अनिल सिंह
उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनावी समर जारी है, लेकिन इस बार का चुनाव कुछ मायनों में पिछली तमाम राजनीतिक लड़ाइयों से अलहदा है। कम से कम अयोध्या आंदोलन के बाद यह पहला चुनाव है, जिसमें 20 फीसदी मुस्लिम आबादी किसी भी दल के एजेंडे में शामिल नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों के मसले पर खुलकर नहीं बोल रहा है। आखिर ऐसा कौन सा कारण है कि राज्य की सवा सौ से ज्यादा सीटों पर प्रभावी मुसलमान वोटर सभी राजनीतिक दलों के लिये अप्रसांगिक बन गया है?
सेक्युलर दल भी अब मुसलमानों के मुद्दे पर बात नहीं कर रहे हैं? कोई दल मुसलमानों के वोटों को लुभाने का प्रयास अपने सियासी मंच से नहीं कर रहा है? क्यों आज उत्तर प्रदेश में किसी भी दल के पास ऐसा कोई बड़ा मुस्लिम चेहरा नहीं है, जिसे मुसलमानों अपना रहनुमा मानकर अपनी हिस्सेदारी मांगें! क्यों नहीं मुसलमानों की कोई मजबूत लीडरशिप उत्तर प्रदेश में नजर आ रही है? क्यों आज मुसलमान चुनावी राजनीति में अलग-थलग पड़ा हुआ है? इस विधानसभा चुनाव में ऐसे बहुतेरे सवाल हैं, जिसके उत्तर की तलाश राज्य की बीस फीसदी आबादी को है।
सांकेतिक फोटो
दरअसल, इन सवालों की तह में जायें तो यह बात स्पषट रूप से सामने आती है कि खुद को सियासी अछूत हो जाने की हद तक पहुंचाने का जिम्मेदार खुद मुसलमान है। आज कई सेक्युलर दलों के मंच पर मुसलमान नेताओं के लिये जगह नहीं है। उत्तर प्रदेश में अगड़ों की लीडरशिप, पिछड़ों की लीडरशिप, अतिपिछड़ों की लीडरशिप और दलितों की लीडरशिप तो नजर आती है, लेकिन आज बीस फीसदी मुलसमानों की लीडरशिप कहीं नजर नहीं आती है। आर्थिक एवं सामजिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के हालात पर कोई दल बात करता नजर नहीं आ रहा है।
सपा, कांग्रेस एवं बसपा जैसे कथित तौर पर सेक्युलर दल भी मुस्लिम हितों पर चुप्पी साधे पड़े हैं, जिनके राजनीति की शुरुआत ही मुसलमानों की बात से होती थी। देश के संसाधनों पर पहला हक बताने वाली कांग्रेस हो या फिर हिंदू कन्याओं को दरकिनार कर केवल मुस्लिम कन्याओं के लिये अलग योजना बनाने वाली समाजवादी पार्टी, आज कोई भी मुसलमानों के हित में योजनाएं चलाने की बात अपनी मंचों से नहीं कह रहा है।
ऐसा इसलिये है कि उसे हिंदू वोटों के नाराज हो जाने का खतरा है। सेक्युलर दल बीते तीन चुनावों में हाशिये पर जाने के बाद हिंदू वोटों को नाराज करने का जोखिम लेने को तैयार नहीं हैं, भले ही उसके लिये उन्हें मुलसमानों को अपने मंच से दूर ही क्यों ना करना पड़े। सेक्युलर दलों को पता है कि मुसलमान जायेगा भी तो कहां जायेगा, लौट के उसे तो वापस उन्हीं के पास आना है चाहे उसकी बात की जाये या उसे दरकिनार ही क्यों ना किया जाये।
जाहिर है, उत्तर प्रदेश में मुसलमान बीते तीन दशक से अपनी बेहतरी, बुनियादी सुविधा, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार या खुद की लीडरशिप बनाने जैसे मुद्दों पर कभी वोट नहीं किया है। उसका वोट केवल उस दल को जाता है, जो भाजपा को हरा सके। भाजपा को हराते हराते यूपी का मुसलमान खुद ही सियासी रूप से हार के कगार पर जा पहुंचा है। आज मुसलमान के पास उसकी अपनी कोई लीडरशिप नहीं है। उनका अपना कोई प्रेसरग्रुप नहीं है। उनकी बदहाली, अशिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार जैसे मुद्दों पर कोई बात नहीं कर रहा है, वो दल भी नहीं जिन्हें उनका एकमुश्त वोट मिलता रहा है।
सेक्युलर दलों को पता है कि मुसलमान हितों की बात नहीं भी की जाये तो उनका वोट तो मिलना ही है, फिर उन वर्गों को नाराज क्यों किया जाये जिनकी मजबूत लीडरशिप है और जिनके अपने प्रेसरग्रुप हैं। बीते तीन दशक में केवल भाजपा को हराने के प्रयास में मुसलमान वोटर राजनीतिक अछूत बन गया है। भाजपा के लिये तो मुसलमान हमेशा से अछूत माना जाता रहा है। भाजपा ने भी मुसलमानों के इस रवैये के चलते कभी उसके वोटों की परवाह नहीं की, लेकिन मुसलमान अब सपा, बसपा और कांग्रेस जैसे सेक्युलर दलों की प्राथमिकता में भी नहीं है। सेक्युलर दलों को पता है कि भाजपा को हराने के लिये उनके दल को वोट देना मुसलमानों की मजबूरी है। यह अलग तथ्य है कि मुसलमानों को भाजपा राज्य में सेक्युलर दलों की अपेक्षा बिना भेदभाव के लाभ मिलता रहा है। आंकड़े भी यही बताते हैं।
दरअसल, बंटवारे के समय ज्यादातर पढ़ा-लिखा और अमीर मुसलमान पाकिस्तान चला गया और जो मध्यम वर्गीय मुसलमान भारत में रह गये, उन्होंने खुद को कांग्रेस के साथ नत्थी कर लिया, जिससे मुसलमानों की कोई लीडरशिप डेवलप नहीं हो पाई। कांग्रेस ने भी मुसलमानों का इस्तेमाल तो भरपूर किया, लेकिन मजबूत लीडरशिप तैयार करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई। मुसलमानों के लिये नारे भी बहुत लगे, लेकिन उन्हें दिया कुछ नहीं गया। मंडल-कमंडल के बाद जब भारत की राजनीति ने नये दौर में प्रवेश किया तब भाजपा ने हिंदुत्व की सियासत पर खुद को केंद्रित किया और मुसलमान ने भाजपा को हराने पर। मुसलमानों की इस मनोदशा का सर्वाधिक लाभ कांग्रेस के बाद सपा और बसपा जैसे क्षेत्रीय दलों ने उठाया। उन्होंने मुसलमानों के वोट तो लिये, लेकिन आर्थिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़े मुसलमानों की दशा में बदलाव के लिये कोई सकारात्मक पहल नहीं की।
इन दलों में जो मुस्लिम लीडरशिप पैदा भी हुई, उन्होंने सकारात्मक राजनीति करने की बजाय केवल उत्तेजक भाषणों की सियासत की। इन भाषणों से मुस्लिम नेताओं को व्यक्तिगत फायदा तो जरूर हुआ, लेकिन इसने मुसलमानों का नुकसान ज्यादा किया। मुसलमानों को भी अपने हक-हुकूक, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मुद्दों की सियासत की बजाय उत्तेजक भाषणों की राजनीति ज्यादा पसंद आई। आजम खान जैसे नेता ने मुस्लिम समाज में सकारात्मक बदलाव की राजनीति करने की बजाय सारी उम्र केवल उत्तेजक भाषणों की सियासत की। अपने परिवार की पीढि़यों को आर्थिक मजबूती देने के लिये यूनिवर्सिटी का निर्माण भी कराया तो पवित्र साधनों का उपयोग करने की बजाय उन्हीं गरीब मुसलमानों के घर कड़कड़ाती ठंड में उजड़वा दिया, जिनके वोटों पर ताकत मिली थी।
आज उत्तर प्रदेश में बीस फीसदी मुसलमानों की लीडरशिप कहीं नहीं है। भाजपा को हराने की कोशिश में मुसलमान कांग्रेस, सपा और बसपा से अपने जिन नेताओं को जिताकर रहनुमाई करने को भेजता है, वह कौम के मुद्दों पर लड़ने की बजाय पॉवर के साथ चला जाता है। वह एक चुनाव किसी दल से और दूसरा चुनाव किसी दल से लड़कर मुसलमानों के वोट तो लेता है, लेकिन उनके मुद्दों पर संघर्ष करने की बजाय उत्तेजक भाषण देकर केवल अपनी दुकान चमकाता है। इस चुनाव में भी हालात ठीक वैसे ही दिख रहे हैं।
मुसलमान अपने हक की बात करने, अपनी लीडरशिप पैदा करने की बजाय केवल भाजपा को हराने की मंशा के साथ तैयार बैठा है। आज भी उसमें अपने लिये बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, सत्ता में उचित भागीदारी की दरकार नजर नहीं आ रही है। बीस फीसदी आबादी होने के बाद भी आज इस वर्ग का वोट किसी को नहीं चाहिए तो फिर इसका जिम्मेदार कौन है? बीस फीसदी आबादी होने के बावजूद अपना कोई प्रेसरग्रुप नहीं है तो इसका जिम्मेदार कौन है? अब मुसलमानों को ही तय करना है कि उसे भाजपा को हराते हराते खुद हाशिये पर पहुंच जाना है या फिर अपने बेहतरी के लिये अपना खुद का सकारात्मक लीडरशिप तैयार करना है।