ऎसे उदारमना लोग अपने लिए नहीं बल्कि समाज के लिए जीते हैं और इसी में उन्हें खुशी मिलती है। हर आदमी अपने पर खर्च करना चाहता है और उसमें किसी भी प्रकार की कंजूसी नहीं करता। आदमियों की जात दो प्रकार की होती है। एक में वे बहुसंख्य लोग हैं जो मैं और मेरा परिवार तक सीमित हैं और जो कुछ करते हैं वह इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर किया करते हैं।
दूसरे प्रकार में वे लोग शामिल हैं जो अपने स्वार्थ के साथ-साथ सामाजिक गतिविधियों में भी कहीं न कहीं रमे रहते हैं अथवा सभी प्रकार की गतिविधियों में देखे जा सकते हैंं। इनमें भी दो प्रकार के प्राणी होते हैं। एक किस्म उन प्राणियों की है जो अल्प संख्या में पाए जाते हैं। ये लोग बिना किसी आशा, अपेक्षा या लाभों के सामाजिक सरोकाराें और रचनात्मक गतिविधियों में रमे रहते हैं। इनका अपना कोई स्वार्थ नहीं होता है। इस श्रेणी में लोगों की सबसे बड़ी त्रासदी यह होती है कि चालाक और शातिर लोग अपने व्यक्तिगत और व्यवसायिक स्वार्थों के लिए इनका समय-असमय इस्तेमाल कर लिया करते हैं और ऎसे लोगों में से अधिकांश हमेशा अपने आपको ठगा सा महसूस करते हैं।
ऎसे लोगों के लिए आम आदमी जिस शब्द का बड़ी ही सहजता से इस्तेमाल करता है वह है – घर खोये धंधे। ये लोग अपनी कमाई, समय और श्रम आदि को भी लगाकर समाज की सेवा का आनंद पाने में पीछे नहीं रहा करते। इन्हीं मंंे से अधिकांश लोग कर्ज और गरीबी में जीते हैं और बिना कुछ भौतिक संसाधन पाए निर्धनता के साथ ही लौट पड़ते हैं लेकिन इनका अपना आत्म आनंद ऎसा होता है कि जो लखपति और करोड़पति लोग भी इतनी सहजता से प्राप्त नहीं कर पाते। इस आनंद की अपनी कोई सीमा नहीं हुआ करती।
आजकल आदमी को किसी न किसी स्वार्थ से सामाजिक सरोकारों की ज्यादा चिंता सताने लगी है। इन दिनों सामाजिक प्राणी समाज और क्षेत्र में अपनी प्रतिष्ठा के लिए किसी न किसी प्रकार की रचनात्मक गतिविधियों, संस्थाओं और संगठनों से जुड़ कर कहीं न कहीं नाम कमाने लगे हैं।
खूब सारे लोग सच्चे मन और निष्काम भाव से सेवा भी कर रहे हैं, लेकिन काफी लोग सिर्फ नाम के लिए काम करते हैं, कई सारे लोग ऎसे देखे जा सकते हैं जो नाम पिपासु और तस्वीरदर्शी हैं और अपनी दैनंदिनी जिन्दगी का कोई ऎसा अवसर कभी नहीं छोड़ते जहाँ उनकी नाम और तस्वीर की भूख शांत होने का मौका उपलब्ध हो।
इस मकसद को पूरा करने के लिए किस प्रकार से, कैसे और कब मौका तलाशना, समीकरण बिठाना और समन्वय का कमाल दर्शाना इन लोगों के लिए बाँये हाथ का खेल ही है। यों कहें कि लोकेषणा इन लोगों के लिए डायलेसिस से कम नहीं है, तब भी कोई गलत बात नहीं होगी।
अपनी इस इच्छा पूर्ति के लिए ऎसे लोगों को हमेशा मंच और सभी प्रकार के अवसरों की तलाश बनी रहती है। इनके माध्यम से अकथनीय अपरोक्ष लाभ भी होता है, संबंधों के निरन्तर और व्यापक विस्तार का फायदा भी मिलता है और छपास तथा प्रचार-प्रसार की क्षुधा और तृषा की निवृत्ति होती है सो अलग।
इन सभी प्रकार के लोगों के बीच मायावी प्राणियों की ऎसी किस्म की आजकल बहुतायत है जो औरों के मंच और पैसों का अपने हक में भरपूर लाभ लूट लेने की हर तरकीब में माहिर हैं। कई लोग कला, संस्कृति, साहित्य, समाजसेवा, कथा-सत्संग, धर्म चर्चा तथा सामाजिक, सामुदायिक, सांस्कृतिक एवं आँचलिक आयोजनों में अपनी उल्लेखनीय और उच्चस्थ भागीदारी के लिए हमेशा लालायित रहते हैं और दर्शाते ऎसे हैं जैसे कि इनके मुकाबले कोई भी उन विषयों और क्षेत्रों का न तो विशेषज्ञ है और न ही उत्साही प्रवर्तक, प्रचारक, शिक्षक, संवाहक अथवा धर्माचार्य।
ये लोग कला, संस्कृति, संस्कारों, साहित्य, धर्म-कर्म, संगठन, आंचलिक विकास, राष्ट्रवाद, गौसेवा, देशभक्ति, समाजोद्धार, बहुआयामी सेवाव्रत, सभी वर्गों के कल्याण से लेकर दुनिया जहान के तमाम विषयों पर होने वाले रचनात्मक आयोजनों में मुख्य हैसियत, भागीदारी और लाभ चाहते हैं और इसके लिए जाने कैसे-कैसे समीकरण भी बिठा लेने में माहिर हो जाते हैं।
ये लोग अपने आपको इन क्षेत्रों में से किसी एक या एकाधिक विषयों या क्षेत्रों में महान दक्ष होने का दावा करते हैं और हर मंच या कार्यक्रम में किसी न किसी विशिष्ट भूमिका में फबे हुए दिख ही जाते हैं। हर क्षेत्र में ऎसे लोगाें को देखकर यही माना जाता है कि ये लोग न होते तो उन क्षेत्रों का क्या होता, जिनके ये विशेषज्ञ, सदा सर्वदा और सार्वकालिक अतिथि या वक्ता कहे जाते हैं।
ऎसे लोग तकरीबन तमाम क्षेत्रों में होते हैं और कोई सामान्य इंसान भी इनके नाम बड़ी ही आसानी से गिना सकता है। लेकिन ऎसे लोगों के बारे में यह भी साफ तौर पर कहा जाता है कि इनमें से एकाध को छोड़कर कोई ऎसा नहीं होता जो अपनी रुचि के क्षेत्रों में अपनी ओर से एक धेला भी खर्च करने की उदारता रखता हो।
हर क्षेत्र में अक्सर कार्यक्रम होते रहते हैं लेकिन इस किस्म के लोग अतिथि बनने, वक्ता बनकर भाषण झाड़ने, सम्मान, अभिनंदन और पुरस्कार पाने के लिए हमेशा भूखे व तीव्र व्याकुल जरूर बने रहते हैं। इन लोगों को हमेशा उस तरह के मंच और कार्यक्रम की तलाश बनी रहती है जो बिना कुछ किये-धराये मुफतिया प्राप्त हो जाए और दूसरे लोग इनके नौकर-चाकरों की तरह व्यवहार करते रहकर इनकी सेवा में रमे रहें।
ये लोग अपनी रुचि और शौक पूरे करने तथा अपनी लोकेषणाओं को पाने के लिए खुद की ओर से कभी कुछ नहीं करते। ऎसा अक्सर सांस्कृतिक-साहित्यिक क्षेत्रों में तो धडल्ले से होता ही है। इस विधा से जुड़े लोगों का भी दायित्व है कि वे अपने स्तर पर भी कुछ ऎसे आयोजन करें, जिन विषयों के प्रति रुचि हो, उनके लिए कुछ पैसा अपनी ओर से भी लगाएं, खुद आयोजन भी करें और यह दिखा दें कि हम संस्कृति और साहित्य अथवा और किसी भी क्षेत्र की सेवा या संरक्षण-संवद्र्धन के लिए किसी और की ओर ताकने की बजाय खुद भी बहुत कुछ कर सकते हैं।
यह हमारी निष्ठाओं की परीक्षा है जिसमें देखा जाता है कि हम जिन बातों के अनुगामी कहे जाते हैं, जिन क्षेत्रों के सेवाव्रती या संवाहक कहे जाते हैं, उन क्षेत्रों के लिए और इन क्षेत्रों से जुड़े हुए अपने लोगों के लिए खर्च कर पाने में कितनी कंजूसी का त्याग कर पाते हैं। औरों के भरोसे ही न रहें, खुद भी कुछ करें।
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