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कविता —  25

हे परमेश्वर ! हे सच्चिदानंद !! अनंत स्वरूप !!!
निराकार !ध्यान में आ नहीं सकता तेरा रूप।।

तुम अज, निरंजन और कहे जाते निर्विकार।
हे जगतपिता ! विद्वत जन कहते सर्वाधार।।

सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता ! हे अनादे ! विश्वंभर!
सर्वव्यापी ! ऐसा कहकर गायत्री तेरा करे यजन।।

हे करुणावरूणालय ! सर्वशक्तिमान ! हे निराकार!
न्याय कारी तू ही है भगवन , कैसे पाऊँ तेरा पार ?

समस्त संसार की सत्ता के तुम हो आदि मूल।
हे चेतनों के चेतन ! तुझको  कैसे  जाऊं भूल ?

सर्वज्ञ ! आनंदघन भगवन ! क्लेशापरामृष्ट !
कमनीय स्वरूप तेरा,  पापों को करता नष्ट।।

जाज्वल्यमान तेज तेरा पापियों को है रुलाता।
अपने आराधकों उपासकों को है आनंद दाता।।

अपने उपासकों के तू पाप – संताप को मिटाता।
समझ कृपा का पात्र अपनी चरणों में बिठाता।।

हम आए हैं तेरी शरण में तू  हमें पवित्र प्रेरणा दे।
चरण शरण की शीतल छाया में हमको तू बैठने दे।।

हमें कुमार्ग से हटाकर पथिक सुमार्ग का बनाओ।
हमारी बुद्धि पवित्र कर दो विषय भोग से हटाओ।।

कुव्यसनों से विरक्त कर दो और सत्कार्यों में लगा दो।
प्रभो ! अज्ञान का अंधेरा हमारे हृदय से तुम भगा दो।।

संसार की जितनी भर भी कामनाओं ने मुझको मारा।
उन्हें चित्त से हटा दो,  और मिटा दो पाप – ताप सारा।।

गायत्री के जप और जाप से  बुद्धि में  आती  पवित्रता ।
बुद्धि की निर्मलता से मिलती मनुष्य को  सच्चरित्रता।।

प्रभो ! मन के मैल सारे धोकर हृदय को पवित्र कर दो।
‘राकेश’ की है ये ही विनती प्रभु उज्ज्वल चरित्र कर दो।।

यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’-  से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत

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