वो काम छोड़ें जिनसे पछतावा हो
हमारे हर कर्म को करने से पहले या हमारे जीवन की कोई सी अच्छी-बुरी घटना होने से पूर्व हमारी आत्मा को उसके स्पष्ट संकेत प्राप्त हो जाते हैं और वह कम से कम दो बार हमें इस बारे में कभी स्पष्ट तो कभी प्रतीकात्मक रूप से इसके बारे में संकेत देती ही है।
यह अलग बात है कि हम उन संकेतों की भाषा या वाणी को समझ नहीं पाएं या समझ लेने के बावजूद जानबूझकर उपेक्षित कर दें। जितना हमारा तन-मन पवित्र होता है उतने अधिक और सुस्पष्ट संकेत हमें प्राप्त होते हैं जबकि मन की मलीनता होने पर संकेतों में धुंधलापन आ जाता है।
लेकिन एक बात जरूर है कि जो कुछ हम करने वाले होते हैं, या जो कुछ हमसे संबंधित होने वाला होता है उसके बारे में हमें अपनी आत्मा से इशारा मिलता ही है। दुनिया का कोई इंसान यह नहीं कह सकता कि उसे कोई संकेत मिला ही नहीं क्योंकि ईश्वर या भाग्य जो कुछ करते हैं उसके बारे में इंसान को पहले से सचेत करते हैं ताकि वह अपने ज्ञान और विवेक बुद्धि का इस्तेमाल करके इसकेे प्रभाव को न्यूनाधिक कर सके और हर प्रकार की स्थिति के लिए पहले से तैयार रहे।
हम अच्छा ही अच्छा होने पर पूरा सुकून पाते हुए इसका पूरा श्रेय प्राप्त कर लिया करते हैं लेकिन जरा सा बुरा हो जाने पर अथवा किसी भी प्रकार का नुकसान या दुर्घटना हो जाने पर ईश्वर या भाग्य को कोसना आरंभ कर देते हैं। जबकि यथार्थ यही है कि दोनों ही अवस्थाओं में हम तक संकेत भिजवाए जाते हैं लेकिन हम इनकी उपेक्षा कर देते हैं तथा अपनी स्वार्थ बुद्धि का उपयोग करते हुए हमारे हितों में ही सोचने की मानसिकता पाल लिया करते हैं।
इंसान की जिन्दगी में कर्म ही सर्वोपरि है जो उसे सच्चे इंसान के रूप में प्रतिष्ठित करते हुए जगत की सेवा के लिए परिपूर्ण अवस्था प्रदान करता है। किसी भी कर्म को करने से पूर्व हिचक हो, कर्म कर लिए जाने के बाद पछतावा हो, वह कर्म त्याज्य है।
दुनिया का कोई सा काम ऎसा नहीं है जिसके लिए हमारी आत्मा न्यायाधीश न हो। प्रत्येक कर्म और व्यवहार के बारे में हमारी अपनी आत्मा से बड़ा कोई न्यायाधीश नहीं हो सकता। जो कि कर्म करने से पहले भी सत्यासत्य का संकेत देता है और कर्म पूरा हो जाने के बाद भी उसका मूल्यांकन कर अवगत करा देता है।
दुनिया का वह हर काम निन्दित और त्यागने योग्य है जिसे कर लिए जाने के उपरान्त किसी भी प्रकार का पश्चाताप हो, और यह लगे कि जो काम हमने किया है, हमसे हो गया है, वह ठीक नहीं है। यह भावना आ जाए तब समझ लेना चाहिए कि हमारा कर्मयोग कलंकित हो गया है और हमसे ऎसा कुछ काम हो गया है जो नहीं होना चाहिए था।
हो सकता है कई सारे काम हमारी जानकारी के बगैर या भूल से भी हो जाते हैं, और खूब सारे काम हम अपने स्वार्थ या किसी न किसी के मोह में अंधे होकर करने लगते हैं। जिस काम के बाद दुःख व पछतावा हो, उस काम को दुबारा नहीं करने का संकल्प ही सबसे बड़ा प्रायश्चित है और जीवन में जब भी ऎसा कोई पछतावा हो, इस काम को कभी न दोहराएं, अन्यथा वही काम हमारे पतन या मृत्यु का महान और एकमात्र कारण बन सकता है। क्योंकि आत्मा की आवाज की जो कोई अवमानना या उपेक्षा करता है उसका अधःपतन निश्चित है।
ईश्वर तथा आत्मा की आवाज को मानने वाले होशियार लोग विवेक का प्रयोग करते हुए प्रायश्चित भी कर लेते हैं और दुबारा उस कर्म को नहीं करने का संकल्प भी दृढ़तापूर्वक निभाते हैं जिसके बारे में पछतावा होता है। लेकिन अधिकांश लोग अपने पद-मद और कद, धन-वैभव के अहंकारों में इतने अधिक मदमस्त रहा करते हैं कि उन्हें ये सारे संकेत मिथ्या लगते हैं और वे अपने आपको उससे ऊपर मानते हैं।
यह तय मान कर चलें कि जिस काम को करने से पूर्व जरा सी भी हिचक हो, अथवा जिस काम को करने के बाद पछतावा हो, उसका पूरी तरह त्याग करें क्योंकि ऎसे काम हमारे हित में नहीं होते। इसके बावजूद हम यदि ऎसे कामों को करते रहते हैं, बार-बार करने का दुस्साहस करते हैं तब यह निश्चित मानना चाहिए कि यही वह कारण होगा जो आने वाले समय में हमारे लिए दुःख, पीड़ा और शोक का महान कारण बनकर उभरेगा और तब हम कत्र्ता की बजाय मात्र द्रष्टा की ही भूमिका में होंगे। यह वह समय होगा जब पानी सर से गुजर चुका होगा और यह कहावत गुनगुनाने को मजबूर होना पड़ेगा – अब पछताए का होत, जब चिड़िया चुग गई खेत।
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