सियाराम दास त्यागी
इस वैज्ञानिक युग में घोर अवैज्ञानिक मतिभ्रम फेेला हुआ है। तभी तो नास्तिकता, हिंसा स्वार्थ लोलुपता आदि अवगुणों को अधिकाधिक प्रश्रय मिल रहा है। मानवता पथभ्रष्ट हो गयी है। मनुष्य का मस्तिष्क और शरीर दोनों विकृत से प्रतीत हो रहे है। यही कारण है कि विज्ञान के अंधभक्त प्राय: धर्म के नाम से चिढ़ते हैं और विज्ञान का नाम सुनकर धर्म के पैर उखड़ जाते हैं ऐसा कहते हुए भी सुने जाते हैं। यह तो धर्म का उपहास करने वालों का असंगत प्रलाप है। इस धर्मप्राण भारतभूमि में इस प्रकार की उक्ति का उच्चार और व्यवहार दोनों ही अनुचित हैं। इसमें भी संदेह नही किधर्म को प्राण मानने वाली आर्य जाति के कतिपय आचार विचार भी दम्भ में ही घुले प्रतीत होते हैं। उदाहरणार्थ गोभक्ति। परस्पर अभिवादन में जै गोपाल हरिकीर्तन मेंं गोपाल जय जय की ध्वनि हम लोग खूब करते हैं। पर गोपाल की परम प्रेयशी गोमाता की रक्षा तथा उसकी स्थिति में सुधार के लिए कुछ वास्तविक कार्य हमसे नही बन पड़ता। इसे दम्भ ही तो कहा जाएगा। वस्तुत:
धर्मो विश्वस्य जगत: प्रतिष्ठा, लोके धर्मिष्ठ पापमपनुदन्ति धर्मे, सर्व प्रतिष्ठित: तस्माद्घर्म परम वदन्ति।।
यह उपनिषद वाक्य सर्वथा वैज्ञानिक है। इसलिए प्राचीन ऋषियों ने धर्म की सुहढ़ आधार शिला पर ही सनातन आर्य जाति की नींव डाली थी। घोर अंधकारपूर्ण संसार सागर में मार्ग निश्चित करने के लिए धर्म का प्रकाश गृह ही सहायक है औरन् रहेगा।
सत्याधारस्त पस्पैल दयां वर्ति: क्षमा शिखा।
अंधकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्रे न धार्यताम।।
महाभारत कार की यह उक्ति कितनी रहस्यपूर्ण है। किंतु , हाय हिंदू जाति का यह धर्मदीप अद्यावधि निर्वाणोन्मुख प्रतीत हो रहा है। उसके आधार में ही घुन लगा है। तैल, वर्ति और शिखा की तो कथा ही अलग है। गोजाति का भीषण पतन और उसकी रक्षा के प्रति गोभक्तों की किंकर्तव्य विमूढ़ता यहन्ी तो कर रही है।
वस्तुत: गोशब्द से संपूर्ण आर्य संस्कृति का इतिहास अंर्तनिहित है। परंतु इस रहस्य को समझने के लिए हमारा मस्तिष्क कहां समर्थ है? शरीर और मन को पुष्ट करने के लिए गो दुग्ध रसायन तो भारतीयों के लिए दुर्लभ होने लग गया है। फिर आत्मा की पुष्टि की कल्पना कैसे करें। इसके लिए हमें अपने अतीत से शिक्षा ग्रहण करनी होगी। हमारे ऋषियों महऋषियों ने बार-बार यह प्रतिपादित किया है कि गाय इस सृष्टि के लिए परमात्मा द्वारा प्रदत्त अलौकिक प्रसाद है। यह हमें सीधे सीधे द्युलोक अंतरिक्ष से प्राप्त हुआ है। अत: इसका सीधा संबंध अंतरिक्ष स्थित उस परम अलौकिक अनंत लोक से जुड़ा हुआ है। यह उसी अनंक का अंश है। अंतरिक्ष लोक का नाम भीगो है तथा अंतरिक्षलोक में रहने पदार्थों को भी गो कहते हैं।
सोअपि गोरूच्यते। सुषुम्न: सूय्र्यरश्मि चंद्रमा गंधर्व:।
चंद्रमा का नाम गो है। सर्वेअपि गावउच्यन्ते। सब प्रकार की किरणें गो शब्द से बोधित होती हैं। चंद्रमा की किरणों को भी गो कहते हैं। बिजली भी गो-पद से बोधित होती है।
गोरिति पृथिव्या नाधेयं यदस्यां भूतानि गच्छन्ति।
अर्थात गो शब्द पृथ्वी का वाचक है, क्योंकि पृथ्वी स्वयं गातियुक्त है और सब प्राणी इस पृथ्वी पर चलते हैं। इस कारण भूमि को गो कहते हैं। इंद्रियों को नाम भी गो है। शरीर के बाल भी गो कहे जाते हैं। वाणी शब्द, वाक्य एवं वक्तृव्य भी गो पद से बोधित होते हैं, हीरा रजत, सुवर्ण आदि खनिज पदार्थों को भी ‘गो’ कहते हैं। वे गो नाम पृथ्वी से ही उत्पन्न होने के कारण घास, वृक्ष, ावनस्पति आदिद भी गो कहते हैं। दिशासूचक यंत्र भी इसी संबंधी से गो कहा जाता है। जिस तरह गो से उत्पन्न दूध, दही, छाछ, दही, मक्खन आदि सभी पदार्थ गो ही कहते जाते हैं, उसी तरह भूमि रूपी गौ से उत्पन्न सभी पदार्थ भी गो कहलाते हैं गो सब में निहित है, गाय में सब समाहित हैं। अत: वेद उनकी अभ्यर्थना करता है।
आ गावो अम्मत्रुत भद्रमकृन्स्सीदन्तु गोष्ठे रणयन्स्वस्मे
प्रजावती: पुरूरूपा इह स्युरिन्द्राय पूर्वी रूषसो दुकाना।।
गौएं आ गयी हैं और उन्होंने हमारा कल्याण किया है। वे गौएं गौशालाओं में बैठे तथा हमें सुख दें, यहां उत्तम बच्चों से युक्त एवं उनके रूपवाली हो।
वे इंद्र के लिए उष: काल के पूर्व दूध देने वाली बने। इसलिए तो इन्हेें माता कहा गया है व इन्हें सर्वथा अवध्य स्वीकार किया गया है। भारतीय संस्कृति एवं हिंदू धर्म में गौमाता का सर्वोच्च स्थान है। वह सर्वदेवमयी है। सर्व पूज्या है, उसका वध करना व उसे पीड़ा पहुंचाना भी अधर्म कहा गया है। यह हिंदुओं की एक मुख्य विशेषता है कि भले ही सारे संसार के दूसरे लोगों ने गो-मांस को एक खाद्य पदार्थ माना है, हमने गो के शरीर को पवित्र घोषित किया है तथा गौवध को घोर पाप समझकर उसकी निंदा की है। हिंदुओं ने अधिक गहराई से विचार किया है। उनकी दृष्टि इस प्रश्न के आध्यात्मिक पहन्ले की ओर गयी है। यदि ईश्वर की यह इच्छा होती है कि गाय भोजन का अंग बने तो वह गाय के दूध को इतना अमूल्य भोजन विशेषकर बच्चों, बूढ़ों तथा अशक्तों के लिए क्यों बनाता। हमारे ऋषियों ने बहुत गंभीर और लंबे विचार के बाद यहन् पता लगाया कि ईश्वर की जो शक्ति मां के रूप में प्रकट होती है, वही गाय के रूप में भी अभिव्यक्त हुई है। मां का एकमात्र उद्देश्य बच्चे का हित करना है। वह अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में यही सोचती रहती हन्ै कि किस प्रकार से बच्चा स्वस्थ, सुखी और भला बने। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका अस्तित्व ही इसी कार्य के लिए है। इसी प्रकार गाय का अस्तित्व भी मानव जाति के हित के लिए ही है। दूध तथा उसकेे बने हुए पदार्थों द्वारा मनुष्य जाति का अनेक प्रकार से हित होता है, छोटे से छोटे और निर्बल से निर्बल रोगी से लेकर अत्यंत हृदय पुष्ट व्यक्ति तकको दूध के द्वारा बने हुए पदार्थों से सर्वोत्तम पोषण मिल सकता है। गाय अत्यंत सस्ती से सस्ती घास फूस खाकर सर्वोत्तम भोजन प्रदान करती है। उसका शरीर कैसा आश्चर्यजनक यंत्र है। उस परमपिता परमेश्वर की शक्ति कितनी महान तथा कल्याणकारी है। जो ऐसे विलक्षण यंत्र की रचना कर सकता है। क्या अपनी रसानेन्द्रियों की तृप्ति के लिए ऐसे जीवन को मारना अत्यंत घृणित कृतघनता नही है? क्या ईश्वरीय व्यवस्था के प्रति यह अत्यंत अनुचित विद्रोह नही है। अत: आज ही प्रबल आवश्यकता यह है कि वैज्ञानिकता के नाम पर पाश्चात्य की अधार्मिक विचारधारा का अंधानुकरण करन्ना त्याग करन् मानवता के वैश्विक सत्य को समझें और सत्य का ही अनुसरण करें। यही हितकारी है।