रमेश ठाकुर
पाक सुप्रीम कोर्ट में पहली मर्तबा कोई महिला जज नियुक्त हुई हैं। उनकी नियुक्ति किसी की दया या सिफारिश पर नहीं, अपनी मेहनत और काबिलियत के बूते उन्होंने यह मुकाम पाया है। बुर्के-पर्दे में अपना समूचा जीवन जीने वाली पाकिस्तानी महिलाओं को जस्टिस आयशा मलिक की ताजपोशी ने उम्मीदों का नया संबल दिया है, जिसकी राह वहां की आधी आबादी आजादी से ताक रही थीं। ऐसी उम्मीद की खुशी पहली बार उनके हिस्से आई है।
महिलाओं को मुकम्मल हक-हकूक दिलवाने में जस्टिस आयशा मलिक की पाकिस्तानी सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला जज के रूप में नियुक्ति किसी सपने जैसी है। पूरा जगत वाकिफ है कि वहां की महिलाओं के अधिकारों को कैसे सरेआम रौंदा जाता है। घर से बाहर निकलने की भी मनाही रही है, जो कार्य पुरुष करते हों, उसे कोई महिला करे, ये वहां के मुल्ला-मौलवियों को कभी नहीं भाया। किसी महिला ने हिम्मत दिखाई भी तो उसके खिलाफ फतवा या रूढ़िवादी कठोर बंदिशें लगा दी जाती रही हैं। लेकिन आयशा शायद उस पुरानी प्रथा को बदल पाएंगी। उनकी नियुक्ति महिलाओं को संबल देंगी।
पाकिस्तान का सर्वोच्च न्यायालय इस्लामी गणराज्य की सर्वोच्च अदालत जरूर रही है, पर न्यायिक व्यवस्था में हमेशा से भेदभाव हुआ। शरियत कानून को मान्यता ज्यादा दी गई, जो सदैव पाकिस्तानी न्यायिक क्रम का शिखर बिन्दु रहा है। वहां की आधी आबादी से संबंध रखने वाली बदहाली की दर्दनाक तस्वीरें जब दिमाग में उमड़ती हैं तो लगता है कि कट्टर इस्लामिक मुल्क में एक महिला का सुप्रीम कोर्ट में जज बन जाना अपने आप में करिश्मा है। जज बनने से पहले भी आयशा मलिक अपने काम को लेकर चर्चा में रहीं। अपने स्वाभिमान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया। उनका नाम आज से दस-पंद्रह साल पहले तब सामने आया था जब उन्होंने भारतीय कैदी सरबजीत सिंह के पक्ष में एक बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि उनका केस न्यायिक प्रक्रिया के तहत आगे बढ़े, राजनीति नहीं होनी चाहिए। उनके बयान पर तब पाकिस्तान में बड़ा बवाल हुआ था। विरोधियों ने उन्हें भारत जाने तक को कह दिया था।
बहरहाल, जस्टिस आयशा मलिक अपनी मेहनत, लगन और ईमानदारी से सुप्रीम कोर्ट में जज बनी हैं। हालांकि छुटपुट विरोध अब भी हो रहा है। फिलहाल उनके नाम की मंजूरी हो चुकी है। पद ग्रहण कर लिया है। महिलाओं से जुड़े केसों को वह मुख्य रूप से देखा करेंगी। उनकी ताजपोशी से अब वहां की निचली अदालतों और हाईकोर्ट में भी महिला जजों की संख्या में इजाफा होगा। भारत के लिहाज से भी आयशा की नियुक्ति अहम है। शायद इसके बाद उनकी सोच में कुछ बदलाव आए। पाकिस्तान की संसदीय समिति ने भी आयशा की प्रशंसा करते हुए कहा है कि उनसे महिलाओं को बहुत उम्मीदें हैं, उन्हें स्वतंत्रता से काम करने दिया जाएगा। उनके किसी फैसले पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। आयशा के जीवन संघर्ष पर प्रकाश डालें तो पता चलता है कि वह किसी बड़े घराने से ताल्लुक नहीं रखतीं। कठिन परिस्थितियों में एक साधारण परिवार से निकली हैं।
आयशा कराची के एक छोटे गांव ‘अब्बू हरदा’ में तीन जून, 1966 को जन्मी थीं। आम लोगों की तरह गांव के ही सरकारी स्कूल से शुरुआती शिक्षा ग्रहण करने के बाद कराची के गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स से स्नातक किया। लॉ की पढ़ाई उन्होंने लाहौर के कॉलेज ऑफ लॉ से की। उसके बाद उन्होंने अमेरिका में मेसाच्यूसेट्स के हॉवर्ड स्कूल ऑफ लॉ से भी शिक्षा प्राप्त की। खुद छोटे बच्चों को ट्यूशन देती थीं, जिससे अपनी पढ़ाई का खर्च निकाला करती थीं। पढ़ने में अच्छी थीं, तभी उन्हें स्कॉलरशिप मिली। आयशा को 1998-1999 में ‘लंदन एच गैमोन फेलो’ के लिए भी चुना गया। पढ़ाई पूरी करने के बाद वह अमेरिका में भी अपना करिअर शुरू कर सकती थीं, लेकिन उनको अपने यहां महिलाओं की बदहाली को दूर करना था। कुछ अलग करने का जज्बा लेकर ही वह सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई हैं।
आयशा अमेरिका से 2003 में अपने मुल्क लौट आयी थीं। वहां से आने के बाद आयशा मलिक ने कराची की निचली अदालत में वकालत शुरू की। फखरूद्दीन इब्राहिम एंड कंपनी से जुड़ीं। बीते एक दशक से उन्होंने खूब नाम कमाया और कई मशहूर कानूनी फर्मों के साथ जुड़कर कई नामी केसों को सुलझवाया। निश्चित रूप से आयशा की नियुक्ति पाकिस्तान में नया इतिहास लिखेगी। वहां महिलाओं के हालात कैसे हैं, दुनिया में किसी से छिपे नहीं हैं। उम्मीद ऐसी भी की जानी चाहिए कि आयशा के जरिए दुनिया का नजरिया पाकिस्तान के प्रति बदले।