चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
दिन में पहरा । रात में ताले । हाथों में पहचान पत्र । मौत का खौफ । झेलम का प्रेम । डल लेक की रुहानी हवा । डाउन-टाउन की निगाहों का शक । जेनाकदम और सफा कदम पुल की दास्तां । सेना की छाया । कब्रगाह की धूप । घाटी में “हैदर” पहले भी था और आज भी है। पहले भी जिन्दगी के साथ खड़ा होने का सुकून कश्मीरी पाले हुये था और आज भी जिन्दगी की गर्म हवा की आगोश में सबकुछ लुटाने को कश्मीरी तैयार है । यह आजादी का नारा नहीं बल्कि कश्मीर का ऐसा सच है जो नब्बे के दशक में खुले आसमान तले गूंजा करता था । अब दिलों में जख्म भर रिसता रहता है। दरअसल फिल्म ” हैदर ” झटके में उस एहसास को जगा देती है, जहां हालात कितने बदले है या फिर घाटी को देखने का नजरिया कितना बदला है या धाटी से संवाद भी सिनेमायी पर्दे के जरीये ही हो पा रहा है। क्योंकि कश्मीर को जीतने का ख्वाब धारा 370 तले लाया जा चुका है। कश्मीरी पंडितों के लिये घाटी में जमीन की तालाश दिल्ली का सुकुन बन चुकी है। इस्लामाबद कश्मीर के जरीये अपनी सियासत संभालने का ख्वाब पालना चाहता है।
पहली बार दुनिया के सियासी रंगमंच पर जनमत संग्रह का सवाल उठाकर पाकिस्तान अपने सियासी जख्मो पर मलहम लगाना चाहता है। और इन सब के बीच ” हैदर ” उस संवाद को जीवित करने की कोशिश करती है, जिसे दिल्ली की सियासी हवा में हर कोई भूल चुका था । तो क्या ” हैदर ” अबूझ पहेली बनकर ऐसे वक्त सामने आयी है जब झेलम के दर्द में डूबे कश्मीर से एक नये कश्मीर के निकलने का सपना हर कोई देख रहा था। हो सकता है । क्योंकि फैज का लाजिम है कि हम देखेगें…का सपना गुनगुनाने का अब क्या मायने है । क्या मायने है उस गजल को बार बार गुनगुनाना जिसके बोल कहे, चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले…असल में ” हैदर ” उस जख्म को हरा कर देती जिस जख्म को झेलम का पानी भी डुबो नहीं पाया । पानी उतर रहा है तो कब्रगाहों के पत्थर सतह पर आने लगे हैं। जो बर्फबारी में वादिया हसीन दिखायी देने लगती है उसका रंग कितना लाल है इस जख्म को भी ” हैदर ” कश्मीरी कैनवास पर विशाल भारद्वाज की कूची से , ” मैं हू कौन ” के नाम के साथ उभार देती है। लेकिन कश्मीर का दर्द उसके अपने ” हैदर ” में कैसे समाया हुआ है, इसे पहली बार सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने का साहस किया गया। हर जख्म के पीछे धोखा-फरेब होता है और कश्मीर इससे आजाद नहीं है । कौन किसका गुनाह सामने ला रहा है या गुनाह की परिभाषा ही हर किसी के लिये कितनी अलग अलग होनी चाहिये कश्मीर इससे बिलकुल अलग नहीं है । सेना हो या सत्ता । आतंक हो या मानवता का चेहरा सभी को अगर एक ही कश्मीर में रहना हो तो फिर समाज कैसे बंटता है । रिश्तों में कैसे दरार आती है । सही कौन और गलत कौन ।
यह सारे सवाल ही जबाब बनकर उन जख्मों को दबा देते है जिन्हे कुरेदने वाला ” हैदर ” हो जाता है । यह सब ” हैदर ” के सिनेमायी पर्दे का अनकहा सच है । हिजबुल मुजाहिदिन में शामिल होकर बंदूक थामी जाये । या सेना के लिये मुखबरी करके इमानदार कश्मीर का रास्ता बनाया जाये । सत्ता पा कर न्याय करने का सपना दिखाया जाये या चुनावी सत्ता को ढेगां दिखाकर सडक पर संघर्ष करते हुये खून बहाया जाये । घाटी का सच यही है कि कौन सही है कौन गलत इसके लिये सैकड़ों ” हैदर ” चाहिये । क्योंकि नब्बे के दशक का हैदर अब डाक्टर हिलाल मीर [ फिल्म में हैदर की भूमिका निभाने वाले नरेन्द्र झा ]की भूमिका में है । गजाला [ हैदर की मां यानी तब्बू ] अब फिदायिन बनने की हालत में नहीं है । रुहदार [ आतंकवादी बने इरफान खान ] को दिल्ली सीमापार पहुंचा चुकी है। या फिर वाकई घाटी में रुह बनकर खौफजदा कश्मीरियो के दर्द से हर क्षण रुबरु हो रहा है रुहदार। और खुर्रम यानी के के मेनन जिसकी नजरें ही फरेब पैदा करती है घाटी का नायाब सच है। तो फिर मौका मिले तो ” हैदर ” इसलिये देखिये क्योंकि आंतक और खौफ के बीच दर्द का गीत गुनगुना सकते हैं, गुलो में रंग भरे बादलो बहार चले…..चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले….।