जीवन निर्वाह की दो-तीन धाराएँ हैं जिन पर चलते हुए हम पूरी जिंदगी गुजार दिया करते हैं। एक वे हैं जो अपने हुनर और दक्षता के अनुरूप कर्मयोग में रमे रहते हैं और हर घटना-दुर्घटना और हलचल को भगवान का प्रसाद मानकर चलते हैं। दूसरी किस्मों के लोग जो कुछ कर रहे हैं वह सभी के सामने हैं। ये लोग मनुष्यता को छोड़कर उन सभी कर्मों को करने के लिए बेशर्म, स्वच्छंद और उन्मुक्त हैं।
सहज, स्वाभाविक और आनंददायी जीवन पाने के लिए हरसंभव प्रयास जरूर करें मगर न कर्म और व्यवहार में असहजता का प्रवेश हो पाए, न ही कोई कृत्रिमता आ पाए। जो कुछ हो वह विशुद्ध और मौलिकता लिए हुए हो, इसमें पाखण्ड, आडम्बर, दोहरे-तिहरे चरित्र और दिखावे के लिए कोई स्थान न हो। साथ में यह पक्की सोच हो कि जो हो रहा है वह ईश्वरीय इच्छायुक्त प्रवाह है और उसे पूरी प्रसन्नता के साथ स्वीकारते हुए भगवान के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था के साथ आगे बढ़ते रहें।
ऎसी सोच वाले लोगों को न जीवन में दुःखी होना पड़ता है, न उन लोगों की चापलुसी, जी हुजूरी और गुलामी करनी पड़ती है जिन्हें सामान्य आदमी ईश्वर मानकर पूजने के ढोंग करता है। ऎसे लोगों के लिए जो हो रहा है वह ईश्वर की इच्छा मानकर स्वीकारा जाता है और इसी में उन्हें आनंद आता है।
इस आनंद का कोई मुकाबला नहीं है, न ही यह आनंद और किसी सामान्य आदमी के भाग्य में हो सकता है। इस प्रजाति के लोग अपने आत्म आनंद में निमग्न रहते हुए पूरी मस्ती के साथ जीवन जीते हैं और इनके सामने आने वाली समस्याएं अपने आप गौण और निष्प्रभावी होती है।
ईश्वरीय इच्छा को जो सर्वोपरि मान लेता है, उसकी हर इच्छा पूरी करने का दायित्व ईश्वर अपने पर ले लेता है। कई बार इस प्रवृत्ति को अपना चुके लोगों में तत्कालीन असुविधा या समस्या को लेकर खिन्नता आनी स्वाभाविक है लेकिन इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर लेने वालों के लिए ईश्वर ऎसी व्यवस्था कर देता है कि जिसकी कल्पना दूसरे लोग कभी नहीं कर सकते।
हमेशा देखा यह गया है कि जो लोग स्वाभाविक सहज प्रवाह की अवहेलता करते हैं, नैसर्गिक धाराओं को किन्हीं बाहरी शक्तियों से मोड़ने की कोशिश करते हैं और तात्कालिक अनुकूलताओं के लिए हर प्रकार के समझौतों को स्वीकार कर प्राकृतिक समीकरणों को गड़बड़ा देते हैं उनके जीवन के सारे समीकरण अपने आप बिगड़ने लगते हैं और इसकी भनक उन्हें तब तक नहीं लग पाती जब तक कि ऎसे लोग कुछ कर पाने तक की शक्ति भी खो दिया करते हैं।
ऎसे वक्त इन प्रकृति के प्रवाह विरोधियों की स्थिति इतनी अजीब हो जाती है कि ये चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते और सारी की सारी धाराएं इनके विपरीत बहने लगती हैं। स्वयं ईश्वरीय शक्तियां भी इन लोगों के हास्य, करुण और क्रन्दन भरे स्वरों के दिनों में इनका उपहास करती प्रतीत होती हैं।
खूब लोग ऎसे हैं जो समझदार होने से लेकर मरने तक अपने आपको बनाए रखने के लिए किसी न किसी का सहारा ढूँढ़ते, पाते, बदलते रहते हैं। कभी ये बंदरों की तरह उछलकूद करते हुए सुविधाओं के पेड़ों की एक से दूसरी टहनी पर कूदते रहते हैं, कभी किसी बाड़े में घुसकर दण्डवत कर आते हैं, कभी किसी की झोली भर आते हैं, किसी को दान-दक्षिणा चढ़ा आते है, कभी कुछ खाने-पीने का भेंट चढ़ा आते हैं और कभी उन सभी को सादर भेंट कर आते हैं जिनसे सामने वाले खुश होते हैं। कभी मदारियों के इशारों पर सब कुछ कर लेंगे, करवा लेंगे। इनसे कोई सा अभिनय करा लो, इन्हें कोई शर्म नहीं है। कभी खुद ही अपने आपको समर्पित कर देते हैं जैसे कि वे कोई इंसान न होकर भोग-विलास की वस्तु हों।
ऎसे लोग आजकल बड़ी संख्या में विद्यमान हैं जिनके लिए मनुष्य होने के स्वाभिमान से कहीं ज्यादा अपने कामों की पड़ी है। इन लोगों के लिए अपनी स्वार्थ सिद्धि के अलावा और किसी से कोई सरोकार नहीं है। इसी प्रकार की कई किस्मे हैं जिनके लिए दुर्लभ मनुष्य देह का उपयोग भौतिक संसाधनों और विलासिता से अधिक कुछ नहीं है।
जीवन का असली आनंद चाहें तो अपने आपको ईश्वरीय प्रवाह के हवाले कर दें लेकिन साथ में शुचिता भरे कर्मयोग में भी पीछे नहीं रहें। मरणधर्माओं की बजाय ईश्वरीय तत्वों का अनुकरण करें। इसी में महा आनंद समाया हुआ है।
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