रहते हैं जैसे कि दैवी मैया साक्षात प्रकट होकर अपने सारे काज कर देंगी
और हमें कुछ नहीं करना पड़ेगा। अधिकांश धर्मभीरूओं का यही मत होता है कि
भगवान को भजने से वह किसी पौराणिक मिथक की तरह अचानक प्रकट हो जाएगा और
हमारे लिए वो सारे काम कर देगा, जैसा कि हम चाहते हैं। यह असंभव हो, यह
बात भी नहीं है लेकिन जिस तरह से आजकल हम दैवी की उपासना कर रहे हैं उसे
देख नहीं लगता कि हमारा लक्ष्य दैवी को प्रसन्न करना या कि दैवी तत्व से
साक्षात्कार करना है।
काफी सारे साधक विधिविधान से दैवी को ही लक्ष्य मानकर पूजते हैं और
उन्हें दैवी के वरदान या सामीप्य का अनुभव भी होता है लेकिन हम अधिकांश
लोग दैवी साधना को जिस प्रकार से लेते हैं उसे देख न तो अनुमान लगाया जा
सकता है और न ही माना जा सकता है कि इनसे दैवी मैया खुश होती होंगी।
साधना में शुचिता सबसे पहली और अनिवार्य शर्त है इसके बगैर किसी भी
प्रकार की साधना की सफलता संदिग्ध ही रहती है। यों कहा जाए कि सारी
साधनाएं पहले साधक को शुद्ध करने और पवित्र बनाने में लगती हैं और इसके
बाद ही सिद्धि का द्वार खुलने लगता है। पवित्रता के बगैर सिद्धि कभी संभव
नहीं है, और पूर्ण शुचिता के अभाव में जो आभास होते हैं वे किसी उन्माद
से कम नहीं कहे जा सकते। शुचिता पाए बगैर सिद्धि की कल्पना किसी को नहीं
करनी चाहिए। थोड़ी मात्रा में सिद्धि के कुछ लक्षण दिख भी जाएं तो यह
पवित्रता के अभाव में साधक को दिशा भ्रम में भी डाल सकते हैं।
जो भी साधनाएं की जाती हैं उनका आरंभिक ऊर्जा भण्डार सिद्धियों की
प्राप्ति कराने की बजाय साधक को शुद्ध करने में भी खर्च होता रहता है और
यही कारण है कि जो जितना अधिक अपवित्र होता है उसे सिद्धि पाने में देरी
लगती है। इसकी बजाय जो जितना अधिक पवित्र होता है, तन-मन और व्यवहार से
शुचिता पूर्ण होता है उसे सिद्धि जल्दी मिलती है क्योंकि उसकी ऊर्जाएं
शुद्धि में कम खर्च होती हैं और सिद्धि दिलाने की ओर बढ़ जाती हैं।
इसलिए साधकों को चाहिए कि वे साधना के साथ सर्वोच्च स्तर की शुचिता पाने
के लिए कठोर प्रयास करें, खान-पान में सादगी और पवित्रता रखें, वाणी और
व्यवहार में सच्चाई रखें और जो कुछ करें वह स्पष्ट, पवित्र और सपाट हो।
आजकल हममें से काफी लोग भजन-पूजन और साधना तो खूब करते हैं लेकिन इससे
अधिक पाप कर्म संचित करते रहते हैं, कथनी और करनी में अंतर है, झूठ बोलते
रहते हैं, हराम का और दूषित खान-पान और व्यवहार करते हैं, ऎसे झूठों,
मलीनों, चोर उचक्कों, डकैतों, बेईमानों, भ्रष्ट, रिश्वतखोरों,
गौहत्यारों, अपराधियों के साथ रहते हैं जिनका सामीप्य तक भी घोर पाप देता
है। इस कारण से हमारी सारी साधनाएं विफल हो रही हैं। न ये साधनाएं हमारे
किसी काम आ रही हैं, न जगत के। और हम भिखारियों तथा उच्चतम श्रेणी के
याचकों की तरह नालायकों के आगे हाथ और झोली फैलाकर तो कभी पूर्ण समर्पण
के साथ बेशर्म होकर पसर जाते हैं, हमें न अपने स्वाभिमान की चिंता है न
अपनी आबरू की, हम भीख मांगने के लिए सब कुछ करने को आमादा हो जाते हैं।
हमें अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए न कोई लाज-शरम आती है, न हम कभी
शर्मिन्दा होते हैं। हममें से कुछ लोगों का तो स्वभाव ही हो गया है कि
ये अपने काम निकलवाने, अपनी प्रतिष्ठा और कुर्सी बचाये रखने, हराम का
खान-पान और संसाधन पाने के लिए ऎसे-ऎसे लोगों के आगे साष्टांग दण्डवत से
लेकर सम्पूर्ण समर्पण कर देते हैं जिन लोगों को मनुष्य कहते और मानते हुए
भी हमें शर्म आती है।
इस समय नवरात्रि परवान पर है। हममें से काफी सारे आस्तिक लोग दैवी मैया
को खुश करने के जतनों में दिन-रात भिड़े हुए हैं। कोई दुर्गासप्तशती,
नवार्ण, दश महाविद्या, भजनों, दैवी स्तुतियों और देवी को रिझाने की
स्थानीय लोक परंपराओं में रमा हुआ है। कई सारे लोग शक्तिसंचय के इस पर्व
को भी दूसरे धनाढ्यों और प्रभावशाली लोगों के कल्याण के लिए अपने आपको
समर्पित कर चुके हैं और दक्षिणा एवं प्रतिष्ठा के मोह मेंं अनुष्ठानों
में जुटे हुए हैं। इन लोगों के लिए नवरात्रि क्या है, यह बताने की जरूरत
नहीं है।
खूब सारे लोेग ऎसे-ऎसे लोगों के लिए दैवी साधना और पूजा-पाठ कर रहे हैं
जो असुर हैं तथा जगत के लिए इनका होना भी अनिष्टकारक है। नवरात्रि पूजा
का सीधा सा अर्थ यह भी है कि दैवी चरित्र का स्मरण व पाठ करें और दैवी की
विविध उपचारों से आराधना करें ताकि दैवी मैया रीझें और मनोकामनाएं पूर्ण
करें। दुर्गासप्तशती, दैवी भागवत और दैवी पुराण आदि तमाम ग्रंथों में
दैवी के चरित्र का जो वर्णन हुआ है, उसका गान और अनुष्ठान ही काफी नहीं
है बल्कि दैवी मैया के चरित्र को पठन-श्रवण एवं मनन करते हुए यह जरूरी है
कि दैवी मैया ने आसुरी शक्तियों के संहार के लिए अवतार लेने से लेकर
जिन-जिन राक्षसों का वध किया, शांति स्थापित की, धर्म रक्षा की और लोक
कल्याण जगत कल्याण किया, उन्हीं दैवी कार्यों को आज के युग में आगे बढ़ाना
और उसी प्रकार की भूमिकाओं में रहकर अपनी भागीदारी अदा करना ही वस्तुतः
दैवी उपासना का अंग है।
लेकिन हमने दैवी मैया को सिर्फ अनुष्ठानों, भजनों, स्तुतियों और मंत्र
जाप, हवन आदि तक ही सीमित कर दिया है, हमारी सम सामयिक जिम्मेदारी भुला
बैठे हैं क्योंकि इसमें हमें जीवन की शुचिता रखनी पड़ती है, स्वार्थ और
कुटिल चरित्र भरे स्वभाव त्यागने पड़ते हैं, अपने चरित्र और व्यवहार को
शुद्ध-बुद्ध रखकर समाजोन्मुखी भूमिका में आकर विश्वमंगल के लिए काम करना
होता है।
हम वो कुछ नहीं करना चाहते जिसमें परिश्रम हो, हमारे कर्म का फायदा औरों
को मिले। सभी प्रकार की देवियों के आख्यान हमें यही संदेश देते हैं कि
जो काम देवियों ने बीते युगों में किया है, उनका स्मरण कर हम वर्तमान में
उसी प्रकार की भूमिकाओं का निर्वाह करें और जीव एवं जगत को परम शांति का
अहसास कराते हुए सर्वत्र सत्यं शिवं सुन्दरं की स्थापना करें।
थोड़ा गंभीर चिंतन करें तो हम सभी पाएंगे कि हमारी दैवी उपासना सिर्फ
कर्मकाण्ड तक सीमित होकर रह गई है जहां हम धर्म को ढाल बनाकर कुछ भी कर
पाने को स्वतंत्र हैं, धर्म का आवरण ओढ़ कर कैसा भी अधर्म कर लें, कोई
पूछने वाला नहीं है।
हम इन दिनों नवरात्रि या दैवी साधना के नाम पर जो कुछ कर रहे हैं वह अपने
आप में अजीबोगरीब ही कहा जा सकता है। हममें से कितने लोग ऎसे हैं जो दैवी
मैया के कामों में रुचि रखते हैं, असुरों के स्वभाव वाले मनुष्यों के
समूल उन्मूलन में अपनी भूमिका अदा कर रहे हैं, समाजकंटकों, दुष्टों का
संहार करने में आगे आ रहे हैं।
बड़े-बड़े पण्डित कहे जाने वाले लोग ऎसे-ऎसे लोगों के घरों में दैवी पूजा
करते दिख जाएंगे जो जमाने भर में अपराधी, भ्रष्ट और रिश्वतखोर हैं। हम
दक्षिणा के लोभ में उन लोगों के लिए दैवी अनुष्ठान करते हैं जिन्हें
जमाने की नज़र में असुरों से कम नहीं आंका जाता। आजकल के असुरों में
सिंग-पूंछ, खुर और नाखून नहीं होते, न वे दूर से पहचाने जा सकते हैं।
लेकिन कर्म वे ही कर रहे हैं जो आसुरी हैं और जिनके संहार के लिए दैवी
मैया ने अवतार लिए हैं।
दैवी उपासना के मर्म को समझें और सम सामयिक असुरों, आतंकवादियों, दुष्टों
आदि के खात्मे के लिए आगे आकर यथा सामथ्र्य अपनी भूमिका निभाएं।
दुर्गा-दुर्गा भजते रहना और नवार्ण मंत्रों के जाप, भजनों और गरबों से
नहीं बल्कि दैवी मैया प्रसन्न होती है तो उन्हीं कामों से जिन्हें दैवी
के काम कहा जाता है।
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