कविता — 27
बेटियां मरती हैं अपने देश में अपमान से।
जी नहीं सकती हैं जीवन मान से सम्मान से।।
जिंदगी बोझिल हुई है काटे नहीं कट पा रही।
बूढ़े पिता की आंखें दुख को देख भी नहीं पा रही।।
मां के दिल में दर्द गहरा, हो गया आघात से ….
जी नहीं सकती हैं जीवन मान से सम्मान से।।
समाज है बेदर्द सारा, संवेदना भी मर गई।
एक बेटी सबके आगे बाजार में ही मर गई।।
मौन होकर सब ने देखा डूब गए सब पाप में …
जी नहीं सकती हैं जीवन मान से सम्मान से।।
मार ऐसी सह रही हैं ,धरती की कांपे आत्मा।
असहाय शासन हो गया वाली है अब परमात्मा।।
अन्याय की कब शाम होगी ? – पूछती भगवान से …
जी नहीं सकती हैं जीवन मान से सम्मान से।।
शहर की रोशन हैं सड़कें मन का दीपक बुझ गया।
इंसान गायब हो गया और प्रेम कहीं पर छुप गया।।
‘राकेश’ बिजली गिर रही है मेघ और आसमान से …
जी नहीं सकती हैं जीवन मान से सम्मान से।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत