जीने की इच्छा  बनाए  रहो  ….

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कविता – 33

तर्ज :- तुम अगर साथ देने का वायदा करो ….

जीने   की   इच्छा    बनाए    रहो ,
ध्यान कर्मों पर अपने लगाए रहो।
पाप कर्मों से बच कर चलते  रहो
मन के आंगन में झाड़ू लगाये रहो।।

शुभ कर्मों में मन जिसका रहता लगा,
वह कभी पथ से अपने भटकता नहीं।
चलता जाता है  ऐसी  डगर  पर  वह
सारे  रस्ते  में  बंदा  अटकता  नहीं ।।
मुक्त बंधन  से  होकर  जीवन  जियो
प्रीत  अपने  प्रभु  से  बढ़ाये  रहो,
जीने की इच्छा  बनाए  रहो  …….

शरणागत  प्रभु  के  यदि  हो  गए
तो   मिलने  लगेगा तुम्हें ऐसा रस।
रसों  का  भी  रस  होता जगदीश्वर ,
ऋषियों ने पुकारा उसे – सोमरस।।
नित्य पीते  रहो  और पिलाते रहो
उसकी मस्ती में मस्ती मिलाये रहो,
जीने की इच्छा  बनाए  रहो …….

विधाता  के  वरदान  के  रूप  में
हमको अनमोल जीवन उसी से मिला ।
पत्ते पत्ते की कतरन में  वो  बस  रहा
पुष्प बगिया का हर कोई उससे खिला।।
उससे  पालो  नहीं  कोई  गिला   तुम
कभी , संवाद  निरंतर   बनाये रहो ,
जीने की इच्छा  बनाए  रहो  …….

वह तो साथी  सदा  का  सदा  ही  रहे
पर  हमें  अपने  घर  को  बदलना पड़े।
जब तलक वास अपना  यहां  हो  रहा
उस प्रभु को  ना  हमको  बदलना  पड़े।।
‘राकेश’ करते  रहो  तुम  यजन
अपने ईश्वर से मिलते मिलाते रहो,
जीने की इच्छा  बनाए  रहो  …….

यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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