राजनीति में कहां बची है नैतिकता?
वास्तव में आज भारत का गणतंत्र दल-दल में धंसता दिखाई देता है। स्वाधीनता के बाद भारत यदि सबसे अधिक किसी क्षेत्र में संकट ग्रस्त है तो वह है नैतिक मूल्यों का संकट। अपने महान आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों, उच्चादर्शों जैसे सदगुणों के कारण जगतगुरू के रूप में विख्यात रहा भारत आज तेजी से नैतिक पतन की ओर उन्मुख होता दिखता है।
सबसे अधिक निराशा तो राजनीति में सक्रिय नेताओं तथा कार्यकर्ताओं के चरित्र को देखकर होती है। लगता है आज सिद्घांत और सत्यवादिता जैसे शब्दों को शब्दकोश से ही उन्होंने हटा दिया हो। वे कल कुछ कहते थे, आज कुछ कहते हैं। कल क्या कहने लगेंगे, कुछ पता नही। सिद्घांतों की अटलता, शब्दों की दृढ़ता वचन की प्रतिबद्घता जैसे कोई मायने नही रखते।
एक थे बाबू लक्ष्मीनारायण
यहां मैं पराधीन भारत का एक उदाहरण देना चाहूंगा। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता थे बाबू लक्ष्मीनारायण बीए। वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के हापुड नगर के निवासी थे। कांग्रेस के तपस्वी नेता थे, स्वाधीनता सेनानी थे। वर्षों तक अंग्रेजों की जेलों में उन्होंने यातनाएं सहन की थीं।
बाबू लक्ष्मीनारायण की वरिष्ठता तथा त्याग तपस्या को देखकर उन्हें सन १९४५ में उत्तर प्रदेश (उस समय संयुक्त प्रांत) विधान परिषद का सदस्य बनाकर लखनऊ भेज दिया गया। श्री गोविन्द वल्लभ पंत का संदेश पहुंचा कल आपको शपथ लेनी है। पीछे पीछे एक सरकारी अधिकारी उनके पास पहुंच गया। उसने शपथ का प्रारूप सामने रख दिया इसे आपको कली समारोह में दोहराना है। उन्होंने उस प्रारूप पर निगाह डाली तो चौंक गये। उसका पहला वाक्य था-मैं ब्रिटिश ताज की वफादारी की कसम खाकर प्रतिज्ञा करता हूं। तुरंत फोन करके पंतजी से कहा मैं गांधी जी के आह्वïान पर ब्रिटिश राज को तहस नहस करने का संकल्प ले चुका हूं। अब ब्रिटिश ताज की वफादारी की शपथ कैसे ले सकता हूं।
उधर से उत्तर मिला बाबू जी, यह शपथ लेना तो एक जरूरी प्रक्रिया मात्र है। हम सब कांग्रेसी भी तो ऐसी शपथ लेकर पदों पर आरूढ़ हो चुके हैं।
बाबू का उत्तरनारायण का उत्तर था-आप ले चुके होंगे झूठी शपथ। मैं एक बार जिस विदेशी शासन को उखाडऩे के लिए जेल जा चुका, अब ब्रिटिश बादशाह की वफादारी की शपथ लेकर असत्य का आचरण कर अधर्म का भागी क्यों बनूं। बाबूजी को श्री चंद्रभानु गुप्त तथा अन्य अनेक साथियों ने समझाने का प्रयास किया कि शपथ तो मात्र शब्दजाल है, किंतु बाबू लक्ष्मीनारायण जैसे सच्चे सरल तपस्वी स्वाधीनता सेनानी ने त्यागपत्र दे दिया और हापुड़ लौट आये। बाद में कांग्रेस का शासन आने पर कांग्रेसी नेताओं की कथनी करनी में अंतर देखकर उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। अपना सारा जीवन शिक्षा के प्रसार में लगा दिया। हापुड़ का सरस्वती विद्यालय आज उसी महान विभूति द्वारा स्थापित शिक्षा केन्द्र है।
जयप्रकाश जी की सिद्घांतनिष्ठा
दूसरा उदाहरण लोकनायक जयप्रकाश नारायण का है। वे सन १९४१ में देवली कैंप में नजरबंद थे। कांग्रेस की अति अहिंसावादी नीति ने उन्हें निराश कर दिया था। उन्होंने अपने समर्थकों के नाम एक पत्र लिखा जिसमें अंग्रेजों के विरूद्घ हिंसक अभियान का भी सहारा लेने से न हिचकने का आह़वान किया गया था।
एक दिन उनकी धर्मपत्नी प्रभावती जी उनसे भेंट करने देवली कैंप पहुंची। जयप्रकाश जी ने सामने खड़ पुलिसकर्मी की आंख बचाकर प्रभावती जी को अपना पत्र भरा लिफाफा देना चाहा। लिफाफा पकड़ा गया। देवली कैंप के अधीक्षक लैफ़्िटनेंट कर्नल क्रिस्टोफर ने जयप्रकाश जी से कहा आपने आज एक खतरनाक दस्तावेज गुप्त रूप से जेल से बाहर पहुंचाने का प्रयास किया है। यदि भविष्य में जेल के नियमों का पालन करने का आश्वासन दें तो मैं मामले को यही दबाए देता हूं। जयप्रकाश जी ने उत्तर दिया, जब मैं जेल से बाहर रहकर भी इस अंग्रेज सरकार को गैर कानूनी मानकर उसके कानूनों को ठुकराता रहा हूं तो जेल में उन कानूनों के पालन का आश्वासन कैसे दे सकता हूं। अंग्रेज अधीक्षक उनका मुंह देखता रह गया था।
अब कहां है नैतिकता?
अब देखिए स्वाधीन भारत के राजनेताओं का आचरण। वे सत्ता प्राप्ति के लिए लोकसभा व विधानसभा की सदस्यता के लिए प्राय: हर सिद्घांतों को ताक पर रखने का तत्पर रहते हैं। अन्य सभी दलों की घोर आलोचना कर, सार्वजनिक रूप से उन्हें देश केे पतन का जिम्मेदार ठहराकर किसी एक दल के टिकट पर चुनाव लड़ते हैं, जीत जाते हैं।
कुछ ही दिन बाद मंत्री पद प्राप्त करने के लिए जोड़ तोड़ कर दूसरे दल में शामिल हो जाते हैं। जो साम्प्रदायिकता को पानी पीकर कोसते हैं, वे ही पंथनिरपेक्षता के अलंबरदार कांग्रेसी नेता केरल में सत्तारूढ़ होने के लिए मुस्लिम लीग से गठबंधन करने में नही हिचकिचाते। अपने स्वार्थ साधने के लिए मुस्लिम लीग को सेकुलर होने का तमगा देते उन्हें देर नही लगती।
भजनलाल हरियाणा में कांग्रेस के विरोध के नाम पर विधानसभा के लिए जीतकर आते हैं। कुछ ही दिन बाद अपने सभी गैर कांग्रेसी विधायकों को लेकर कांग्रेस में शामिल होकरन् मुख्यमंत्राी बनने में शर्म अनुभव नही करते।
रामविलास पासवान खुलकर कहा करते थे कि भाजपा को घोर साम्प्रदायिक मानते हैं। उसे लकड़ी से छूने को भी तैयार नही हैं। जब केन्द्र में भाजपा नेतृत्व में सरकार बनती है तो कांग्रेस विरोध की आड़ में भाजपा के साथ मंत्री बनने में नही हिचकिचाते। बाद में जब स्वार्थ सिद्घ नही हो पाता पुन: भाजपा विरोध के कुछ बहाने ढूंढक़र अलग हो जाते हैं।
मैं इस सिद्घांतहीनता के लिए केवल कांग्रेस को ही दोषी करार नही दे रहा।
भाजपा के कुछ नेताओं ने भी समय समय पर सिद्घांतों को ताक पर रखकर विचित्र तर्क देकर इसी प्रकार धुर विरोधी विचारों के दलों के साथ सत्तासीन होने के लिए हाथ मिलाए हैं, गठबंधन किये हैं। जो कम्युनिस्ट कभी सिद्घांतनिष्ठ सूरमा माने जाते थे, कांग्रेस को बुर्जुवा पार्टी तक कहते थे, देश के अध: पतन का कारण अंग्रेजी शासन को बताते थे, वे अब भारतीय जनता पार्टी तथा हिंदुत्व से भयाक्रांत होकर उसी कांग्रेस के शासन के खेवनहार बनने में तनिक भी शर्म महसूस नही कर रहे।
इसमें कोई शक नही है कि सिद्घांतहीनता ही राजनीति में तेजी से बढ़ रहे भ्रष्टïाचार तथा अपराधीकरण की जिम्मेदार है। राजनीति में सक्रिय सेकुलर दल तथा नेता दो मुंह सांप की तरह हैं। वे सवेरे क्या कहते हैं, शाम को क्या कहेंगे, किसी को पता नही। आज वे जिस राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेता हैं कल उसके धुर विरोधी सिद्घांत वाले किस राजनीतिक दल का झण्डा उठाए दिख जाएंगे, कहा नही जा सकता।
पुरानी पीढ़ी के स्वाधीनता संग्राम में योगदान करने वाले राजनेता सिद्घांतनिष्ठ ईमानदार, नैतिक मूल्यों में विश्वास रखने वाले होते थे।
देश के स्वाधीन होते ही पंथ निरपेक्षता के नाम पर हमारे कांग्रेसी शासकों ने युवा पीढ़ी को नैतिक व धार्मिक शिक्षा देने, संस्कार देने से वंचित कर दिया।
स्वाधीन देश के सत्तारूढ़ कांग्रेसी नेता कुछ ही वर्षों में सिद्घांतों व पुराने संस्कारों को तिलांजलि देकर सत्ता व संपत्ति के पीछे दौडऩे लगे। उनका एक मात्र लक्ष्य रह गया कि किसी भी प्रकार सत्ता पर काबिज रहना चाहिए। इसी घातक सोच ने हमारे गणतंत्र को दलदल में उलझा कर रख दिया है।