कविता — 30
अमृत वेला में जो जन जागे,
नियम से भगवान को ध्यावे,
अहंकार ममकार को त्यागे,
अंधेरा उसके जीवन से भागे।।
भगवान अपना तेज हैं देते,
‘ब्रह्मवर्चस’ का वरदान हैं देते,
भगवान कष्ट उसके हर लेते,
सारी खुशियां जीवन में भर देते।।
सिद्धि के लिए जीव यहां आया,
सारे योग साधन साथ में लाया,
यहां आकर जीवन व्यर्थ गंवाया,
जीवन बीता तब होश में आया ।।
ओढ़ी तुच्छ कामना मन में,
दौड़ता रहा व्यर्थ जीवन में,
भटक गया कहीं बीहड़ वन में,
अंत समय चला प्रभु चरणन में।।
शुभता छोड़ी और शुचिता त्यागी,
विषय भोग का बन गया अनुरागी,
रोग बढ़े और मन में तृष्णा जागी,
व्यसनी बन गया क्रोधी और कामी।।
निज ध्येय विसर्जित जो जन करते,
उनसे दूरी स्वयं भगवान भी करते,
जब लोग समर्पित ध्येय को रहते,
‘राकेश’ वही जन भवसागर से तरते।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत