पाकिस्तान के प्रधानमंत्री मियाँ नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में दिए गए भाषण में एक बार फिर कश्मीर का मुद्दा उठाया। उन्होंने कई पाकिस्तानी शासकों का यह नजरिया दोहराया कि जम्मू कश्मीर में जनमतसंग्रह कराना ही इस समस्या का एकमात्र हल है और इस बारे में 1948 के संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव आज भी प्रासंगिक हैं। जैसा कि अपेक्षित था, भारत ने नवाज शरीफ के बयान को अस्वीकार्य बताते हुए दोहराया है कि जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। कश्मीर की जनता लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदारी करते हुए अपना भविष्य बार-बार तय कर चुकी है। संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों की प्रासंगिकता पर भारत की ओर से अनेक बार स्थिति स्पष्ट की जा चुकी है। अनेक विश्व शक्तियाँ, जिनमें अमेरिका शामिल है, भी इन प्रस्तावों को अतीत में अप्रासंगिक करार दे चुकी हैं। वे इस द्विपक्षीय विवाद में किसी भी तरह की अंतरराष्ट्रीय दखलंदाजी की संभावना को खारिज करते हैं। लेकिन पाकिस्तान ने आज भी संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों पर उम्मीदें टिकाई हुई हैं। यह जानते हुए भी कि वह इतने दशकों में एक बार भी संयुक्त राष्ट्र में ऐसा कोई प्रस्ताव पारित नहीं करवा सका जिसके तहत भारत को इन प्रस्तावों को लागू करने के लिए बाध्य किया जा सके। याद रहे, सन् 1062 के बाद से आज तक संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे पर बहस नहीं हुई है और सन् 2010 में इसे संयुक्त राष्ट्र की अनसुलझे विवादों की सूची से भी हटा लिया गया था। पाकिस्तान ने आज भी संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों पर उम्मीदें टिकाई हुई हैं। यह जानते हुए भी कि सन् 1062 के बाद से आज तक संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दे पर बहस नहीं हुई है और सन् 2010 में इसे संयुक्त राष्ट्र की अनसुलझे विवादों की सूची से भी हटा लिया गया था। पाकिस्तान के राजनेता जमीनी हकीकतों से नावाकिफ हों, ऐसा नहीं लगता। पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने कुछ साल पहले जनमतसंग्रह की मांग छोडऩे का संकेत भी दिया था। लेकिन बार-बार कश्मीर का मुद्दा उठाते रहना पाकिस्तानी राजनेताओं की सियासी मजबूरी प्रतीत होती है। घरेलू नाकामियों और समस्याओं से ध्यान हटाने का सरल माध्यम तो यह है ही, अपने आपको राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखने का आसान साधन है, जैसा कि हमने हाल ही में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के संरक्षक बिलावल भुट्टो के बयान के रूप में देखा। बिलावल कुछ अखबारों की सुर्खियाँ जरूर बने लेकिन एक सप्ताह बाद खुद पाकिस्तान में भी किसी को उनका बयान याद नहीं होगा, भारत या बाकी दुनिया की तो बात ही छोडि़ए। बहरहाल, हुर्रियत कांफ्रेंस के नेताओं के साथ पाकिस्तानी राजदूत की मुलाकात के बाद भारत-पाक विदेश सचिव स्तरीय वार्ता रद्द होने की रोशनी में दोनों देशों के संबंध एक बार फिर खराब हुए हैं और ऐसे में किसी भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के लिए संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा उठाकर अपने आत्मविश्वास का परिचय देना एक ज़रूरी रस्म अदायगी प्रतीत होती है।
संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों को प्रासंगिक करार देते हुए पाकिस्तानी हुक्मरान यह भूल जाते हैं कि आज का कश्मीर वह कश्मीर है ही नहीं, जिसकी परिकल्पना संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों में की गई है। वह एक राजनैतिक इकाई नहीं रह गया है। मूल जम्मू कश्मीर का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा भारत में बचा रह गया है जबकि, 38 प्रतिशत पाकिस्तान और 16 प्रतिशत पर चीन ने कब्जा किया हुआ है। मौजूदा परिस्थितियों में जनमतसंग्रह के लिए आवश्यक पूर्व-शर्तों का पूरा हो पाना अव्यावहारिक ही नहीं बल्कि असंभव प्रतीत होता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि जम्मू कश्मीर में जनमतसंग्रह को अव्यावहारिक और अप्रासंगिक बनाने में खुद पाकिस्तान ने अहम भूमिका निभाई है। राज्य का एक बड़ा हिस्सा चीन को सौंपने की पाकिस्तानी उदारता को ही ले लीजिए।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही अकेली दलील नही
जम्मू कश्मीर की जनता ने बार-बार भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लिया है और राष्ट्रीय तथा राज्य स्तर पर अपने रहनुमाओं का चुनाव किया है। इस तरह जनता ने भारतीय व्यवस्था और भारतीय राष्ट्र में बार-बार आस्था प्रकट की है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों के अप्रासंगिक और अव्यावहारिक हो जाने के बारे में भारत के तर्क और भी कई हैं। पहला मुद्दा तो यही है कि 21 अप्रैल 1948 को पारित संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 47, संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र के जिस अध्याय (अध्याय 6) के तहत पास किया गया, वह बाध्यकारी नहीं है। इसके बरक्स अध्याय 7 के तहत पास किए जाने वाले संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव बाध्यकारी और अनिवार्य हैं। ऐसे में पाकिस्तान, कोई अन्य देश या स्वयं संयुक्त राष्ट्र इस मामले के किसी भी पक्ष को जनमतसंग्रह कराने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। कुछ साल पहले संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र किसी भी (दोतरफा) विवाद में तभी दखल करता है जब दोनों पक्ष इसके लिए आग्रह करें। जाहिर है, वे भी इसे एक द्विपक्षीय मुद्दा मानते हैं और भारत द्वारा आग्रह किए बिना संयुक्त राष्ट्र की किसी भी भूमिका के लिए गुंजाइश पैदा नहीं होती।
आपको याद होगा कि कश्मीर के पूर्व महाराजा हरिसिंह ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर तब किए थे जब पाकिस्तानी सेना और राजनीतिज्ञों के निर्देशन में वहाँ के कबाइलियों ने राज्य पर हमला कर दिया था और इसके एक बड़े हिस्से पर कब्जा करते हुए श्रीनगर के पास तक आ पहुँचे थे। पाकिस्तानियों ने जो हिस्सा कश्मीर से तोड़ लिया, उसे आज वहाँ तथाकथित आजाद कश्मीर के नाम से संबोधित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव 47 की पूर्व शर्त थी कि जनमतसंग्रह करवाने के लिए पहले जम्मू कश्मीर में पूर्व स्थिति बहाल की जाएगी। प्रस्ताव में साफ-साफ उल्लेख है कि जनमतसंग्रह की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के पाकिस्तान इसमें घुसने वाले सभी कबाइलियों और नागरिकों को वहाँ से हटा ले और भारत वहाँ पर उतनी ही सेनाएँ तैनात रखे जितनी की नागरिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक है। इसका अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान को अधिकृत कश्मीर पर से कब्जा त्यागना था और भारत को कश्मीर के उन इलाकों में भी सेना तैनात करने का अधिकार दिया गया था, जिन पर पाकिस्तान ने कब्जा कर लिया था। पाकिस्तान ने इस पूर्व शर्त का आज तक पालन नहीं किया इसलिए जनमतसंग्रह की स्थिति आज तक नहीं बनी। फिर कैसे पाकिस्तानी हुक्मरान जनमतसंग्रह का वायदा पूरा करने की बात करते हैं?
प्रस्तावों का अनादर किसने किया?
संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों में व्यवस्था है कि कोई भी पक्ष जम्मू कश्मीर की जनसंख्यामूलक स्थिति में बदलाव नहीं करेगा। भारत ने तमाम पक्षों की तरफ से समय-समय पर उठाई जाने वाली आपत्तियों को नजरंदाज करते हुए इस प्रावधान का अक्षरश: पालन किया है। दूसरी तरफ पाकिस्तान ने गैर-कश्मीरियों को बड़े पैमाने पर अधिकृत कश्मीर में बसने की अनुमति दी है। गिलगिट बाल्टिस्तान जैसे क्षेत्रों में तो कश्मीरी जनसंख्या अल्पसंख्यक बन गई है। कश्मीरियों के आत्मनिर्णय की बात करने वाले पाकिस्तान ने उसका एक हिस्सा चीन के हवाले करते समय कश्मीरियों की राय तक लेना उचित नहीं समझा! अभी पाँच साल पहले ही पाकिस्तान ने अधिकृत कश्मीर के एक हिस्से गिलगिट बाल्टिस्तान के लिए अलग विधानसभा की व्यवस्था कर उसे अलग राज्य जैसा दर्जा दे दिया है। पाकिस्तान की तरफ से संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों का उल्लंघन इन प्रस्तावों की वैधता, प्रासंगिकता और गरिमा को खत्म कर चुका है। कोई बेवजह नहीं है कि केंद्र सरकार ने भारत और पाकिस्तान में संयुक्त राष्ट्र सैन्य पर्यवेक्षक समूह को उपलब्ध कराई गई सुविधाएं वापस लेते हुए कहा था कि यह समूह अपनी प्रासंगिकता खो चुका है। याद रहे, इस समूह को संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों पर अमल के लिए भारत और पाकिस्तान की मदद करने के लिए छह दशक पहले तैनात किया गया था।
पाकिस्तान जहाँ एक तरफ कश्मीरियों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने की बात करता है वहीं इस तथ्य को सुविधाजनक रूप से अनदेखा कर देता है कि राज्य की जनता का एक तबका भारत और पाकिस्तान के अलावा तीसरा विकल्प चाहता है। संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावों में जम्मू-कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र बनाए जाने का विकल्प उपलब्ध नहीं है। इसके तहत सिर्फ इस बात की व्यवस्था है कि वहाँ की जनता या तो भारत या फिर पाकिस्तान के साथ मिलने का फैसला कर सकती है। लेकिन जम्मू कश्मीर में अलगाववादियों का एक वर्ग भारत और पाकिस्तान दोनों के खिलाफ है। वह इसे स्वतंत्र राष्ट्र बनाना चाहता है। वह कई दशकों से इसके लिए सशस्त्र और राजनैतिक संघर्ष में भी जुटा है। ऐसे में संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव राज्य के सभी वर्गों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते और उनके साथ न्याय भी नहीं कर सकते। यदि तथाकथित जनमतसंग्रह हो भी जाए तो कश्मीर समस्या का समाधान नहीं हो सकेगा क्योंकि पृथक राष्ट्र बनाने के समर्थकों का आंदोलन फिर भी जारी रहेगा।