कविता – 22
धर्म पुजारी है प्रेम का ……
मजहब कारण विनाश का बात बांध लो गांठ।
धर्म प्रतीक विकास का दे मानवता का पाठ।।1।।
धर्म की दृष्टि दिव्य है दिव्य धर्म का तेज।
मनुष्यता बिना धर्म के हो जाती निस्तेज।।2।।
मजहबी अपराध से भरा पड़ा इतिहास।
दानवता बनकर किया मानवता का नाश।।3।।
मजहबी चिंतन से बने दूषित सर्व समाज।
रोग – शोक में डूब कर मिट जाते हैं राज।।4।।
व्यापक दृष्टि धर्म की मजहब की है तंग ।
प्रेम का दाता धर्म है मजहब से सब तंग।। 5।।
त्याग दीजिए नीचता धर्म करो स्वीकार ।
कर्तव्य भाव अपनाइए करेगा भव से पार।।6।।
मजहब मगन विनाश में करता सब से बैर।
धर्म पुजारी है प्रेम का मांगे सबकी खैर।।7।।
मजहबी भयानक भूत ने दूषित कर दिया भूत।
वर्तमान भी है दुखी , भविष्य की जाने ‘भूप’ ।।8।।
मजहब के उन्माद से दुनिया है भयभीत ।
धर्म को ही खोजती जो करता सबसे प्रीत।।9।।
सत्य अहिंसा प्रेम का करो नित्य व्यापार।
मजहबी भाव मिटाइये, करता नरसंहार।।10।।
‘एक’ हमारा देवता, ‘एक’ ही सिरजनहार।
धर्म हमारा ‘एक’ है मजहब है बेकार।।11।।
धर्म मनुष्य की चेतना ,घट – घट करता वास।
हिय हिय को जोड़ता, करे दुष्टजनों का नाश ।।12।।
राजनीति का धर्म है न्यायशील व्यवहार ।
मति भंग मजहब करे अनरथ की भरमार ।।13।।
वह मानव मानव है नहीं जो मजहब से ले सीख।
मानव उसी को मानिए, जो धर्म से मांगे भीख।।14।।
राजनीति वेश्या बनी राष्ट्रधर्म गए भूल ।
राष्ट्रनीति बिसरा दई हो गयी मूल में भूल ।।15।।
हों हिंसक दंगे देश में, सब मजहब का खेल।
आग लगा लेता मजा , पर धर्म को लगती ठेस।।16।।
मठाधीश प्रसन्न हों , जब मजहब करे उत्पात।
सत्ताधीश भी सेंकते , आग पर दोनों हाथ ।।17।।
धर्माधीश धर्म से दूर हैं , सत्ताधीश हुए मौन।
मठाधीश भंग से चूर हैं, उन्हें जगाए कौन ।।18।।
धर्म की हानि जो करे, धर्म मिटा दे वंश।
धर्म के पथ पर जो चले, धर्म बढ़ा दे वंश।।19।।
सांप्रदायिक संकीर्णता, है मजहब का मूल।
देश धर्म जाएं भाड़ में , बिखराता है शूल ।। 20।।
निर्लज्ज सियासत हो गई धर्म से हो गई हीन।
चीरहरण में लिप्त है , हो करके मति हीन ।।21।।
‘राकेश’ धर्म का देवता , शीतल करे व्यवहार।
जो जन धर्म की मानते , उन्हें धर्म लगाता पार।।22।।
यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत