आर्थिक संसाधनों पर पहला हक किसका?
यज्ञोपरांत हम शांति पाठ करते हैं। जिसमें प्रार्थना की जाती है कि जिस प्रकार द्यौ, अंतरिक्ष, पृथ्वी, जल, औषधियों, औषधियों, वनस्पतियों विश्व, ब्रह्म, स्वयं शांति में शांति व्याप्त है, उसी शांति को मुझे भी प्रदान कर। वस्तुत: शांति एक व्यवस्था का नाम है जिसके अंतर्गत द्यौ आदि से लेकर वनस्पति पर्यन्त सभी अपने-अपने नियमों से बंधे हैं, उनसे अनुशासित हैं। द्युलोक और अंतरिक्ष में जो कुछ होता है, या हो रहा है, वह एक निश्चित व्यवस्था के अंतर्गत हो रहा है। सूर्य, चांद, सितारे सब एक निश्चित मर्यादित पथ पर गति कर रहे हैं, पृथ्वी पर दिन-रात का छोटा-बड़ा होना, ऋतुओं का आना-जाना, जल का कभी वाष्पीकरण होना तो कभी बरसना और कभी बर्फ बनकर जम जाना, औषधियों का और वनस्पतियों का एक निश्चित कालक्रम के अनुसार फूलना-फलना, विश्व का कुछ निश्चित प्राकृतिक नियमों से संचालित होना, ब्रह्म का अपने कार्यों में लगे रहना-ब्रह्माण्डों का विनाश एवं उत्पत्ति करना, जीवों को उनके भोग के अनुसार फल देना इत्यादि कार्यों की सिद्घि करना-ये सारा तामझाम हमें एक निश्चित व्यवस्था की ओर संकेत करता है। इसमें ना तो कहीं उपद्रव है, ना ही उत्पात है और ना ही कहीं उग्रता है। जहां उपद्रव, उत्पात और उग्रता नही वहीं तो शांति है। जीवन से उपद्रव , उत्पात, उग्रता को बीन-बीन कर निकाल देना ही ‘शांति पाठ’ का वास्तविक उद्देश्य है-शांति की सच्ची उपासना है, सच्ची आराधना है।
जिस घर के लोग, जिस समाज के लोग अथवा जिस राष्ट्र के लोग उपद्रव, उत्पात और उग्रता से शून्य होते हैं, उसी घर में, उसी समाज में और उसी राष्ट्र में शांति का वास होता है। उसी घर को, उसी समाज को, और उसी राष्ट्र को लोग शांति प्रिय लोगों का निवास स्थल कहते हैं। वहीं स्वर्ग होता है। इस शांति का सिरजनहार ‘नायक’ होता है। जो अपने दोषों पर भी दृष्टि रखता है और दूसरों के (परिवार, समाज, राष्ट्र के निवासियों के) दोषों को भी बताता है-कि तुम्हारे अमुक दोष से उपद्रव, उत्पात, और उग्रता फेेल सकती है, जिससे व्यवस्था भंग होकर अशांति फेेल सकती है, इसलिए इस पर ध्यान दो, इस दोष को दूर करो। जब किसी परिवार का, समाज का या राष्ट्र का मुखिया स्वयं असंतुलित हो जाता है, वह उपद्रवी, उत्पाती या उग्र हो जाता है, तो फिर वह स्वयं ही आत्मविनाश की ओर बढ़ चलता है। उसकी प्रगति दुर्गति में बदल जाती है। उसका बना-बनाया महल गिर जाता है, वह परिवार, समाज का, राष्ट्र का रक्षक न होकर भक्षक बन बैठता है। इसलिए जहां-जहां हमें विखण्डन दीखता है, जीवन में अशांति दीखती है, पथभ्रष्टता दीखती है, अपेक्षाओं के अनुसार कार्य होता नही दीखता है, वहीं समझो कि कहीं न कहीं उपद्रव हैं, उत्पात है, उग्रता है।
परिवार, समाज और राष्ट्र की व्यवस्था को सही बनाये रखने के लिए हम अपने यज्ञ का शुभारंभ जिस मंत्र से करते हैं, उसका अर्थ है कि-हे ईश्वर! आप हमें संपूर्ण दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुखों से दूर कीजिए और जो मंगलमय गुण, कर्म, पदार्थ और स्वभाव हैं, वह हमें प्राप्त कराइये।
‘विश्वानि देव’… वाले इस मंत्र में मानो यज्ञ के शांति पाठ तक पहुंचने का एक खाका खींचा गया है कि कैसे हम शांतिधाम तक पहुंचेंगे? तो कहा गया कि दुर्गुणों आदि को त्यागकर तथा मंगलमय गुण-कर्म स्वभाव को धारकर वहां पहुंचेंगे। एक विचारशील व्यक्ति अपने दुर्गुणों को खोजने की प्रक्रिया और प्रयास में जीवन भर लगा रहता है, उसे अपने ही दुर्गुणों पर विजय पाने के लिए कभी-कभी तो पूरा जीवन ही छोटा दिखने लगता है। क्योंकि हमारे शरीर में विकृति, निर्बलता, अस्वच्छता, रोग, चोरी, हिंसा, व्यभिचार, इत्यादि के दोष हैं। इंद्रियों से कम दीखना, कम सुनना, गंध का अनुभव न होना, श्वसन में कठिनाई, स्वाद का ज्ञान न होना, ठंडे गर्म की पता न चलना, कुरूपता का आ जाना, पैरों में चलने की शक्ति का हृास होने लगना, हाथों के उठाने में तकलीफ होना, वाणी में हकलाहट या कंपन आ जाना, मूत्र त्यागमेय अवरोध आना, पेट खराब रहना, या मलोत्सर्जन में कष्ट होना इत्यादि दोष हैं। जबकि प्राण की विषमता से हिचकी, श्वास रोग होना, उदान की विषमता से आंख कान आदि के रोग होना, समान की विषमता से चलने फिरने बैठने में कष्ट होना, अपान की विषमता से मलमूत्र निकासी में कष्ट होना, नींद न आना, घाव भरने में देरी होना, इत्यादि दोष हैं। वाणी के दोषों में किसी को कष्टकर शब्द सुनाकर आहत करना, शब्दों को ठीक से न बोलना, वाणी में अशिष्टता लाना, गंभीरता स्निग्धता, एवं मिठास का समाप्त होते जाना, भयपूर्ण बातें करना, किसी की निंदा चुगली करना, दूसरों में दोष निकालते रहना, अपने शब्दों के चयन के प्रति असावधान रहना और दूसरों के शब्दों को अपने लिए स्वाभिमान पर चोट पहुंचाने वाला मानना, अपनी बात को स्पष्ट न कर पाना, इत्यादि वाणी के दोष हैं। इसी प्रकार ईष्र्या-द्वेष, लोभ-मोह, काम, क्रोध, अहंकार, आलस्य, चंचलता, अप्रसन्नता, असहिष्णुता, दानवता, नींद, हठी, तन्द्रा, चिंता शोक इत्यादि को मानसिक और अज्ञानता, तर्क दोष, अदूरदृष्टि, संशय, अनिर्णय, अन्याय,नास्तिकता आदि को बुद्घि के दोष माना गया है।
भद्र की उपासना का अर्थ है कि इन सारे दोषों से स्वयं को दूर करना। इतनी बड़ी फौज को हटाने वाला ही शांति की बात कह सकता है। वैसे भी शांति युद्घ के पश्चात ही पैदा होती है-पर भौतिक युद्घों से कभी शांति पैदा नही होती है, क्योंकि वहां विजेता विजित को अपमानित करता है, जो अपमान से घायल होकर फिर कभी प्रतिशोध के लिए उठ खड़ा होता है। इसलिए वहां तो युद्घ से युद्घ का जन्म होता है, इसलिए विश्व घोर अशांति में जीवन यापन करता रहता है। पर यहां बात आध्यात्मिक युद्घ की हो रही है, जहां भीतरी विजय को बड़ा माना जाता है, क्योंकि उससे हमें सच्ची शांति की उपलब्धि होती है।
आत्मविजयी वीरों के लिए ही यह भूमि उपभोग के लिए दी गयी है। ‘वीरभोग्यावसुंधरा’ का अर्थ यही है कि आत्मविजयी बनो और जो दूसरों के अधिकारों का अतिक्रमण करते हैं उनके संहारक बनो। तब इस भूमि को भोगो-त्याग भाव से, अर्थात यह सबके लिए है-मेरे लिए ही नही। ऐसे शिष्ट, मर्यादित, संतुलित और उत्पात शून्य लोगों के लिए प्रभु के भंडार खुले रहते हैं, वही घर में, समाज में, राष्ट्र में सम्मान पाते हैं। इसलिए ऐसे सुसंस्कृत लोगों का जो राष्ट्र की मुख्य धारा में चलते हैं और मुख्यधारा को तोडऩे वालों को दंडित भी करते हैं राष्ट्र के संसाधनों पर पहला अधिकार है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यह बात सिरे से ही अस्वीकार्य है कि देश के आर्थिक संसाधनों पर पहला मुस्लिमों का है। सृष्टि नियम और हमारी संस्कृति यही कहते हैं कि देश के संसाधनों पर पहला अधिकार उन लोगों का है जो भद्र के उपासक हंै, शांति के आराधक हंै, मर्यादा के संवाहक हैं और अनुशासन के संचालक हैं। श्रेष्ट समाज की संरचना का कैसा अदभुत चिंतन था हमारे ऋषियों का।