। इंसानियत के गिरते स्तर भरे मौजूदा माहौल में अब सब कुछ जायज हो चला है। विरोध करने वाले हर कदम पर हमारी प्रतीक्षा में खड़े मिलेंगे, कहाँ-कहाँ इन भौंकने वालों को जवाब देते फिरेंगे। बिना वजह विरोध करने वाले और बेवजह हमें विरोधी मानने वालों की इस बेलगाम और बुद्धिहीन भीड़ में तमाम किस्मों के नालायकों से बेपरवाह रहकर खुद को ही बचकर चलना और आगे बढ़ना होगा।
ऎसे विरोधियों के प्रति दया व करुणा भाव रखें, उन पर तरस खाएं, हो सकता है इस विरोध से उन्हें लोग पहचानने लग जाएं और कहीं से कोई मीठा-नमकीन टुकड़ा मिल जाए, जिससे इनकी भूख शांत हो सके, यह भी अपने आप में धर्म ही है।
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