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सत्यार्थ प्रकाश का चमत्कारी इतिहास

शुद्धि इतिहास से एक पृष्ठ

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सन 1968 की बात है । दिल्ली टेलीफोन में रामचन्द्र के नाम से एक किशोर की भर्ती हुई ही थी । तब रामचन्द्र की आयु 19 वर्ष की रही होगी । उसी टेलीफोन विभाग के ही कर्मचारी एक अधेड़ आयु के मोहम्मद अल्लादीन शेख भी थे । ईमान के पक्के और 5 वक्त के नमाज़ी । अपने विभाग में काम से फुर्सत मिलते ही लोगों को इस्लाम की हिदायत देना और इस्लाम की दावत देना उनकी रोजाना की रूटीन में शामिल हो गया था ।
एक दिन वह किशोर रामचन्द्र भी अल्लादीन द्वारा लगाए गए मजमें की भीड़ का हिस्सा बना तो उसने अल्लादीन पर अपनी किशोर बुद्धि के आधार पर सवाल जड़ दिए । सवाल सुनते ही अल्लादीन कुछ देर मौन हो गया और फिर उसी ने ही रामचन्द्र से पूछ लिया कि तुम आर्य समाजी हो क्या ? तुम ने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ी ली है क्या ?
वास्तव में रामचन्द्र न तो उस समय तक आर्य समाजी था और न ही उसने सत्यार्थ प्रकाश का नाम सुना था । हुआ यूं कि रामचन्द्र लगभग उन दिनों एक पुरानी सी किताब पढ़ने में लगा हुआ था जिसके आगे और पीछे के कुछेक पृष्ठ , जिल्द आदि गायब थे । कुशाग्र बुद्धि और तार्किक बुद्धि के रामचन्द्र ने वो पुस्तक पढ़नी शुरू की तो सारे उपलब्ध पन्ने खूब गम्भीरता से पढ़े लिए थे, भले ही वह उस समय उस पुस्तक के सत्यार्थ प्रकाश होने या उसके नाम से अनभिज्ञ था और अल्लादीन को पूछे सवाल उसी किताब के आधार पर थे जिसके आगे अल्लादीन लाजवाब हो गया था ।
फिर क्या था । रामचन्द्र रोज़ रोज़ अल्लादीन पर अपने सवालों की बदौलत अपने महकमें में भी लोकप्रिय सा हो गया । उधर अल्लादीन की चिंता और मायूसी बढ़ने लगी । सवालों पर अल्लादीन की खामोशी उसे सोचने पर मजबूर कर देती थी । संयोग की बात यह थी कि रामचन्द्र का मामा आर्य समाजी था और रामचन्द्र ने कुछ समय पश्चात अपने मामा से ही आर्य समाज और सत्यार्थ प्रकाश के बारे में सब जान लिया था । तब रामचन्द्र को सत्यार्थ प्रकाश की जिल्द सहित नई कॉपी मिल चुकी थी और इस दौरान वह सत्यार्थ प्रकाश को पूरी गम्भीरता से एक बार फिर पढ़ गया था । अल्लादीन और उसके बीच रोज़ रोज़ के सवाल जवाब उन दोनों के बीच नज़दीकियों का हेतु बन गए । दोनों सहकर्मी तो थे ही अब वो उम्र में काफी अंतर होने पर भी मित्रवत से हो चुके थे । हालात तो ऐसे हो गए कि अल्लादीन की बेटी आयशा, जो रामचन्द्र से लगभग दो एक साल छोटी थी रामचन्द्र को चाचा बोलने लगी और दोनों के पारिवारिक सम्बन्ध से बन गए थे । क्योंकि अल्लादीन और रामचन्द्र एक ही महकमें दिल्ली टेलीफोन में थे और भाइयों जैसे समंध बन गए थे इसलिए आयशा भी रामचन्द्र को चाचा कह कर ही संबोधित करती थी ।
अल्लादीन इसी बीच अपनी नौकरी से रिटायर हो गए । रिटायरमेंट के लगभग डेढ़-दो साल बाद आयशा जब मुँह बोले चाचा रामचन्द्र से मिली तो बोली, “चाचा अब तो तुम्हारी वजह से हमने अपनी नमाज़ का ढंग भी बदल लिया है ।” चाचा रामचन्द्र जब यह बात समझ न पाए तो पूछे, “मतलब?”
तब आयशा ने चेहरे पर रहस्य उद्घाटन करती मुस्कराहट के साथ खुलासा किया, “चाचा अपने पापा नमाज़ की जगह घर में रोज़ संध्या – हवन करते हैं । नमाज़ तो जो पढ़नी थी वो पढ़ ली अब हम सब नमाज़ी से आर्य समाजी बन गए हैं ।” रामचन्द्र ने घर परिवार का हाल चाल पूछा तो पता लगा कि नई पीढ़ी अर्थात अल्लादीन के पौते – पौतियों के नाम भी अरबी भाषा की बजाए हिंदी भाषी भारतीय नाम ही रखे गए हैं ।
फिर दोनों परिवारों में मधुर संबंध चलते रहे । सन 1981-82 तक दोनों परिवारों में सम्बन्ध बने रहे परन्तु उसके बाद संपर्क कुछ कम सा रहा ।
इधर रामचन्द्र भी एक सुदृढ़ आर्य समाजी बनने के बादऔर स्वाध्याय के पथ पर आगे बढ़ते रहे । धीरे धीरे उनका वैदुष्य निखरता चला गया । आज वे आर्य जगत में आचार्य श्री राम चन्द्र आर्य के नाम से प्रसिद्ध हैं । वानप्रस्थ आश्रम , ज्वालापुर ( हरिद्वार) में निवास के साथ साथ वे गुरुकुल नजीबाबाद आदि में भी बीच बीच में अपने स्वाध्याय से वैदिक मत के प्रसार में लगे रहते हैं ।

(उपरोक्त घटना आचार्य श्री रामचन्द्र आर्य जी ने स्वयं ही हाल ही में गुरुकुल नजीबाद में मेरे प्रवास के दौरान मुझे बताई थी, जिसके आधार पर मैंने यह लिखा है – सुभाष दुआ।

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