निर्भर न रहें
निर्भरता ऎसा शब्द है जो हमारी कमजोरियों और अशक्तता का प्रकटीकरण करता है। अक्सर लोग सोचते हैं कि दूसरों के बिना कोई काम कैसे चल सकता है या कि औरों का सहयोग न लिया जाए तो कोई अपने जीवन में कैसे सफल हो सकता है।
हमारी इसी संकीर्ण और आत्महीन सोच ने हमारी शक्तियों और इंसानी सामथ्र्य पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न लगा कर हमें सुप्तावस्था में धकेल दिया है जहाँ हम सब कुछ शक्ति होते हुए भी परायों पर निर्भर हैं और उन्हीं के भरोसे जीवन को चलाने के लिए विवश हो गए हैं।
ईश्वर ने इंसान को सभी प्रकार की शक्तियों के साथ पैदा किया है और हर इंसान के पास उतना पर्याप्त मौलिक सामथ्र्य होता ही है कि जिसके बूते वह अपने दम पर कुछ भी कर सकता है। यह अलग बात है कि हममें से अधिकांश लोग ईश्वर प्रदत्त मौलिक क्षमताओं को या तो जानते नहीं अथवा हमारी दृष्टि इतनी बहिर्मुखी हो गई है कि हमें भीतर खाली और खोखलापन नज़र आता है और बाहर सब कुछ हरा-भरा।
बौद्धिक और शारीरिक बल में इंसान का कोई मुकाबला नहीं होता, वह पूरी सृष्टि में ऎसे-ऎसे काम कर सकता है जो बीते जमाने में न हुए हों। बात सकारात्मक कामों की हो या नकारात्मक, हमारी दिशा और दृष्टि का ही खेल है यह सारा जगत।
हमारे पास तमाम प्रकार की क्षमताएं होने के बावजूद हम कई मामलों में या पूरी तरह दूसरों पर निर्भर रहने के आदी हो गए हैं और यही कारण है कि संप्रभु और स्वतंत्र अस्तित्व होने के बावजूद हम लोग चंद बाड़ों और चंद लोगों में कैद होकर रह गए हैं जहाँ हमें सुकून मिलता है।
वैश्विक पहचान बनाने वाले इंसान का दुर्भाग्य यही है कि वह पूरी दुनिया का सुकून और आनंद छोड़कर उन लोगों के पीछे पागल हो रहा है जिन्हें ईश्वर पागल समझता है। उन बाड़ों को अपना मानने लगा है जो ढुलमुल, अंधेरों भरे और अनित्य हैं।
चंद लोग भेष बदल-बदल कर मदारियों की तरह आते हैं, जहरीले और पालतु दोनों किस्मों के जानवर साथ लाकर करतब दिखाते हैं, जमूरों की फौज वाह-वाह करती हुई अपने फन दर्शाती है और ये लोग कहीं भी किसी सार्वजनिक स्थान पर मजमा लगाकर बैठ जाते हैं या जड़ी-बूटियां बेचने वालों की तरह तम्बू लगाकर बैठ जाते हैं। फिर इनकी लुभावती हरकतों पर भीड़ उमड़ने लगती है और बाद में ये चादर फैला कर माँगने लग जाते हैं।
तकरीबन ऎसा ही आजकल हो रहा है सभी जगह। मदारियों का कुंभ जुटा हुआ है देश भर में। तरह-तरह के जादूगरों और मदारियों के चक्कर चल रहे हैं और हम लोग हैं कि तालियां बजाकर, अपने आप को लुटा कर भी मदारियों और करतबियों को खुश रखने में जतन में इस एक मात्र आशा में जुटे रहते हैं कि आखिर कभी तो काम आएंगे ये और उनके करतब। इन मदारियों को पता है कि हम किन-किन तरह की लालच से खुश होते हैं।
इंसान के बारे में यह कहा जाए कि जैसे-जैसे वह संसार को जानने लगता है कि वैसे-वैसे स्वार्थी , खुदगर्ज, लोभी और लालची स्वभाव को अपना लेता है। कि सांसारिक ऎषणाओं से घिरा इंसान दुनिया से और कुछ भले ग्रहण न कर पाए लेकिन जानवरों के उन तमाम स्वभावों और आदतों को वह अंगीकार कर लेता है जो बुरी कही जाती हैं, अच्छी आदतों से उसका वास्ता टूट सा जाता है। तभी आदमी की हरकतों को देख कर उसे किसी न किसी जानवर के नाम के साथ जोड़कर देखा जाने लगता है।
अपने काम निकलवाने के लिए अब आदमी मर्यादाओं और अनुशासन को साथ नहीं रखता। उसका एकमेव लक्ष्य यही होकर रह गया है कि काम कैसे निकले। अपने काम निकालने और निकलवाने के फेर में इंसान उन सभी बातों को अंगीकार कर लिया करता है जो इंसानियत की श्रेणी में कभी नहीं मानी गई। हमारे लिए साध्य महत्वपूर्ण हो गए हैं, साधन नहीं।
जिन कामों को लेकर हम दूसरों पर निर्भर रहा करते हैं उन्हें यदि खुद करने की आदत डाल लें तो हमारा जीवन कई मामलों में आसान तो हो ही जाए, हमारी मान-मर्यादा, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान भी भरपूर बना रह सकता है।
निर्भरता की बुरी आदत ने उन लोगों को अहंकारी, निर्दयी, अनाचारी और शोषक बना डाला है जो लोग किसी मायने में इंसान होने के काबिल नहीं कहे जा सकते। और एक हम हैं कि इन्हीं लोगों के पाँव पखारने और उनकी हरसंभव सेवा के लिए उनके समक्ष भिखारियों की तरह रोना रोते रहने लगे हैं। इसी निर्भरता ने हमारे भीतर के उन सभी बीज तत्वों को नष्ट कर दिया जिनसे इंसानियत का अस्तित्व माना जाता रहा है।
हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि औरों पर निर्भरता की वजह से हमारी प्रतिभा, स्वाभिमान और कर्म क्षमताएं क्षीण होती जा रही हैं और हमारा जीवन किसी दास से ज्यादा नहीं होता। और दास भी ऎसा कि उससे चाहे जो काम करवा लिया जाए, कहीं कोई वर्जना नहीं, दास को कुछ भी करने में प्रसन्नता का ही अनुभव होगा। मनुष्य यदि साल दो साल के लिए यही सोच लें कि जो हो रहा है उसी में मस्त रहेगा, तो दुनिया की कोई ताकत नहीं जो उसे दासत्व स्वीकार करा सके।
आत्मनिर्भरता का यही अर्थ है कि हम अपने पैरों पर खड़े हों, अपनी बुद्धि की ताकत का हमें भान हो, शरीर की क्षमताओं को जानें और उन्हीं के बल पर जीवन निर्वाह करें। खूब सारे लोग हैं जो परायों के बल पर बन्दरों और भालुओं की तरह उछलकूद करते हैं, गिद्धों की तरह कहीं भी टूट पड़ते हैं, आवारा और पागल कुत्तों की तरह भौंकते और काट खाते हैं तथा भूखे चूहों की तरह कुछ भी कुतर-कुतर कर सकने को स्वच्छन्द हैं।
ये लोग खुद आदमी नहीं कहे जाते। इनके बारे में पूरे जगत में यह प्रचारित रहता है कि ये किसके आदमी हैं, कुछ कह दो तो यह कह कर गुर्राने लग जाएंगे – तुम्हें पता नहीं, हम उनके आदमी हैं। आजकल इंसान अपना नहीं रहा, औरों का पालतु होकर उनका आदमी कहलाने लगा है। जैसे कि शहर की सड़कों पर घूमते हुए जानवरों के बारे में लोग बहुधा कहते हैं – ये उनका कुत्ता है, ये उनकी भैंस या गाय है .. आदि-आदि।
अपनी इंसानियत सुरक्षित रखें, खुद के इंसान होने पर गर्व करें, स्वाभिमान बनाए रखें और किसी के पालतु या पिछलग्गू दास हो जाने की बजाय खुद को जानें, अपना वजूद कायम रखें। जो लोग औरों पर निर्भर रहना छोड़ देते हैं उन्हीं को ईश्वर की ओर से पूर्ण मनुष्य होने का वरदान प्राप्त होता है बाकी सारे तो आधे-अधूरे और अशक्त ही हैं। कोई ढाई सौ ग्राम है, कोई आधा किलो, कोई पौन और कोई-कोई सौ, दो सौ, चार सौ ग्राम। पूर्णता के लिए प्रयत्न करें और आगे बढ़ें।