हमारे पूरे जीवन में हरेक कर्म के लिए मर्यादाओं का पालन अनिवार्य बताया गया है और स्पष्ट किया गया है कि जीवन को अनुशासित और मर्यादित रखते हुए यदि जीवन निर्वाह किया जाए तो दैहिक, दैविक और भौतिक संतापों और तमाम समस्याओं से बचा रह कर जीवन का आनंद पाया जा सकता है।
इन्हीं मर्यादाओंं में खाद्य और पेय के बारे में भी साफ-साफ कहा गया है कि खान-पान हमेशा एकान्त में औरों की दृष्टि से बचाकर करना चाहिए। यह विधान सदियों से चला आ रहा है लेकिन हम अब इस मर्यादा को तोड़ते जा रहे हैं और इसी हिसाब से बीमारियों और समस्याओं को आमंत्रित करते जा रहे हैं।
हमारी आज की काफी कुछ समस्याओं का मूल कारण खान-पान में मर्यादाहीनता है और यही कारण है कि हम जो कुछ भी खा-पी रहे हैं उसका कोई खास प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क और शरीर पर दिखाई नहीं दे रहा है, सिवाय कहीं थुलथुल और बेड़ौल हो जाने के अथवा कहीं अत्यधिक कृशकाय या मरियल होने के।
हम जो कुछ भी खाते-पीते हैं उसे औरों की नज़र से बचा कर रखना चाहिए। यह नज़र न केवल बाहरी इंसानों की हो सकती है बल्कि जानवरों और अन्तरिक्षचरों और भूत-प्रेतों तक की भी हो सकती है। आज का विज्ञान भले ही इस तथ्य को न माने लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सोचा जाए तो यह मानना ही पड़ेगा कि भोजन साफ-सुथरे स्थान पर किया जाए, मौन रहा जाए, और पवित्र भाव से किया जाए ताकि भोजन ग्रहण के उपरान्त भी अन्न-जल में विद्यमान शुचिता बनी रहे और शरीर के लिए लाभकारी रहे।
आमतौर पर जब हम भोजन या कुछ पेय ग्रहण करते हैं तब यह स्वाभाविक ही है कि कुछ भूखे और प्यासे लोग हमें देख रहे हों जो धनाभाव या और किसी समस्या के कारण भोजन ग्रहण न कर पाने की विवशता में हों। भोजन और पेय ऎसे कारक हैं जो सामने दिखते हैं तब देखने वालों को भी तलब आ जाती है और जी ललचाता ही है चाहे वह भिखारी से भिखारी हो या कोई राजा।
इस मामले में हम दो अवस्थाओं को देखें। कल्पना करें कि पहली स्थिति वह है जिसमें हमारी जेबें भरी हुई हैं और कहीं किसी पार्टी से जमकर खाना-पीना करके आ रहे हैं, पूरा पेट भरा हुआ है लेकिन सिर्फ चाय पीने की इच्छा से किसी होटल में पहुंचे हैं। वहाँ हमारी टेबल के सामने कोई व्यक्ति कितने सारे पकवानों के साथ लजीज खाना खा रहा होता है लेकिन हमें उसे देखकर खाने की तनिक इच्छा नहीं होती, बल्कि कुछ अजीब सा ही लगता है।
दूसरी स्थिति में हमारी जेब खाली है, सिर्फ दस-बारह रुपए ही हैं। विवशता यह कि इच्छा तो खाने की है पर जेब में उतने पैसे नहीं हैं। ऎसे में सिर्फ चाय पीकर ही दिन निकालने की विवशता है। इसी समय हमारे सामने वाली टेबल पर कोई व्यक्ति सामान्य भोजन भी कर रहा होता है, तब हमारे मन में खाना मिल जाने की तीव्र इच्छा उठती है।
दोनों ही प्रकार की स्थिति में दोनों ही पक्षों को दृष्टिदोष लगना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार हम कहीं किसी होटल के अंदर या बाहर खाना खा रहे हों, कुछ पी रहे हों, भेल-पुड़ी, छोले-भटूरे, पानी-पताशे या पाव भाजी खा रहे हों और हमारे आस-पास भूखे या भिखारी मण्डरा रहें हों, टुकर-टुकर कर देख रहे हों, उनकी निगाहें हमारे खान-पान की ओर लगी हों, तब भी दृष्टि दोष उस खाद्य या पेय पदार्थ पर लगेगा ही और उसकी मौलिकता, स्वाद, पवित्रता आदि सभी पर कोई न कोई बुरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रह सकता।
इसी दृष्टिदोष का प्रभाव हमारे अन्न और जल में समाहित होकर शरीर में जाता है तथा इसका पाचन होने के बाद मन तक पहुंचने की सारी प्रक्रिया तक दूषित प्रभाव बना रहता है। इससे कई मानसिक और शारीरिक बीमारियां पैदा होती हैं और जीवन के सभी पक्षों पर बुरा असर पड़ता ही है।
खान-पान की सामग्री भी इस प्रकार ढकी हुई होनी चाहिए कि और किसी को यह पता ही नहीं लग पाए कि इसमें खाने-पीने का सामान है। खान-पान की कोई सी सामग्री हो, भोजन, नाश्ता या और कुछ हो, इसे हमेशा अपारदर्शी आवरण में इस प्रकार लाया-ले जाना चाहिए कि इसे देखने पर किसी को पता नहीं चल पाए कि इसमें ऎसी सामग्री है जो खाने-पीने की हो सकती है।
इसी प्रकार बहुत सारे लोग कार्यस्थलों पर पानी की बोतलें और टिफिन साथ लेकर जाते हैं और इसे देखने वालों में काफी लोग ऎसे हो सकते हैं जो इन चीजाें के आशार्थी हों या वंचित रहते हों। ऎसे में टिफिन और पानी की बोतलों पर भी दृष्टिदोष पड़ना स्वाभाविक है।
यह दृष्टिदोष अभावग्रस्तों और भूखे-प्यासों की ललक या तलब तीव्रता के अनुपात में न्यूनाधिक हो सकता है लेकिन प्रभाव जरूर पड़ता है। इससे होता यह है कि हमारा खान-पान दृष्टिदोष के नकारात्मक प्रभावों से घिर जाता है और इस भोजन या पानी में सारहीनता आ जाती है।
यह स्थूल रूप में भोजन या पेय पदार्थ दिखता जरूर है लेकिन इसमें से मौलिकता और दिव्य तत्व गायब हो जाते हैं। इस प्रकार के भोजन-पानी का शरीर पर कोई स्वास्थ्यवर्धक प्रभाव नहीं पड़ता। इसी प्रकार जहाँ कहीं पानी पीयें, भोजन करें उस पर कुत्ते, साँप और मुर्गे की नज़र भी नहीं पड़नी चाहिए। इससे भोजन का स्थूल रूप भले हम ग्रहण करते रहते हैं मगर भोजन का सार तत्व विशेष प्रकार की दृष्टिकर्षण शक्ति से ये जानवर प्राप्त कर लिया करते हैं और हमें उसका कोई फल प्राप्त नहीं होता।
हो सकता है विज्ञान के प्रभावों से प्रभावित और नास्तिक लोग इस बात को अन्यथा लें, मगर भारतीय संस्कृति और परंपराओं में स्पष्ट उल्लेख है कि भोजन और भजन एकान्त में होना चाहिए, मौन होकर होना चाहिए तथा ऎसी जगह होना चाहिए जहाँ किन्हीं बाहरी लोगों की नज़र न पड़े।
आजकल शादी-ब्याहों और विभिन्न प्रकार के सामूहिक भोजन के अवसरों पर भीतर माल उड़ता रहता है और बाहर भिखारियों और भूखों का रेला। कई बड़े-बड़े यज्ञों और अनुष्ठानों में भी भीतर पंगतें चलती रहती हैं और बाहर भिखारियों और भूखे लोगों का हूजूम उमड़ता रहता है। ऎसे सामूहिक भोजन का कोई पुण्य प्राप्त नहीं होता।
जिस स्थान पर सामूहिक भोजन हो, वहाँ एक भी इंसान भूखा रह जाए, तो सारा पुण्य समाप्त हो जाता है। इसलिए ऎसे अवसरों पर उन लोगों का पहले ध्यान रखें जो भूखे हैं। इसका सामथ्र्य न हो तो सामूहिक भोजन और पार्टियाँ ऎसे एकान्त स्थानों पर हों जहाँ भिखारियों और भूखों का आवागमन न हो सके। इसी प्रकार भोजन निर्माण भी एकान्त में ही होना चाहिए।
कुल मिलाकर बात यह कि भोजन और पेय से संबंधित तमाम प्रकार की क्रियाएं एकान्त में हों, किसी की दृष्टि उन पर न पड़े, तभी हमारे भोजन के तत्व सुरक्षित रहते हुए हमारे लिए पौष्टिक हो सकते हैं, अन्यथा हमारा जो भी खाना-पीना हो रहा है उसका कोई अर्थ नहीं है। यही कारण है कि हम विभिन्न समस्याओं से घिरते जा रहे हैं।