नरवर था एक प्रमुख राज्य
मिनहाज से हमें ज्ञात होता है कि 12 नवंबर 1251 को सुल्तान नासिरूद्दीन की सेना ने जब नरवर ग्वालियर, चंदेरी और मालवा की ओर प्रस्थान किया था तो उस समय नरवर का राज्य इन सबसे बड़ा था और इसके राजा चाहड़देव के पास उस समय लगभग दो लाख पैदल सेना तथा पांच हजार सवार थे।
राजा चाहड़देव से हुआ सामना
उलुघ खां हिंदू मस्तक के चंदनों को अपने पैरों में ला लाकर उन्हें मिटाने और अपमानित करने के लिए कृत संकल्प था। यह अलग बात है कि अब से पूर्व वह कई स्थानों पर स्वयं ही अपमान और पराजय को देख चुका था। यहां भी उसने ही सुल्तानी सेना का नेतृत्व संभाला। उसका वीर हिंदू राजा चाहड़देव से नरवर के आसपास ही सामना हुआ। मिनहाज हमें बताता है कि इस युद्घ में नरवर का राजा चाहड़देव पराजित हो गया था और उलुग खां को यहां से अकूत धन संपदा प्राप्त हो गयी थी। परंतु इतिहास में जब किसी राजा के पूर्ण पराभव की कहानी लिखी या वर्णित की जाती है, तो देखा ये भी जाता है कि उसके पराभव के पश्चात उसके सिक्के कब तक चले? यदि सिक्के उसके पराभव के किसी कथित वर्ष तक ही रहे तो मानिये कि उसी वर्ष उसका पराभव हो गया था। परंतु यदि उस राजा के सिक्के उसके पराभव के किसी कथित वर्ष से आगे भी मिलते हैं तो मानिये कि उसका पराभव उसी वर्ष नही हुआ था।
पराभव स्थायी नही था
जब हम राजा चाहड़देव के उलुग खां के साथ हुए युद्घ की तिथि पर विचार करते हैं, तो ये तिथि 1251 ईं. की है और जब हम इस राजा के नरवर क्षेत्र से मिलने वाले सिक्कों की बात करते हैं तो देखते हैं कि इसके सिक्के चलने का प्रमाण 1256 ई. तक का है। इसका अभिप्राय है कि राजा चाहड़देव का पराभव 1251 ई. नही हुआ था। 1251 ई. में मुसलमानों ने यदि नरवर पर विजय भी प्राप्त कर ली थी तो वह स्थायी सिद्घ नही हो पायी थी।
‘क्वायन्स ऑफ मेडिवल इण्डिया’ का ठोस प्रमाण है कि राजा चाहड़देव ने मुस्लिम सेना के हटते ही तेजी से उनके नवाधिकृत भू भागों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया था और अपने वंश के राज्य की पुनस्र्थापना कर दी थी। इस प्रकार उलुग खां को नरवर में मिली सफलता क्षणिक ही सिद्घ हुई।
‘क्वायन्स ऑफ मेडिवल इण्डिया’ व अन्य पुस्तकों की साक्षी के आधार पर इतिहासकारों का मत है कि नरवर में जज्वपेलीय वंश की राजसत्ता बलबन के शासनकाल (1266-86 ई.) के पश्चात लगभग 1298 ई. तक भी बनी रही। इस काल में यहां चाहड़देव, नरवर्मन, असल्लदेव, गोपाल और गणपति जैसे वीर हिन्दू शासकों ने शासन किया।
12 नवंबर 1251 ई. को उलुग खां द्वारा किये गये इस सैन्य अभियान के विषय में मिनहाज हमें बताता है कि उलुग खां की सेना मालवा तक पहुंच गयी थी। परंतु मिनहाज या किसी भी समकालीन लेखक ने मालवा में किसी प्रकार की हानि का उल्लेख नही किया है। जिससे स्पष्ट है कि मालवा में कोई युद्घ नही हुआ। मालवा राज्य की सीमाओं में जाकर कोई उपद्रव मुस्लिम सेना ने कर दिया हो तो अलग बात है। मालवा में उस समय परमार वंश का शासक था, जो कि दास वंश के पतन के पश्चात तक भी यथावत शासन करता रहा।
नासिरूद्दीन जब सुल्तान बना था तो उसकी समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए शाहिद अहमद ने अपनी पुस्तक ‘‘भारत में तुर्क एवं गुलाम वंश का इतिहास’’ में कहा है कि-‘‘राजपूत अपनी खोई हुई स्वतंत्रता को भूले नही थे। वे अवसर पाने पर विद्रोह का झण्डा खड़ा करके सल्तनत पर आक्रमण कर देते थे तथा कर देना बंद कर दिया करते थे। इन विद्रोही (स्वतंत्रता प्रेमी) राजपूतों की शक्ति इतनी प्रबल हो गयी थी कि प्राय: राजधानी में भी प्रवेश करके लूटमार किया था करते थे।’’
अत: स्पष्ट है कि राजपूत अपने अतीत के गौरव की पुनस्र्थापना के लिए सतत संघर्ष करते रहे। यहां राजपूत का अभिप्राय हिंदू से है। हमारे लिए राजपूत शब्द को जानबूझकर प्रयोग किया जाता है, जिससे कि हम अपने आपको हिंदू न मानकर जातीयता के आधार पर स्वयं को बंटा हुआ देखें। इसी पुस्तक में पृष्ठ 332 पर डा. शाहिद अहमद पुन: लिखते हैं-‘‘दोआब में अधिकांश उपद्रव हिंदुओं के हुए थे।’’ पृष्ठ 336 पर लेखक का कथन है कि- ‘‘नासिरूद्दीन की दसवी समस्या हिंदुओं के विद्रोह की थी। अल्तमश के निर्बल उत्तराधिकारियों के शासनकाल में हिंदुओं को विद्रोह करने तथा अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया था। फलस्वरूप इन लोगों ने दिल्ली सल्तनत की सीमा को संकीर्ण करने का प्रयत्न आरंभ कर दिया।’’
लेखक बंगाल के विषय में क्या कहता है
बंगाल पर मुस्लिम शासन को समाप्त कर वहां पुन: हिंदू राज्य स्थापित करने के लिए कई हिंदू राजाओं ने प्रयास किये। जिन्हें देखकर स्पष्ट पता चलता है कि हिंदू शासकों के लिए उस समय स्वतंत्रता कितनी मूल्यवान वस्तु बन गयी थी, कितनी प्रिय हो गयी थी, कि हर पल उसी का चिंतन उसी का सिमरन और उसी की साधना में लगे रहते थे। उन्हें यह बात पच नही रही थी कि विदेशी लोग आकर हमारी स्वतंत्रता को हड़प लें, और हम पर शासन करने लगें। इसलिए उक्त लेखक डा. शाहिद अहमद लिखते हैं कि-‘‘नासिरूद्दीन के शासन काल में कई हिंदू शासकों ने बंगाल पर आक्रमण किया और वहां के मुसलमान शासक के साथ संग्राम किया। इस काल में गंग वंशीय नृसिंह प्रथम (1238-64 ई.) ने बंगाल पर कई बार आक्रमण किया और दक्षिणी पश्चिमी बंगाल पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। इसी काल में कामरूप के राजा ने भी लखनौती के शासक को परास्त किया और उसे बंदी बना लिया। दक्षिण तथा पूर्वी बंगाल के हिंदू शासक भी प्राय: स्वतंत्र ही रहे।’’
बंगाल ही था कभी बंग
बंगाल हमारे देश का वह भाग जिसे महाभारत काल में बंग के नाम से पुकारा जाता था। जबकि इसी के साथ लगता उड़ीसा उस समय अंग देश था। दुर्योधन ने इसी क्षेत्र अंग का राजा कर्ण को बनाया था। तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बंगाल मौर्य साम्राज्य का एक अंग था। यह क्षेत्र गुप्तवंश के राजाओं के अधीन भी रहा था। सातवीं शताब्दी में राजा गोपाल ने यहां पालवंश की स्थापना की थी। लगभग उसी समय राजस्थान में गुहिल वंश (कालांतर में राणावंश) अपना विकास कर रहा था। इस राणा वंश ने मेवाड़ से शासन किया था। पाल राजाओं के पश्चात इस क्षेत्र पर सेन राजवंश का आधिपत्य स्थापित हो गया। 13वीं शताब्दी में जब इस प्रांत ने अपनी स्वतंत्रता खोयी तो पड़ोसी हिंदू शासकों ने बंगाल के गौरवपूर्ण अतीत की रक्षार्थ भरसक प्रयास किये कि बंगाल का गौरव बचा रहे और किसी प्रकार से भी इसकी स्वतंत्रता का हनन न होने पाये।
आसाम ने भी बंगाल को बचाने का किया था प्रयास
बंगाल की स्वतंत्रता को बचाने का प्रयास भी आसाम ने किया। यह प्रांत कभी प्राग्ज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था। कालांतर में इसका नाम कामरूप हो गया था। कालिदास ने अपनी सुप्रसिद्घ कृति ‘रघुवंशम्’ में इसे नीललोहित का नाम दिया है। यहां कभी राणा भास्करवर्मन और उनके प्रतापी राजवंश का शासन रहा था। 743 ई. में इसी राजा के शासनकाल में ह्वेनसांग ने यहां की यात्रा की थी। असम ने भारत की गौरवपूर्ण संस्कृति का प्रचार-प्रसार और विस्तार बर्मा (म्यांमार) और अन्य देशों में किया। इसलिए असम अब भी अपने दायित्व बोध को भली प्रकार समझ रहा था। इसीलिए उसने बंगाल में पनप रहे मुस्लिम शासन को भारत की संस्कृति के लिए भयानक संकट माना और उसे रोकने के लिए यहां के मुस्लिम शासकों पर कई आक्रमण किये।
नासिरूद्दीन का मूल्यांकन
नासिरूद्दीन के विषय में डा. अवध बिहारी पाण्डेय का कहना है-‘‘उसका शासनकाल उपद्रव तथा तूफान का काल था, किंतु अपनी सूझबूझ तथा बलबन की बुद्घिमत्ता से उसने दिल्ली सल्तनत को नष्ट होने से बचा लिया।’’
नासिरूद्दीन के विषय में यही सच है। उसका इतिहास में जितना भी नाम है, वह अपने प्रमुख सेनापति उलुग खां बलबन के कारण ही है। जितने भर भी सैनिक अभियान इस शासक के शासन काल में हुए उनमें से अधिकांश का सैन्य संचालन उलुग खां के हाथों में रहा था। नासिरूद्दीन में गुण संपन्नता का अभाव था। इसलिए मो. हबीबुल्ला ने उसके लिए लिखा :-‘‘लगभग बीस वर्षों तक सम्प्रभुता नासिरूद्दीन के हाथों में रही, परंतु उसने कभी शासन नही किया। उसकी पवित्रता तथा सरलता की प्रशंसा की जा सकती है। परंतु इसमें कुछ भी संदेह नही है कि न तो वह दृढ़ संकल्प का व्यक्ति था और न उसके स्वभाव में यह था कि वह अपनी बात पर दृढ़ रह सके। उसका सीधापन एक विजेता प्रजाति के शासक के अनुकूल न था, क्योंकि अल्तमश के प्रतिनिधि के लिए दृढ़ संकल्प का होना अनिवार्य था। सुल्तान में उत्साह का अभाव होना राजमुकुट की मर्यादा के लिए खतरनाक सिद्घ हो सकता था।’’
हमारी भी दुर्बलता रही
इस प्रकार एक दुर्बल शासक को भी हमारी अपनी दुर्बलता (इतिहास लेखन में प्रमाद या अरूचि दिखाने के कारण) के कारण इतिहास में प्रमुख स्थान मिल गया। किसी भी व्यक्ति के लिए इतिहास के बीस वर्षों को उसके नाम निश्चित कर देना उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होती है। जिसकी पगड़ी जिसके सिर पर कभी संतोषजनक रूप से स्थिर ही न रह पायी, उस व्यक्ति को इतिहास में बीस वर्ष की अवधि मिल जाना आश्चर्यजनक है। क्योंकि इस पगड़ी को कभी रणथम्भौर ने तो कभी नरवर मालवा ने और कभी आसाम ने तो कभी दोआब आदि ने चुनौती दी और कभी भी उसे सहजता से शासन नही करने दिया। यह केवल भारत में ही संभव है कि एक छोटे शासक को (अल्तमश जैसे व्यक्ति को) बड़े भूभाग पर शासन करने वालों (बहुमत पर) पर वरीयता और प्राथमिकता दी जाती है, और उसे मुख्य भूमिका में लाकर खड़ा कर दिया जाता है।
मुस्लिम काल में जो लोग पेट के कारण अपने ‘लेखनी धर्म’ को भूल गये थे उनके लिए तो ये बात समझ में आ सकती है कि ‘पेट-धर्म’ पर ‘लेखनी धर्म’ भेंट चढ़ गया था, परंतु आज तो ये स्थिति नही होनी चाहिए।
‘रामकृष्ण लीलामृत’ का एक प्रसंग
‘रामकृष्ण लीलामृत’ प्रथम भाग का एक प्रसंग यहां उल्लेखनीय है। कहा गया है-‘‘एक बार प्रसिद्घ कवि माइकेल मधुसूदन दत्त किसी काम से दक्षिणेश्वर आये थे। वे अपने काम को समाप्त करके श्री रामकृष्ण से भेंट करने गये। शास्त्री जी (नारायण शास्त्री) उस समय वहीं थे। शास्त्री जी ने माइकेल से ईसाई धर्म स्वीकार करने का कारण पूछा। माइकेल बोले-‘‘मैंने पेट के लिए ऐसा किया।’’ इस उत्तर को सुनकर शास्त्री जी क्रोध में आकर बोल उठे-‘‘क्या इस क्षण भंगुर संसार में पेट की खन्दक को भरने के लिए अपने स्वधर्म का त्याग किया? धिक्कार है ऐसे मनुष्य को। एक दिन मरना तो है ही। यदि अपने धर्म में रहते हुए ही आप मर जाते तो क्या संसार सूना हो जाता?’’ माइकेल के चले जाने पर शास्त्री जी ने श्रीरामकृष्ण के दरवाजे पर लिख दिया-‘‘पेट के लिए स्वधर्म त्यागने वालों को धिक्कार है।’’
एक और प्रसंग
पेट के लिए स्वधर्म परित्याग करने वाले लोगों के लिए ही एक और प्रसंग यहां प्रस्तुत है :-
‘‘शाह अब्दुर्रहीम एक सूफी मुल्ला थे, औरंगजेब उनका बहुत सम्मान करता था और उनकी विद्घत्ता के कारण उनसे प्रसन्न भी रहता था। एक बार इस बादशाह ने मुल्ला को कुछ जमीन दान में देने का विचार बनाया। बादशाह ने अपने मंतव्य से शाह को अवगत कराया।
शाह ने बादशाह के मंतव्य को समझकर उसका उत्तर एक पत्र के माध्यम से दिया। जिसमें शाह ने लिखा कि-‘‘सभी संत मानते हैं कि जो फकीर राजा के दरवाजे पर जाता है, वह फकीर नही शैतान है। राजाओं के पास संपत्ति बहुत होती है। यदि तू मुझे देगा, तो तेरे पास क्या बचेगा?’’ कहते हैं कि इस पत्र को पढ़ सुनकर बादशाह औरंगजेब पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा था। वह शाह के उस पत्र को सदा अपने पास अपनी जेब में रखता था और अपने वस्त्र बदलते समय भी उस पत्र को अपनी दूसरी जेब में रखना कभी नही भूलता था। वह जब एकांत में होता तो उस पत्र को पढक़र रोया करता था। शाह जैसा व्यक्ति बादशाह से खरीदा नही गया, इसलिए शाह बादशाह से भी बड़ा हो गया, और जब इस बात की जानकारी बादशाह को हुई तो उसे अपने वास्तविक अस्तित्व की अनुभूति हो गयी।
क्या हमारे ‘शाह’ अपने ‘लेखनी धर्म’ के संदर्भ में इस प्रसंग से कोई शिक्षा ले सकेंगे? हमारे इतिहास लेखक डा. अशीर्वादीलाल श्रीवास्तव अपनी पुस्तक के पृष्ठ 128 पर नासिरूद्दीन के लिए जिसप्रशंसात्मक शैली का प्रयोग किया है उसे देखकर तो लज्जा भी मारे लज्जा के लज्जा जाएगी। वह नासिरूद्दीन को एक सीधा सादा, बुराईयों से दूर, सादगी से जीवन व्यतीत करने वाला तथा किसी को भी न सताने वाला सुल्तान बताते हैं। जबकि इसी सुल्तान के विषय में मिनहाज का जो कुछ कहना है उसे पी.एन. ओक महोदय यूं स्पष्ट करते हैं-‘‘नासिरूद्दीन की सेना के सेनापति उलुघ खां तथा कुछ अन्य दरबारी कुलीनों ने शाही सेना और अपने अनुयायियों के साथ एकाएक हिमालय की पहाडिय़ों में एक अभियान चलाने का निर्णय किया। वे लोग अप्रत्याशित रूप से विरोधियों (अर्थात हिंदुओं को) पर टूट पड़े……..सभी लोगों को तलवार से काटकर फेंक दिया गया…….बीस दिन तक सेना की टुकडिय़ां पहाडिय़ों में चारों ओर मंडराती रही…..पहाड़ी लोगों के गांवों और आबादियों को चारों ओर से घेरकर नष्ट कर दिया गया….सभी निवासी चोर-डाकू और राहजनी करने वाले थे। प्राय: सभी मुस्लिम इतिहासकारों ने ये उपाधियां हिंदू ग्रामीणों को दी हैं। उन सभी को (हिंदुओं को) मार डाला गया। सिर काटकर लाने वाले सिपाहियों को एक सिर के लिए चांदी का टंका ईनाम मिलता था। मुसलमान कटे हिंदू सिर के साथ-साथ उसके घर की लूट को भी लाते थे। इस लूट में से एक टंका मुसलमान सिपाही को दे दिया जाता था, तथा बाकी भाग कुलीनों, दरबारियों तथा सुल्तान में बंट जाता था। जिंदा िहन्दू को पकडक़र लाने वाले सिपाही को दो टंका मिलता था। क्योंकि जिंदा हिंदू पहले मुसलमान बनता था , फिर गुलाम बनता था, उसके पश्चात वह खूनी मुस्लिम खंजर को हिंदुस्तान में गहरा घोंपने में सहायक भी होता था। ईनाम पाने के लालच में सिपाही ऊंची-ऊंची पहाडिय़ों पर चढ़ गये। घाटियों और दर्रों को उन्होंने छान मारा और कटे सिरों तथा बंधे लोगों को लाने लगे। खासतौर पर एक दल के अफगान जिसमें तीन हजार घुड़सवार और पैदल थे……बहुत साहसी तथा हिम्मत वाले थे। वास्तव में यदि देखा जाए तो सेना के सारे के सारे कुलीनों, नायकों, तुर्कियों और ताजियों ने बड़ी वीरता और बहादुरी दिखायी थी। उनके बेहतरीन कारनामे (यानि हिमालय की शांत पहाडिय़ों पर झोंपडिय़ों में शांति से जीवन व्यतीत करने वाले हिंदुओं पर अचानक झपटकर गर्दन तराश देने वाले बेहतरीन कारनामे) इतिहास में हमेशा जिंदा रहेंगे। ऊंट पर भागने वाले हिंदू शत्रुओं को उनके बच्चों और परिवारों के साथ पकड़ा गया। शत्रुओं के 250 नायक और सरदार बंदी बनाये गये। पहाड़ी राजाओं तथा सिंध के राय के पास पचास हजार टंके मिले। इसे शाही खजाने में भेज दिया। अपने बहुत से नायकों तथा कुलीनों को लेकर वह (उलुघ खां) के स्वागत में आया। (क्योंकि वह एक ऐसा हिंदू खजाना लूटकर लाया था जो इस बात का लाइसेंस था कि लुटेरे मुस्लिम शासक और लुटेरे मुस्लिम दरबारी बहुत दिन आराम से बिता सकते थे)…शाही हुकुम पर बहुत से लोग….हाथियों के पैरों तले फेंक दिये गये। तेज तुर्कों ने हिन्दुओं के शरीरों को दो टुकड़ों में काट डाला। लगभग सौ लोगों का वध चमड़ी उधेडऩे वालों के हाथों हुआ। सिर से पैर तक इनका चमड़ा छील दिया गया था। फिर उसमें भूसा भरा गया (पाठक ध्यान दें, चमड़ी उधेडऩे और खाल में भूसा भरने की धमकी हमारे समाज में इन अत्याचारों की ही देन है-लेखक) भूसों से भरी चमडिय़ों को नगर के प्रत्येक दरवाजे पर टांग दिया गया।’’
इन अत्याचारों का सामना करने वाले अपने उन महानपूर्वजों को बारम्बार नमस्कार जिन्होंने ये सब कुछ सहा, देखा और झेला, पर निज धर्म का त्याग नही किया। इसलिए वह हमारी दृष्टि में स्वतंत्रता सेनानी हैं और इसी रूप में सम्मान के पात्र हैं। लोग अपने कायरों पर भी गर्व करते हैं तो हमें अपने शेरों पर गर्व क्यों न हो?
सचमुच मेरी भारत मां ‘‘शेरों वाली’’ है और इस ‘‘शेरों वाली मां’’ की संसार में शान भी निराली है। ऐसा कौन पाषाण हृदय होगा जो इस ‘‘शेरों वाली मां’’ के राष्ट्र मंदिर में हो रही आरती में सम्मिलित होकर, झूम न उठेगा? इसके शेरों की शूरता हर हृदय में देशभक्ति का भाव उत्पन्न करती है और हमें प्रेरणा देती है कि यदि आज भी उसी बलिवेदी को कहीं सजाया जा रहा हो तो हम भी उस बलिवेदी पर अपना बलिदान देने को तैयार हैं।