विशेष संवाददाता
आरएसएस प्रमुख सरसंघ मोहन भागवत ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा करते हुए कहा है कि देश में इस समय भरोसा बढ़ा है। उन्होंने यहां आरएसएस कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि एक वर्ष के पश्चात् फिरसे हम सब विजयादशमी के पुण्यपर्व पर यहां एकत्रित हैं,परंतु इस वर्ष का वातावरण भिन्न है यह अनुभव हम सभी को होता है। भारतीय वैज्ञानिकों के द्
वारा पहिले ही प्रयास में मंगल की कक्षा में यान का सफल प्रवेश करा कर हमारे संबंध में विश्व में गौरव तथा भारतीयों के मन में आत्मविश्वास की वृद्धि में चार चॉंद जोड़ दिये है। मंगल अभियान में जुड़े वैज्ञानिकों का तथा अन्य सभी कार्यकर्ताओं का हम स्रदय से शतशत अभिनंदन करते हैं। वैसे ही दक्षिण कोरिया में चल रहे आशियद खेलों में पदक जीतकर देश का गौरव बढ़ाने वाले सभी खिलाडियों का भी हम अभिनन्दन करते है। यह वर्ष राजराजेंद्र चोल की दिग्विजयी जीवनगाथा का सहस्राब्दी वर्ष है। इस वर्ष पं. दीनदयाल उपाध्याय द्वारा एकात्म मानव दर्शन के आविर्भाव का 50वां वर्ष भी हैं। भारत वर्ष का सामान्य समाज विश्व के तथाकथित प्रगत राष्ट्रों की, सुखसुविधासंपन्न व शिक्षित जनता से बढ़चढ़कर न कहे तो भी बराबरी में, अत्यंत परिपक्व बुद्धि से,देश के भविष्यनिर्माण में अपने प्रजातांत्रिक कर्तव्यों का निर्वाह करता है, इस साक्षात्कार के कारण विश्व के देशों में भारतीय प्रजा के संबंध में प्रकट अथवा अप्रकट गौरव की वृद्धि व हम सब भारतीयों के मन में धैर्य, उत्साह और आत्मविश्वास की वृद्धि दिखाई दे रही है। देश के बाहर बसे भारतीय मूल के निवासी भारत के प्रति जो उत्साह और संकल्प का प्रदर्शन कर रहे है,वह भी भविष्य के गौरवशाली व वैभवशाली भारत के लिये एक शुभसंकेत देता है।
परंतु हम सब को यह भी समझना और समझकर चलना होगा कि जगत में सुख, शांति व सामंजस्य के आधार पर चलनेवाली नई व्यवस्था का स्वयं उदाहरण बनकर चलनेवाला विश्वगुरू भारतवर्ष बनाने के अभियान का यह मात्र एक छोटासा पदक्षेप है। अभी बहुत कुछ करना, गन्तव्य की दिशा में सतत व लंबा मार्गक्रमण शेष है। दुनिया व देश की परिस्थिति को गौर से देखेंगे तो यह बात किसी के भी ध्यान में आ सकती है। सृष्टि में व्याप्त स्वाभाविक विविधता को प्रेम व सम्मान के साथ स्वीकार करना, प्रति के साथ व परस्पर व्यवहार में समन्वय, सहयोग तथा परस्पर सह संवेदना व संवाद के आधारपर चलना तथा विचारों, मतों व आचरण में एकांतिक कट्टरपन व हिंसा को छोड़कर अहिंसा व वैधानिक मध्यममार्ग का पालन करना,इसी से संपूर्ण विश्व की मानवता को सुखशांतिपूर्ण सुंदर जीवन का लाभ होगा; इस सत्य का बौद्धिक प्रबोधन तो विश्व के ज्ञात इतिहास के प्रारंभ काल से होता आ रहा है; पर्याप्त मात्रा में हुआ है। सब बुद्धि से इसको जानते है। परंतु नित्य भाषणों, प्रवचनों, उपदेशों में सुनाई देने वाले उदात्त,उन्नत व सुखहितकारक तत्वों के मंडन के पीछे सुसंगत आचरण नहीं है। परस्पर व्यवहार में व्यक्तियों से लेकर तो राष्ट्रों तक के आचरण में व नीतियों में दंभ, अहंकार, स्वार्थ, कट्टर संकुचितता आदि का ही वर्चस्व दिखाई देता है। इसी के चलते हम यह देख रहे है कि आधुनिक मानवजाति जानकारी, शास्त्रज्ञान, तंत्रज्ञान व सुखसुविधाओं में पहले से कहीं अधिक प्रगत होने के बाद भी, विश्व के जीवन में से दुख, कष्ट, शोक आदि का संपूर्ण निवारण करने के सब प्रकार के प्रयोग गत दो हजार वर्षों में कर लेने के बाद में भी वहीं समस्याएँ बार-बार खड़ी हो रही है तथा मनुष्य की इस तथाकथित प्रगति ने कुछ नई दुल्र्लंध्य समस्याएँ और खड़ी कर दी हैं।
इसलिये हम देख रहे हैं कि पर्यावरण विषय की चर्चा जगत में सर्वत्र गत कई दशकों से चल रही है,फिर भी प्रत्येक बीतता दिन पर्यावरण के क्षरण को और एक कदम निकट लाता हुआ सिद्ध हो रहा है। विश्व में पर्यावरण क्षरण के कारण नित नई व विचित्र प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ रहा है, फिर भी प्रचलित विकासपथ के पुनर्विचार में राष्ट्रों की व बड़े-बड़े बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों में शब्दों के परिवर्तन व ऊपरी मलमपट्टीयों के अतिरिक्त चिंतन में कोई मूलभूत परिवर्तन दिखाई देता नहीं। सारी करनी के पीछे वहीं पुरानी, एकांतिक जड़वादी, उपभोगाधारित व स्वार्थप्रेरित विचारधारा प्रच्छन्न या प्रकट रूप से काम करती हुई दिखती है। इन्हीं एकांतिक सामूहिक स्वार्थों के कारण शोषण, दमन, हिंसा व कट्टरता का जन्म होता है। ऐसे ही स्वार्थों के चलते मध्यपूर्व में पश्चिमी देशों के जो क्रियाकलाप चले उसमें से कट्टरतावाद का नया अवतार इसिस के रूप में सारी दुनिया को आतंकित कर रहा है।
ऐसा करना चाहनेवालों को स्वयं के अंदर से स्वार्थ,भय,निपट भौतिक जड़वादिता को संपूर्ण समाप्त कर एक साथ सबके सुख का विचार करने वाली एकात्म व समग्र दृष्टि अपनानी पड़ेगी। जागतिकीकरण के नाम पर केवल अपने समूह के आर्थिक स्वार्थों को सरसाना चाहने वाले, परस्पर शांति प्रस्थापना की भाषा की आड़ में अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहने वाले अथवा नि:शस्त्रीकरण के नाम पर दूसरे देशों को स्वयं की अपेक्षा सदैव बलहीन बनाकर रखने की चेष्टा करने वाले, सुखी-सुंदर दुनिया के स्वप्न को न कभी साकार करना चाहेंगे और न करेंगे।
विश्व के गत हजार वर्षों के इतिहास में सत्य व अहिंसा के आधारपर इस दिशा में किये गये प्रामाणिक प्रयासों का उदाहरण केवल भारतवर्ष का है। अत्यंत प्राचीन काल से इस क्षण तक हिमालय और उसकी दोनों ओर की जुड़ी हुई पर्वत शृखंलाओं से सागर पर्यन्त विस्तार के अंदर जो सनातन अक्षुण्ण राष्ट्रीय विचार प्रवाह चल रहा है तथा जिसे आज हिन्दुत्व के नाम से जाना जाता है उसकी यह विशेषता है कि भाषा, भू प्रदेश, पंथ-संप्रदाय, जाति-उपजाति, खान-पान, रीति-रिवाज आदि की सब स्वाभाविक विविधताओं को वह सम्मानपूर्वक स्वीकार करता है तथा साथ जोड़कर संपूर्ण विश्व के कल्याण में चलाता है। यहां जीवन के सत्य के बारे में अन्वेषण,अनुभव तथा निष्कर्ष की संपूर्ण स्वतंत्रता है। न किसी की भिन्न श्रद्धा को लेकर विवाद खड़े किये जाते है,न मूर्तिभंजक अभियान चलते है,न किसी पोथीबंद व्यवस्था के आधारपर श्रद्धा की व श्रद्धास्पदता की वैधता का निर्णय करने का प्रचलन इस परंपरा में है। बौद्धिक स्तर पर मतचर्चा का मुक्त शास्त्रार्थ चलते हुए भी व्यावहारिक स्तर पर श्रद्धा की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए समन्वय व सामंजस्य से एक समाज के नाते चलना यह हिंदू संस्कृति का परिचायक लक्षण है। प्राचीन काल से ”वसुधैव कुटुम्बकम” की आत्मीय दृष्टि को लेकर यहॉं से ॠषि, मुनि, भिक्खु, श्रमण,संत, विद्वान शास्त्रज्ञ मैक्सिको से लेकर साइबेरिया तक फैले जगत के भूभाग में गये। बिना किसी साम्राज्य को विजित किये,बिना कहीं की किसी भिन्न जीवन पद्धति को,पूजा पद्धति को,राष्ट्रीय अथवा सांस्तिक पहचान को नष्ट किये,प्रेम से उन्होंने वहॉं आत्मीयता के सूत्र को,सुमंगल और सृष्टि कल्याण की भावना को प्रतिष्ठित किया। वहॉं के जीवन को अधिक उन्नत,ज्ञानवान,संपन्न किया। आधुनिक काल में भी हमारे जगतवन्द्य विभूतियों से लेकर तो सामान्य आप्रवासी भारतीयों का यही व्यवहार रहा है,यही कीर्ति है। दुनियाभर के चिन्तकों को,समाजों को इसीलिये भारत के भविष्य में अपने लिये और जगत् के लिये एक सुखद आशा का दर्शन होता है।