स्वामी ओमानन्द सरस्वती
भारत के पतनकाल के समय आज से दो सो वर्ष पूर्व भी हरयाणा स्वर्ग के समान ही था । इसकी वैदिकसंस्कृति ज्यों की त्यों अविकृतरूप में थी । केवल पौराणिक प्रभाव के कारण तीर्थ , मूर्तिपूजादि का प्रचलन होगया था । वही अश्वपति के काल का पवित्र चरित्र , शुद्ध , सात्त्विक , निरामिषभोजन , साधुमहात्माओं का सत्संग तथा उनके प्रति श्रद्धा , प्राचीन पंचायत के अनुसार सामाजिक व्यवस्था तथा क्षात्रधर्म की प्रवृत्ति का सूचक हाथ में आधुनिक शस्त्र डण्डा अर्थात् सभी प्रकार से वैदिक वर्णाश्रम धर्म का पालन करने में सारा हरयाणा संलग्न था ।
हरयाणवी संस्कृति ने यहां के जनमानस में एक निश्छल सरलता और अनेक कमनीय मर्यादाओं को संजोया है । समाज में रहते हुए किस व्यक्ति को कैसे रहना चाहिये इसकी सीख देना यहां की संस्कृति की एक अनोखी और आदर्श देन है । इसका एक छोटा किन्तु सारगर्भित उदाहरण है , यहीं की एक लोकोक्ति
” बाप के घर बेटी गुदड़ लपेटी । ” अर्थात् पिता के घर रहते हुए लड़की को अत्यन्त सादगी से रहना चाहिये , साधारण कपड़े धारण करने चाहियें । शृंगार करना तो दूर रहा , शृंगार करने की बात भी मन में नहीं आनी चाहिये । क्योंकि ‘ शृंगार व्यभिचार का दूत और सादगी सदाचार की जननी है । ‘ इसलिये सदाचार की रक्षा हेतु पिता के घर पुत्री का सादगी से रहना परमावश्यक है ।
इसी से सम्बन्धित यहां प्रचलित दूसरी लोकोक्ति है- “ तगड़ तोड़ बनिया की छोरी । ” अर्थात् जो व्यक्ति सदाचार से नहीं रहता वह महानिर्बल और नितांत गया बीता है । हरयाणा के लोकमानस में सदाचार का बहुत बड़ा महत्त्व है । यहां के ‘ निवासी जानते हैं कि कोई भी सुकर्म सदाचार के बिना नहीं होसकता । इसी बात को मनु महाराज ने इस प्रकार कहा है- ” अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते । ”
हरयाणवी मान्यताओं में सदाचार की कसौटी शारीरिक और मानसिक स्वस्थता को माना गया है । यही कारण है कि स्वास्थ्यरक्षा के लिये यहां भोजन को भी प्रधानता दी जाती रही है । शक्तिदायक भोजन के प्रति यहां लोगों की कितनी अधिक अभिरुचि है , इसको जानने के लिये यहां एक लोकोक्ति को उद्धृत करना उपयुक्त होगा । लोकोक्ति
जाड़ा लागै पाला लागै खीचड़ी निवाई ।
सेर घी घाल कै लप लप खाई ।।
अर्थात् जाड़ा गर्मी आदि सभी प्राकृतिकद्वन्द्वों से बचने का एकमात्र उपाय है- बलिष्ठ भोजन ।
निरन्तर दो सहस्रवर्षों तक विदेशी आक्रमणकारियों के साथ युद्ध करते रहने से इस प्रांतवालों का पठन – पाठन तो समाप्त होगया । सामाजिकव्यवस्था में भी कुछ गड़बड़ हुई किन्तु दिल्ली – आगरा में निरन्तर मुस्लिम बादशाहों की राजधानी होने के कारण धर्म और संस्कृति को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिये भयंकर अत्याचार भी हरयाणे को सहने पड़े । किन्तु दिल्ली के चारों ओर वही चोटी , तगड़ी और ब्राह्मणों के जनेऊ आज तक विद्यमान हैं । क्षत्रिय और वैश्यों को ब्राह्मणों ने पढ़ाना तथा यज्ञोपवीत देना बन्द कर दिया । क्योंकि निरन्तर दीर्घकाल तक युद्ध में चलते रहने से ब्राह्मणों का भी पढ़ना – लिखना बन्द होगया था । स्वयं अनपढ़ वे लोग अपने यजमानों को कैसे पढ़ाते और विद्या का चिह्न यज्ञोपवीत अपने क्षत्रियादि यजमानों को कैसे देते । फिर भी अपनी योग्यतानुसार कथा वार्ता के द्वारा धर्मशिक्षा देते ही रहते थे । हरयाणे में अनेक साधु सन्त हुए हैं जो धर्मप्रचार करके वैदिकसंस्कृति को हरयाणे में जीवित रखते रहे । जिनमें निश्चलदास , गरीबदास , नित्यानन्द , चेतरामदास , मस्तनाथ तथा बाबा गोरखनाथ बहुत प्रसिद्ध हुए हैं । नाथ सम्प्रदाय के , जो शैवमत का ही प्रचारक है , छोटे – बड़े मठ तो सैंकड़ों की संख्या में हरयाणे में आज भी प्रत्येक तड़ाग पर तथा प्रत्येक ग्राम के बाहर किसी न किसी साधु का डेरा अब भी देखने में आते हैं ।
हरयाणे के प्रत्येक ग्राम में शिवालय बने हुए हैं , जो प्रमाणित करते हैं कि सारा हरयाणा आरम्भ से आज तक शैवसम्प्रदाय अथवा शिवजी से विशेष स्नेह रखता है । कहीं कहीं इस प्रांत का नाम शिवप्रदेश भी मिलता है । इन बातों से सिद्ध होता है कि इस प्रांत का नाम हरयाणा ही है , हरियाना नहीं । वैसे विष्णु वा कृष्ण के मन्दिर बहुत ही न्यून हैं । कहीं ढूंढने से एकाध मिलेगा । वैसे हिन्दुओं का स्वभाव है कि वे सभी देवताओं की मूर्तियों को सिर माथा देते हैं । इसी कारण महात्मा बुद्ध की मूर्ति भी हमें कहीं कहीं से प्राप्त हुई हैं । जैसे सांघी ग्राम से महात्मा बुद्ध की एक प्रस्तर – मूर्ति हमें मिली है । किन्तु स्वामी शंकराचार्य के प्रभाव से हरयाणे से बौद्ध धर्म प्रभाव , जो थोड़ा बहुत हुआ था , समूल नष्ट होगया । हरयाणे के लोग क्षत्रिय प्रकृति के हैं , वे इसे कैसे पसन्द करते । यहां पर वैदिक संस्कृति का प्रभाव आदिकाल से आज तक रहा है।
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