लेकिन इस समय इंसान कुछ कर पाने की अवस्था में नहीं होता बल्कि सिर्फ द्रष्टा ही बनकर रहना होता है। यह वह संक्रमण काल होता है जिसमें इंसान को सब कुछ होते हुए भी अपना कुछ भी नहीं होने के सत्य का भान होता है।
इस अवस्था को छोड़ भी दें और अपने जीते जी हम गंभीरता के साथ यह विचार कर लें कि हमारा अपना क्या है। तब हमें इस शाश्वत सत्य से रूबरू होना ही पड़ेगा कि जीवन में जो कुछ है उसमें हमारा कुछ भी नहीं है। जो कुछ है वह बिना किसी स्वामित्व भाव के मात्र उपयोग के लिए ही है और वह भी सब कुछ मर्यादित भाव से।
हम अपने-पराये के भौतिक पक्ष को देखें तो हमें स्पष्ट पता चलेगा कि हमारा अपना कहने को कुछ नहीं है। बहुत कम ही लोग होंगे जिनके लिए पुरुषार्थ की कमाई और ईमानदारी के साथ कमायी गई प्रतिष्ठा का पुण्य प्राप्त होता है और उन्हें अपने दिल में अपने संसाधनों और व्यक्तियों के होने का अहसास होता होगा।
शेष काफी सारे लोग चाहते हुए भी अपने संसाधनों और अपने इर्द-गिर्द जमा लोगों को अपना होने का दावा नहीं कर सकते। हमारे समझदार होने के बाद से लेकर अपनी पूरी जिंदगी में हम अक्सर दूसरों के भरोसे ही जिन्दगी चला लेने के लिए आमादा रहते हैं।
कभी किसी की दया, कृपा तो कभी भीख, कभी रिश्वत, उपहारों में संसाधन और कभी बिना पुरुषार्थ के कुछ न कुछ जमा करते रहने की आदत के मारे। हममें से काफी लोग हैं जो अपनी रोजमर्रा की जिंदगी अच्छी तरह जी पाने में असमर्थ हैं अथवा पूरा सामथ्र्य होने के बावजूद यह चाहते हैं कि हमारे पास जो कुछ है, वह यों ही सुरक्षित होता रहकर अपना भण्डार भरता रहे और हमारे काम-काज तथा खर्चें कहीं न कहीं से निकलते रहें।
चाहे वह औरों को डरा-धमका कर, शोषण से अथवा लोभ-लालच के प्रलोभन से ही क्यों न पूरे होते रहें। कई लोगों का पूरा का पूरा मेहनताना तक यों ही जमा होता रहता है और उनके सारे काम दूसरे लोगों के भरोसे ऎसे होते रहते हैं जैसे कि दूसरे लोग इनकी चाकरी या मुद्रा भण्डार भरने के लिए ही पैदा हुए हैं।
मनुष्य की स्थितियां मनोवैज्ञानिकों के लिए भी हमेशा पहेली रही हैं। जो वस्तु हमें किसी मर्यादित राह से प्राप्त नहीं हो पाती उसे हम उपहार के रूप में प्राप्त कर लिया करते हैं, कभी दान-दक्षिणा और कभी भीख के रूप में। हमारे काम में आने वाले सारे उपकरणों, संसाधनों, कपड़ों-लत्तों, वाहनों, फर्निचर आदि से लेकर तमाम प्रकार के घरेलू और व्यवसायिक संसाधनों और तमाम प्रकार की चीजों को देखें कि इनमें हमारी कमाई से प्राप्त क्या-क्या है, तो हमें अच्छी तरह मालूम हो जाएगा कि इतनी सारी सामग्री को अपनी मानने वाले हम लोग खुद कितने अपने हैं और कितने पराये।
जिनके जीवन में सब कुछ पराया ही पराया हो, उसका खुद का कभी कुछ नहीं हो सकता। ये लोग अपने जीवन में हर पहलू में परायेपन के साथ जीते हैं और परायों का ही सब कुछ इस्तेमाल करते हुए यह लोग कभी न अपने खुद के हो सकते हैं न औरों के।
परायेपन के साथ जीने के आदी लोगों को संसाधनों की दृष्टि से भले ही समृद्ध और सफल माना जाए लेकिन ऎसे लोग किसी के नहीं हो सकते। जीवन में अपनापन चाहें तो परायी वस्तुओं के प्रति लालची नज़रों को छोड़ें और पुरुषार्थ पर भरोसा रखें। जो कुछ करें वह अपनी कमाई से करें, वरना ईश्वर हमसे अपने पुरुषार्थ को इस कदर छीन लेगा कि हममें और भिखारियों में कहीं कोई अंतर नहीं रह जाएगा।
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