संचालन करने वाली जगदम्बा की पूजा-आराधना विविध उपचारों से की जाती रही
है और हर कोई चाहता है कि दैवी मैया प्रसन्न होकर वह सब कुछ उसकी झोली
में डाल दें जिसकी कामना वह अर्से से करता रहा है।
दैवी साधना सभी लोग अपने-अपने लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए करते हैं।
अधिकांश लोग शत्रुओं के विनाश तथा सांसारिक भोग-विलास के संसाधनों और
द्रव्य की प्राप्ति के लिए करते हैं और इसके लिए दैवी पूजा की अलग-अलग
उपासना पद्धतियों का सहारा लेते हैं।
दैवी उपासना के सारे उपचारों और पद्धतियों के बीच नवरात्रि या शक्ति
साधना के तमाम उपायों के बीच हम दैवी को जवारों, कलशों, मूर्तियों और
प्राण प्रतिष्ठित पाषाणों से लेकर जात-जात के पदार्थों में तलाशते हैं और
ऎसा करते हुए हम जीवंत मूर्तियों और शक्तितत्व की सर्वव्यापकता को भुला
बैठते हैं।
हम आद्यशक्ति की उपासना में दिन-रात दुर्गार्चन, देव्यार्चन और देवी
स्तुतियों, मंत्रों, भजनों, गरबों आदि के माध्यम से देवी को जागृत करने
के जतन करते रहते हैं और यह कल्पना करते हैं कि दैवी मैया मनुष्यों के
रूप में या किसी दिव्य स्वरूप में हमारे सामने आकर कह देगी – हे वत्स,
उठो, क्या चाहते हो, वरदान मांग लो। और हम पहले से सोची-समझी कल्पनाओं और
कामनाओं को दैवी मैया के सम्मुख प्रकट कर देंगे, फिर सब कुछ बिना कुछ
किए-धराये हमारे पास होगा और हम दूसरों से अपने आपको श्रेष्ठ और अनन्य
मानकर अहंकार के वाहन पर सवार होकर जीवन के आनंदों को प्राप्त करते हुए
दिखावे के लिए परिभ्रमण करते रहेंगे।
यह सब करते हुए हम भूल जाते हैं कि जगदम्बा पाषाणों और अन्य पदार्थों में
नहीं होकर स्ति्रयों के रूप में ही हमारे सामने जीवंत है और इन जीवंत
देवियों को ही हम आदर-सम्मान दें तो आद्यशक्ति के जागरण और सान्निध्य का
अनुभव अच्छी तरह कर पाएंगे और वह भी बिना किसी कठोर परिश्रम के।
हम स्त्री शक्ति को भुलाकर, उसे उपेक्षित बनाए रखकर दैवी मैया को रिझाने
के उपक्रमों में भिड़े हुए हैं, और यही कारण है कि दैवी मैया की कृपा को
पाने के लिए की जाने वाली हमारी सहज से लेकर कठोरतम साधनाओं, जप-तप,
उपवास और पदयात्राओं, भजनों-स्तुतियों, मंत्रगान और गरबों आदि का कोई
प्रभाव नहीं दिख पा रहा है।
नौ दिन हम दैवी के नाम पर बहुत कुछ कर डालते हैं और इसके बाद फिर वही
ठनठन गोपाल। नवरात्रि और शक्ति उपासना के इस मूल मर्म को हम कभी आत्मसात
नहीं कर पाए कि जगदम्बा की प्रसन्नता चाहें तो जगत में उनकी प्रतिनिधि
बनकर विद्यमान स्त्री शक्ति को आदर-सम्मान तथा यथायोग्य श्रद्धा प्रदान
करें, उसके प्रति उपेक्षा का भाव त्यागें और उसके महत्त्व को आत्मीय भाव
से अंगीकार करे तथा उसे सदैव प्रसन्न एवं मस्त रखें। फिर देखें, जगदम्बा
कैसे प्रसन्न नहीं होती।
जब तक हमारे भीतर का पाषाणी भाव और पौरूषी दंभ बना रहेगा, तब तक दैवी की
कृपा की कल्पना करना व्यर्थ है। चाहे जन्म-जन्मान्तरों तक दैवी साधना के
नाम पर हम ये अनुष्ठान करते रहें, वर्षों-वर्षों तक व्रत, जप-तप और
आराधना करते रहें, इसका कोई फल हमें प्राप्त नहीं होने वाला। यह परिश्रम
स्त्री के प्रति सम्मान और आदर भाव रखे बगैर प्राप्त नहीं हो सकता।
सिद्ध दैवी साधकों का प्रत्यक्ष अनुभव यही कहता है कि स्त्री मात्र के
प्रति दिली आदर और सम्मान के भाव रखकर की जाने वाली दैवी साधना बिना अधिक
परिश्रम के जल्दी और पूर्ण सफल होती है तथा ऎसे साधकों पर दैवी मैया की
अखूट कृपा हमेशा बनी रहती है। पर हमने दैवी पूजा, नवरात्रि और शक्ति
साधना के मर्म को जानने की कभी कोशिश नहीं की। न कभी हमारे धर्माचार्यों
और बाबों, महंतों, धर्म के धंधेबाजों ने इस बारे में कोई मार्गदर्शन
किया। इन सभी को अपने-अपने धंधों से ही फुरसत नहीं है। आजकल ये लोग
रिलीजियस इण्डस्ट्री के कर्ता-धर्ता बने हुए हैं और भक्तों को ये लोग
धंधा चलाने वाले कामगारों से ज्यादा कुछ नहीं समझ पा रहे हैं। फिर जो लोग
दैवी साधना के नाम पर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं उन्हें धर्म, सत्य और
दैवी से कोई सरोकार नहीं रह गया है। इन लोगों के लिए नवरात्रि और दैवी
उपासना ठीक उसी तरह हैं जैसे दूसरे उत्सवी धंधे या मेला बाजार।
हमारी दैवी उपासना तभी सार्थक है जबकि हम हरेक स्त्री के प्रति
आदर-सम्मान रखें, उसे महत्व दें और दैवी मैया की जीवंत एवं साक्षात
प्रतिनिधि के रूप में स्वीकारें। जिस किसी घर में, मोहल्ले में, गांव,
कस्बे और शहर से लेकर महानगर और सभी जगह जहाँ स्त्री का अनादर होता है,
स्त्री अपने आपको भयभीत और असुरक्षित, अशांत, उद्विग्न और असंतोषी महसूस
करती है, उस स्थान पर दैवी उपासना व्यर्थ है चाहे करोड़ों रुपए खर्च कर
दैवी के नाम पर कितने ही बड़े आयोजन क्यों न कर लिए जाएं, करोड़ों जप क्यों
न हो जाएं।
स्त्री का अनादर जहां होता है वहां दैवी रहना और जाना तक पसंद नहीं करती
बल्कि स्त्री की उपेक्षा और अनादर करने वालों, प्रताड़ित, पीड़ित और दुःखी
करने वाले लोगों को दैवी के प्रकोप को भुगतना ही पड़ता है चाहे वे अपने
आपको कितना ही बड़ा दैवी उपासक क्यों न मानते रहें।
दैवी उन्हीं पर प्रसन्न रहती है जो स्त्री और प्रकृति का सम्मान करते
हैं। वर्तमान समय की सारी समस्याओं का मूल कारण यही है। आज हम स्त्री के
प्रति अन्याय, अत्याचार और कहर ढाते हैं और नवरात्रि तथा अन्य अवसरों पर
जगदंबा की महिमा का गलाफाड़ गान करते हैं, यह अपने आप में ढोंग और पाखण्ड
के सिवा कुछ नहीं है।
दैवी आपदा और प्राकृतिक आपदाओं के साथ सामाजिक, सीमाई असुरक्षा और तमाम
प्रकार की विषमताओं, समस्याओं और संहार के पीछे यही दैवी तत्व है जो हम
पर कुपित होकर प्रकंपित वातावरण का सृजन करते हुए हमें चेतावनी दर
चेतावनी दे रहा है फिर भी हम इसे अनसुना करते आ रहे हैं।
भारत जैसे देश में जहाँ नारियों की पूजा और देवताओं के भ्रमण की बातें
कही जाती रही हैं वहां स्त्री कहीं भी सुरक्षित नहीं है, तेजाब डालने,
गैंगरेप, छेड़खानी, अपहरण, अत्याचार से लेकर लव जेहाद और सेक्स जेहाद और न
जाने कैसी-कैसी आपदाएं स्त्री को घेरे हुए हैं।
हमारे घर-परिवारों में भी काफी ऎसे हैं जिनमें स्त्री अपने आपको नज़रबंद,
दास, नौकरानी और भोग्या से बढ़कर कुछ नहीं मानती। पतियों के पौरूषी
अहंकारों के आगे दमन का शिकार हैं, खुद स्त्री अपने ही घर को अपना नहीं
मान सकती। कई राक्षसी पति नरपिशाच हैं जो पत्नियों को मारने-पीटने और हर
तरह के अत्याचार ढाने में पीछे नहीं हैं, कई शंकालु पति अपनी पत्नियों के
चरित्र को लेकर हमेशा सशंकित और क्रूर रहते हुए कहर ढाते हैं।
विधवाओं और परित्यक्ताओं के पुनर्विवाह और सम्मानजनक पुनर्वास की हमारी
अपनी जिम्मेदारी से हम सभी ने मुँह मोड़ लिया है और यही कारण है कि इस
प्रकार की महिलाएं उपेक्षित और दीन-हीन अवस्था में जीने को विवश हैं,
इनके पास रोजगार का साधन नहीं है, खुद के लिए रोटी का जुगाड़ कर पाना टेढ़ी
खीर है, बच्चों की परवरिश करना तो दूर की बात है।
अपने घर-परिवार, पड़ोस और नाते-रिश्ते से लेकर अपने क्षेत्र की उन
पीड़िताओं, अभावग्रस्त महिलाओं, विधवाओं, परित्यक्ताओं तथा उपेक्षिताओं के
दुःखों को देखकर भी हमारा मन नहीं पसीजता। हम उल्लूओं की तरह पैसा कमाने
में लगे हुए हैं, भुजंगों की तरह उस पैसे पर कुण्डली मारकर बैठे हुए हैं
जो हम पर खर्च नहीं होना है, अपने ही आनंद और भोग-विलास में रमे हुए हैं।
हमें न पास-पड़ोस की चिंता है न क्षेत्र की उन महिलाओं की, जिनके लिए दिन
निकालने भारी पड़ रहे हैं।
किस गरीबी, विपन्नावस्था और दयनीय हालातों में हमारी स्त्री शक्ति रह रही
है, इसकी हमें हमें जरा भी फिकर नहीं है। हमारी मानवीय संवेदनाएं बेमौत
मारी गई हैं, हमारी मति भी मारी गई है। स्त्री को हमने दूसरे दर्जे का
नागरिक समझ लिया है। यह हमारा कैसा न्याय है कि हम स्त्री को द्वितीयक
श्रेणी देकर पौरूषी दंभ भर रहे हैं जबकि स्त्री के प्रति उपेक्षा का
बर्ताव अपने आप में पौरूषहीनता और वृहन्नला स्वभाव का प्रतीक है।
स्त्री का संरक्षण, पल्लवन और विकास तथा उसे हर संभव सुविधा प्रदान करते
हुए सुकून देना समाज का धर्म है, और जब हम ऎसा नहीं कर पा रहे होते हैं
तब भी हम नालायकों को अपने आप पर घृणा नहीं होती, कहाँ हम में जान बची
है। जो लोग संवेदनाएं खो देते हैं वे सारे मृत ही मान लिए जाते हैं।
स्त्री के प्रति उपेक्षा और हीनता का भाव रखकर की जाने वाली हमारी दैवी
साधनाएं बेकार हैं और यह सिर्फ दिखावा मात्र हैं, इनका कोई औचित्य नहीं
है। बल्कि यह मान कर चलें कि जहां स्त्री दुखी है, जहाँ स्त्री के आँसू
गिरते हैं वहाँ कलह और दावानल, समस्याएं और विषमताएं, असुरक्षा, भय और
अकालमृत्यु का ताण्डव बना रहता है।
शक्ति उपासना का मूल मर्म समझें और आज ही से संकल्प लें कि हमारे
घर-परिवार से लेकर अपने-अपने क्षेत्र में एक भी स्त्री ऎसी न हो, जो
असुरक्षित, संतप्त, दुःखी और उपेक्षित हो। तभी हमारी दैवी साधना सफल है।
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