नरेन्द्र मोदी अमेरिका हो आयें हैं । अमेरिकी के उनके दौरे की चर्चा इसलिये भी ज़्यादा हो रही थी क्योंकि २००५ में जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे तो अमेरिका ने उन्हें वीज़ा देने से इन्कार कर दिया था । अब २०१४ में अमेरिका उन्हें आतुरता से निमंत्रित ही नहीं कर रहा था बल्कि वहाँ के राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा गुजराती भाषा में उनसे पूछ रहे थे – किम छे ? अपनी पूरी यात्रा में नरेन्द्र मोदी ने अमेरिका को साफ़ साफ़ किम छे का उत्तर दिया । ओबामा से मिलने से पहले ही मोदी संयुक्त राष्ट्र महासंघ की साधारण सभा में बता चुके थे कि यदि आतंकवाद से लड़ना है तो उसके लिये दो पैमाने नहीं हो सकते । आतंकवाद को अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद की दो श्रेणियों में बाँट कर उससे लड़ा नहीं जा सकता । मीडिया ने चाहे मोदी की इस स्पष्टोक्ति को बहुत नहीं उछाला , लेकिन अमेरिका को इसे समझने में देर नहीं लगी । रिकार्ड के लिये बता दिया जाये कि अमेरिका ने पिछले दिनों अफ़ग़ानिस्तान में अपने हितों को ध्यान में रखते हुये तालिबान आतंकवादियों को अच्छे तालिबान और बुरे तालिबान में विभाजित कर उनके एक ग्रुप के साथ बातचीत की शुरुआत कर दी थी । अमेरिका पाकिस्तान में छिपे आतंकवादियों को समाप्त करने की बात कहता तो है और ओसामा बिन लादेन को अपनी पहल पर मार कर उसने ऐसा किया भी है । लेकिन अमेरिका ने इराक़ पर हमला करने के लिये जो कारण बताये थे , वे वहाँ थे या नहीं , यह अभी भी विवादास्पद हैं जबकि वे सभी कारण पाकिस्तान में अब भी मौजूद हैं । परन्तु इसके बावजूद अमेरिका अपने राष्ट्रीय हितों , मसलन अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को नियंत्रित करने के लिये , पाकिस्तान के साथ साझेदारी करता है । अमेरिका बगदादी की इस्लामी स्टेट को समाप्त करने के लिये जुटा हुआ है जबकि कश्मीर में आतंकवाद को वह शायद आज़ादी की लड़ाई समझ रहा है । जिस क्षेत्र से अमेरिका के हित जुड़े हैं , उस क्षेत्र में अमेरिका की आतंकवाद को लेकर की गई परिभाषा अलग है और दूसरे क्षेत्रों के लिये बिल्कुल अलग । आतंकवाद को लेकर अमेरिका की इसी परस्पर विरोधी नीति का संकेत मोदी ने प्रत्यक्ष परोक्ष रुप से दिया । यही कारण है कि मोदी ने अमेरिका द्वारा कुछ दूसरे यूरोपीय देशों के साथ मिल कर आई एस आई एस के ख़िलाफ़ चलाये जा रहे अभियान में शामिल होने से इन्कार कर दिया । मोदी और ओबामा द्वारा संयुक्त रुप से जारी विज्ञप्ति में पहली बार अमेरिका ने पाकिस्तान में बैठे दाऊद की आतंकवादी होने और उसे पकड़ने की बात स्वीकार की है । इसी प्रकार दक्षिण चीन सागर में चीन की दादागिरी की बिना नाम लिये निन्दा की गई है । कुछ लोगों को लगता था कि अमेरिका की धरती पर मोदी डब्ल्यू टी ओ जैसे विषयों पर नर्म पड़ सकते हैं , लेकिन मोदी उन सभी प्रश्नों पर , जिन से भारत के हित प्रत्यक्ष रुप से जुड़े हुये हैं , टस से मस नहीं हुये । मोदी ने अमेरिका को स्मरण दिलाया है कि लोकतंत्र के साँझा मूल्यों से भारत और अमेरिका परस्पर सहयोगी हो सकते हैं । दुर्भाग्य से अभी तक अमेरिका लोकतांत्रिक मूल्यों वाले देशों की बजाय तानाशाही या राजशाहीवाले देशों के साथ ज़्यादा सहज महसूस करता रहा है । मोदी ने अमेरिका की नीति के इस विरोधाभास को संकेतों से स्पष्ट इंगित भी किया । इसलिये अमेरिका से मोदी ने जो बातचीत की वह यथार्थ के इस धरातल पर खड़े होकर की । यही कारण है कि वाशिंगटन पोस्ट के आलेख में ओबामा ने मोदी के साथ मिल कर घोषणा की कि दोनों देश मिल कर विश्व के अनेक क्षेत्रों में सार्वजनिक परिवर्तन ला सकते हैं ।
अमेरिका में मोदी ने उस देश की अनेक कम्पनियों के प्रमुखों से आमने सामने बातचीत की । अमेरिका की कम्पनियाँ भारत में पूँजी निवेश करने से कतराती हैं । उसकी तुलना में वे चीन में पूँजी निवेश करना ज़्यादा सुरक्षित समझती हैं । उसका कारण वैचारिक नहीं है बल्कि व्यवहारिक है । भारत में नौकरशाही क़ानून का सहारा लेकर पूँजी निवेशकों के प्रकल्पों में अड़ंगे डालने को ही अपनी कार्यकुशलता मानती है । दूसरे इस मामले में सरकार की नीति क्या है , यह स्पष्ट नहीं है । मोदी ने वहाँ के पूँजी निवेशकों को आश्वस्त किया है कि अनुपयोगी और कालबाह््य हो चुके विधि विधानों को समाप्त किया जा रहा है । युगानुकूल सिंगल विंडो सिस्टम से निवेश के प्रकल्पों को स्वीकृति की व्यवस्था ी गई है । सब से बढ़ कर मोदी ने उन को आश्वस्त किया कि निवेशकों की पूँजी डूबने नहीं दी जायेगी । शायद इसी का संकेत देने के लिये मोदी अमेरिका जाने से पहले दिल्ली में मेक इन इंडिया अभियान की शुरुआत करके गये थे ।
भारत को पूँजी की जरुरत है । यदि विभिन्न देशों के निर्माता भारत में आकर उत्पादन करते हैं तो निश्चय ही यहाँ रोज़गार के नये अवसर पैदा होंगे । भारत में किया गया उत्पादन लागत के हिसाब से सस्ता पड़ सकता है क्योंकि देश के पास वर्क फ़ोर्स है । लेकिन अमेरिका में जाकर यह बताना भी जरुरी था कि नये शासन के पास जन समर्थन ही नहीं है बल्कि तमाम भेदभाव भुलाकर भारत के लोगों ने तीस साल के बाद पहली बार देश में ऐसे शासन की व्यवस्था की है जो बिना किसी बाहरी या अन्दरूनी दबाव के दूरगामी निर्णय लेने की स्थिति में है । ख़ास कर अमेरिका में बसे उन भारतीयों को जिन्होंने उस देश में जाकर अपनी योग्यता के बलबूते सफलता हासिल की है । इन्हीं भारतीयों के माध्यम से व्हाइट हाउस में सही संदेश जा सकता है । न्यूयार्क के मैडीसन स्क्वायर में प्रवासी भारतीयों के कार्यक्रम के माध्यम से मोदी ने यह काम सफलता पूर्वक किया । उस कार्यक्रम में अमेरिका के तीस चालीस सांसद भी थे । वे आश्चर्य चकित होकर प्राचीन भारत के इस नये संदेश को सुन रहे थे । केवल अमेरिका ही नहीं चीन भी सुन रहा था । भारत में सीता राम येचुरी व दिग्विजय सिंह जैसे लोग इसे इवेंट्स मैनेजमेंट से जोड़ सकते हैं और शायद जोड़ भी रहे हैं । लेकिन यह विश्व से बात करने की नई कूटनीति है । यह कार्यक्रम मात्र नहीं है । इसके भीतर के निहितार्थ को समझने की जरुरत भी है । वाशिंगटन पहुँचने से पहले कूटनीति के इस नये मंत्र का जाप कर लेना जरुरी था । इस कूटनीति को वे लोग नहीं समझ सकते जो देश की आम जनता की आशाओं आकांक्षाओं से नहीं जुड़े हैं ।
अमेरिका में बसा भारतीय मूल का समुदाय इस देश की मूल पूँजी है । उस को पीढ़ी दर पीढ़ी भारत की जड़ों से जोड़े रखना जरुरी है । अभी तक नौकरशाही इस प्रक्रिया को निरुसाहित करती थी । मोदी ने अमेरिका में जाकर भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों को ताउम्र वीज़ा प्रदान कर दिया । निश्चित ही इस निर्णय के दूरगामी परिणाम होंगे । अमेरिका में किन्हीं विपरीत परिस्थितियों में चले गये पंजाबियों से बातचीत ही नहीं की बल्कि उन की समस्याओं का समाधान भी किया । उन समस्याओं की आड़ में भारत विरोधी शक्तियाँ सक्रिय हो जाती थीं । मोदी ने अत्यन्त कुशलता से उन शक्तियों को अप्रासांगिक किया । मोदी की अमेरिकी यात्रा की उपलब्धि को एक वाक्य में कहना हो तो कहा जा सकता है कि पहली बार यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर भारत ने अमेरिका के साथ एक नये आत्मविश्वास के साथ बात की है ।