स्वार्थी हैं या नाकाबिल तभी लोग कतराते हैं
मनुष्योें में ईश्वर से जिस हिसाब से बुद्धि दी है उसके अनुरूप उसमें बुद्धि के उपयोग का विवेक भी दिया है और दुरुपयोग की सारी संभावनाएं भी उसके लिए भरपूर खुली रखी हैं। यह उस पर निर्भर है कि वह इन बौद्धिक क्षमताओं का उपयोग करे या दुरुपयोग।
हर इंसान अपने लिए उपयोग करना चाहता है भले ही दूसरे लोगों का दुरुपयोग क्यों न करना पड़े। यों तो मनुष्य को सामाजिक प्राणी का दर्जा प्राप्त है इसलिए वह सामाजिकता अपनाने और उसी का व्यवहार करने के लिए बाध्य भी है लेकिन हममें से अधिकांश लोगों के बारे में आम लोगों की यही धारणा है कि हम या तो स्वार्थी हैं या नाकाबिल।
यही हम दूसरों के लिए सोचते हैं लेकिन जहाँ कहीं हमारे काम और स्वार्थ आ जाते हैं वहाँ हम सारी दूरियाँ भुलाकर भी संबंधों को नई-नई तरह-तरह के रंगों वाली चाशनी में घोलते हुए एक-दूसरे को बनाते हुए साथ-साथ चल पड़ते हैं, साथ रह लेते हैं, खा-पी और सो लेते हैं तथा वे उन सारे कर्मों को कर डालने में कोई हिचक नहीं पालते, जो एक आम इंसान कर सकता है।
हमारे रिश्तों की डोर तात्कालिक और मौसमी मजबूती वाली रहती है जो काम निकल जाने के बाद टूट जाती है या ढीली पड़ जाती है। स्वार्थ और काम कराने-करने के इच्छुकों के लिए पूरा जीवन ही इन समीकरणों और समझौतों की भेंट चढ़ा रहता है जहाँ आदमी पेण्डुलम की तरह कभी इस छोर पर माथा मारता है कभी दूसरे छोर पर मत्था टेकता है।
संबंधों के इन सभी गणितीय सूत्रों के बीच एक सबसे बड़ी अहम् बात जो अच्छे लोग महसूस करते हैं वह यह है कि खूब सारे लोग ऎसे हुआ करते हैं जो न कभी हमें याद करते हैं, न हमारे लिए किसी काम के होते हैं लेकिन जब इनका कोई सा काम आ जाए, तो वे बरसों पुराने संबंधों, रिश्तों-नातों, दादों-परदादों और जाने कौन-कौन से पुरातन संबंधों को खोज निकाल कर सामने आ जाते हैं अथवा कोई न कोई संबंध सूत्र ऎसा बता ही देते हैं जिनसे ये हमारा सामीप्य पा लें।
अधिकांश लोगों की फितरत में आजकल यही हो गया है। आदमी दूसरों के लिए या समाज के लिए अपने बूते में आने वाले काम करे या नहीं, लेकिन उसकी अपेक्षा दूसरों से यही रहती है कि और लोग किसी भी तरह के संबंध या गलियों का वास्ता देकर अपने काम कर ही दें।
काफी कुछ लोग अपने काम निकलवाने की हर कला में माहिर होते हैं। ये लोग अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुछ भी कर सकते हैं, कुछ भी करवा सकने के लिए स्वच्छन्द हुआ करते हैं। इनका लक्ष्य कार्यसिद्धि होता है, साधनों या संसाधनों की पवित्रता या अपवित्रता से कभी नहीं।
इन लोगों के लिए अपना सब कुछ कार्यसिद्धि और स्वार्थ सिद्धि के लिए होता है, फिर चाहे जीवन का कोई सा पक्ष क्यों न हो। इसके साथ ही यह भी सिद्ध है कि जो लोग अपने स्वार्थ सिद्ध करने में ही रमे रहते हैं उनके न कोई स्थायी शत्रु होते हैं न स्थायी मित्र।
इनके लिए मित्रता के पैमाने अपने स्वार्थों और समय के अनुरूप सदैव बदला करते हैं और यही कारण है कि ऎसे लोगों के मित्रों में पांच-दस साल से अधिक कोई भी ऎसा पुराना मित्र नहीं होता जो इनके साथ मैत्री में टिका रहे।
संबंधों में स्वार्थ आ जाने पर ये संबंध स्वार्थ पूरे होने तक ही बने रहते हैं इसके बाद समाप्त हो जाते हैं अथवा कोई न कोई पक्ष अपने संबंधों को पूर्ण मानकर समाप्त कर ही लेता है और फिर लग जाया करता है दूसरे स्वार्थों की पूर्ति के लिए नए-नए मित्रों की तलाश में।
आजकल सभी जब यही सब हो रहा है। खूब सारे लोगों का दूसरे लोगों को लेकर अलग-अलग अंदाज होता है। कइयों को शिकायत बनी रहती है कि सामने वाले लोग उनकी ओर ध्यान नहीं देते, आना-जाना नहीं करते और काम नहीं आते।
इसका मूल कारण यही है कि जमाने भर में ऎसे खूब सारे लोग हैं जो अपना काम पड़ने पर ही हमें याद करते हैं और उसके बाद ऎसे भूल जाते हैं जैसे कि हमें जानते तक नहीं हों। लेकिन इन्हीं लोगों का कोई सा स्वार्थ दुबारा आ धमकने पर ऎसा व्यवहार करने लग जाते हैं जैसे कि इनके मुकाबले औदात्य संबंधों का अनुगामी दूसरा कोई हो ही नहीं।
संबंधों की शाश्वतता तभी तक बनी रह सकती है जब तक ये निष्काम और पवित्र हों, कामना और संदेह या अपवित्रता के आ जाने पर संबंधों में खटास का दौर आरंभ होना ही है। संबंधों का एक मनोविज्ञान यह भी है कि स्वार्थ के संबंध ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं हैं और वे समाप्त हो ही जाते हैं। हमारे संपर्क में आने वाले लोगों को हम कुछ दिनों में पहचान जाते हैं और जैसे ही हमें महसूस होता है कि इनमें कहीं कोई स्वार्थ आ गया है तब संबंधों की डोर जीर्ण होने लगती है।
कई बार सामने वालों के स्वार्थ होने के कारण भी हम अपनी ओर से यह समझ कर संबंधों में ढील ले आया करते हैं कि कहीं कोई काम न बता दे। जिन कामों को करना हमारे सामथ्र्य में है, अच्छे काम हों, अच्छे लोगों के लिए हों, उन्हें स्वाभाविक रूप से बिना कोई अपेक्षा रखे सेवा और पुण्य भाव से कर ही लेने चाहिएं लेकिन जहां किसी काम में बेईमानी या भ्रष्टाचार का किसी भी स्तर पर अंदेशा हो, उसमें सावधानियां बरतनी चाहिएं और काजल की कोठरियों से दूर ही रहना चाहिए।
इन सभी चर्चाओं के बीच जहाँ कहीं हमेशा उपेक्षा का बर्ताव नज़र आए, हमें तहेदिल से स्वीकार कर लेना चाहिए कि लोग अब हमें अच्छी तरह समझ गए हैं कि हम या तो अव्वल दर्जे के स्वार्थी हैं अथवा नाकाबिल।
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