१. द्वीप तथा वर्ष-पुराणों में ७ महाद्वीपों के साथ अष्टम महाद्वीप अनन्त (अण्टार्कटिका) का भी वर्णन किया है। इनके नाम हैं-जम्बू द्वीप (एशिया),प्लक्ष द्वीप (यूरोप), कुश द्वीप (विषुव के उत्तर का अफ्रीका), शाल्मलि द्वीप (विषुव के दक्षिण का अफ्रीका), शक या अग्नि द्वीप (आस्ट्रेलिया), क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका), पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका)। यहां द्वीप का अर्थ यह नहीं है कि वे हर दिशा में समुद्र से घिरे हैं, समुद्र, पर्वत, मरुभूमि या अन्य प्राकृतिक सीमा भी हो सकती है। पृथ्वी पर द्वीपों के जो नाम हैं, सौरमण्डल में पृथ्वी के चारों तरफ ग्रहों की परिक्रमा द्वारा जो वलयाकार क्षेत्र बने हैं उनके नाम भी पृथ्वी के द्वीपों जैसे हैं। उनके बीच के भागों को भी पृथ्वी के सागरों का नाम दिया है। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के केद्रीय वलय को भी आकाशगंगा कहा गया है, यद्यपि वह गंगा जैसी नदी नहीं है। आधुनिक युग में भी आकाशीय रचनाओं के नाम इसी प्रकार रखे जाते हैं। सौर मण्डल के द्वीप तथा सागर वृत्त या वलय आकार के हैं, पृथ्वी के द्वीप अनियमित आकार के हैं। सौर मण्डल का पुष्कर द्वीप यूरेनस कक्षा द्वारा बना वलय है, जिसकी मोटाई १६ कोटि योजन है, जो स्पष्टतः १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर नहीं हो सकती है। महाभारत के बाद पुराण संकलन करने वालों का आस्ट्रेलिया, अमेरिका से कोई सम्पर्क नहीं था न सौर मण्डल की माप कर रहे थे। सभी माप महाभारत पूर्व के हैं।
२. भारत के ३ अर्थ-(१) भू पद्म का दल-उत्तर गोल का नक्शा ४ समान खण्डों में बनता था, जिनको भूपद्म का ४ दल कहते थे (विष्णु पुराण, २/२/२४,४०)। यहां भारत-दल का अर्थ है विषुवत रेखा से उत्तरी ध्रुव तक, उज्जैन (७५०४३’ पूर्व) के दोनों तरफ ४५-४५ अंश पूर्व-पश्चिम। इसके पश्चिम में इसी प्रकार केतुमाल, पूर्व में भद्राश्व तथा विपरीत दिशा में (उत्तर) कुरु, ९०-९० अंश देशान्तर में हैं। इस भारत दल को इन्द्र का ३ लोक कहते थे। मध्य में चीन था जिसे वे लोग आज भी मध्य राज्य कहते हैं। वहां बृहस्पति ने हर शब्द के लिए अलग अलग चिह्न दिए, जिसे शब्द पारायण कहा गया। १५,००० से अधिक अक्षरों को सीखना किसी के लिए सम्भव नहीं था, अतः इन्द्र और मरुत् ने ४९ मरुतों को अनुसार शब्दों को ४९ मूल खण्डों में बांटा तथा उच्चारण क्रम के अनुसार व्यवस्थित किया। चीन वाले अपनी पद्धति पर अड़े रहे। भारत तथा रूस की पद्धति एक हो गयी। आज भी रूसी भाषा के अधिकांश वैदिक शब्द उसी अर्थ में प्रयुक्त हो रहे हैं।
(२) भारत वर्ष-हिमालय को पॄर्व-पश्चिम समुद्र तक फैलाने पर उसके दक्षिण समुद्र तक भाग को ९ खण्ड का भारतवर्ष कहते हैं।
अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥
पृथोस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥
कुशिकस्य च दुर्द्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः। सोमकस्य च दुर्द्धर्ष दिलीपस्य तथैव च॥८॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥९॥
कुमारिका खण्ड के दक्षिण ध्रुव तक का समुद्र भी कुमारिका खण्ड ही है जिस प्रकार आज भारत महासागर कहते हैं।
मत्स्य पुराण, अध्याय ११४-अथाहं वर्णयिष्यामि वर्षेऽस्मिन् भारते प्रजाः। भरणच्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते॥५॥
निरुक्तवचनाच्चैव वर्षं तद् भारतं स्मृतम्। यतः स्वर्गश्च मोक्षश्च मध्यमश्चापि हि स्मृतः॥६॥
भारतस्यास्य वर्षस्य नव भेदान् निबोधत॥७॥
इन्द्रद्वीपः कशेरुश्च ताम्रपर्णो गभस्तिमान्। नागद्वीपस्तथा सौम्यो गन्धर्वस्त्वथ वारुणः॥८॥
अयं तु नवमस्तेषां द्वीपः सागर संवृतः। योजनानां सहस्रं तु द्वीपोऽयं दक्षिणोत्तरः॥९॥
आयतस्तु कुमारीतो गङायाः प्रवहावधिः। तिर्यगूर्ध्वं तु विस्तीर्णः सहस्राणि दशैव तु॥१०॥
यस्त्वयं मानवो द्वीपस्तिर्यग् यामः प्रकीर्तितः। य एनं जयते कृत्स्नं स सम्राडिति कीर्तितः॥१५॥
इन्द्रद्वीप = दक्षिण पूर्व एशिया, जहां आज भी इन्द्र सम्बन्धित ५० वैदिक शब्द प्रचलित हैं। गरुड़ के नाम पर कम्बोडिया का वैनतेय जिला भी है। कशेरु = बोर्नियो, सेलेबीज, फिलीपीन। ताम्रपर्ण= तमिलनाडु के निकटवर्त्ती सिंहल (श्रीलंका)। गभस्तिमान = पूर्वी इण्डोनेसिया। पपुआ न्यूगिनी आस्ट्रेलिया का भी भाग था, जहां की गभस्ति नदी को शक द्वीप में कहा गया है। नागद्वीप = अण्डमान निकोबार से पश्चिमी इण्डोनेसिया तक। नाग का अर्थ हाथी भी है। हाथी की सूंड के आकार में होने के कारण इण्डोनेसिया के पश्चिम-पूर्व भागों को बड़ा तथा छोटा शुण्डा कहते हैं। सौम्य = उतर में तिब्बत। गन्धर्व -अफगानिस्तान, ईरान। वारुण = अरब, ईराक।
यह (अखण्ड भारत) कुमारिका या भारत खण्ड है जो दक्षिण समुद्र से गंगा उद्गम तक चौड़ा होता गया है।
(३) कुमारिका खण्ड-प्रायः वर्तमान भारत है। दक्षिण से देखने पर यह अधोमुख त्रिकोण है अतः तन्त्र के अनुसार शक्ति त्रिकोण है। शक्ति का मूल रूप कुमारी है, अतः भारत के ९ खण्डों में मुख्य होने से इसे कुमारिका कहते हैं। ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर इसे भारत कहा गया। प्रजा का या विश्व का भरण (अन्न द्वारा) करने के कारण भी इसे भारत कहते हैं।
३. भारत के नाम-
(१) भारत- इन्द्र के ३ लोकों में भारत का प्रमुख अग्रि (अग्रणी) होने के कारण अग्नि कहा जाता था। इसी को लोकभाषा में अग्रसेन कहते हैं। प्रायः १० युग (३६०० वर्षों) तक इन्द्र का काल था जिसमें १४ प्रमुख इन्द्रों ने प्रायः १००-१०० वर्ष शासन किया। इसी प्रकार अग्रि = अग्नि भी कई थे। अन्न उत्पादन द्वारा भारत का अग्नि पूरे विश्व का भरण करता था, अतः इसे भरत कहते थे। देवयुग के बाद ३ भरत और थे-ऋषभ पुत्र भरत (प्रायः ९५०० ई.पू.), दुष्यन्त पुत्र भरत (७५०० ई.पू.), राम के भाई भरत जिन्होंने १४ वर्ष (४४०८-४३९४ ई.पू.) शासन सम्भाला था।
दिवा यान्ति मरुतो भूम्याऽग्निरयं वातो अंतरिक्षेण याति ।
अद्भिर्याति वरुणः समुद्रैर्युष्माँ इच्छन्तः शवसो नपातः । (ऋक् संहिता, १/१६१/१४)
= देव आकाश की मरुत् अन्तरिक्ष की तथा अग्नि पृथ्वी की रक्षा करते हैं। वरुण जल के अधिपति हैं।
अग्नेर्महाँ ब्राह्मण भारतेति । एष हि देवेभ्य हव्यं भरति । (तैत्तिरीय संहिता, २/५/९/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/५/३/१, शतपथ ब्राह्मण, १/४/१/१)
= ब्रह्मा ने अग्नि को महान् तथा भारत कहा था क्योंकि यह देवों को भोजन देता है।
विश्व भरण पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
(रामचरितमानस, १/१९६/७)
भारत के बारे में यही विचार सभी ग्रीक लेखकों के भी हैं, पर उन लोगों को इसका आकार का पता नहीं था (जैसे मेगास्थनीज, इण्डिका, ३६)। यूरोप के लोग इसे १७५० ई तक चौकोर लिखते थे।
(२) अजनाभ-विश्व सभ्यता के केन्द्र रूप में इसे अजनाभ वर्ष कहते थे। इसके शासक को जम्बूद्वीप के राजा अग्नीध्र (स्वयम्भू मनु पुत्र प्रियव्रत की सन्तान) का पुत्र नाभि कहा गया है। (विष्णु पुराण, २/१/१५-३२)
(३) हिमवत वर्ष- भौगोलिक खण्ड के रूप में इसे हिमवत वर्ष कहा गया है क्योंकि यह जम्बू द्वीप में हिमालय से दक्षिण समुद्र तक का भाग है। अलबरूनी ने इसे हिमयार देश कहा है (प्राचीन देशों के कैलेण्डर में उज्जैन के विक्रमादित्य को हिमयार का राजा कहा है, जिसने मक्का मन्दिर की मरम्मत कराई थी)। वर्ष शब्द के ३ अर्थ हैं। मेघ से जल की बून्दें गिरती हैं, वह वर्षा है। वर्षा से आगामी वर्षा तक का समय भी वर्ष है। पर्वत के कारण एक वर्षा क्षेत्र (मॉनसून) को वर्ष कहते हैं तथा उस सीमावर्त्ती पर्वत को वर्ष पर्वत कहते हैं। इस प्रकार पूर्ण रूप से परिभाषित वर्ष भारत ही है।
(४) इन्दु-आकाश में सृष्टि विन्दु से हुयी, उसका पुरुष-प्रकृति रूप में २ विसर्ग हुआ-जिसका चिह्न २ विन्दु हैं। विसर्ग का व्यक्त रूप २ विन्दुओं के मिलन से बना ’ह’ है। इसी प्रकार भारत की आत्मा उत्तरी खण्ड हिमालय में है जिसका केन्द्र कैलास विन्दु है। यह ३ विटप (वृक्ष, जल ग्रहण क्षेत्र) का केन्द्र है-विष्णु विटप से सिन्धु, शिव विटप (शिव जटा से गंगा) तथा ब्रह्म विटप से ब्रह्मपुत्र। इनको मिलाकर त्रिविष्टप = तिब्बत स्वर्ग का नाम है। इनका विसर्ग २ समुद्रों में होता है-सिन्धु का सिन्धु समुद्र (अरब सागर) तथा गंगा-ब्रह्मपुत्र का गंगा-सागर (बंगाल की खाड़ी) में होता है। हुएनसांग ने लिखा है कि ३ कारणों से भारत को इन्दु कहते हैं-(क) उत्तर से देखने पर अर्द्ध-चन्द्राकार हिमालय भारत की सीमा है, चन्द्र या उसका कटा भाग = इन्दु। (ख) हिमालय चन्द्र जैसा ठण्ढा है। (ग) जैसे चन्द्र पूरे विश्व को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार भारत पूरे विश्व को ज्ञान का प्रकाश देता है। ग्रीक लोग इन्दु का उच्चारण इण्डे करते थे जिससे इण्डिया शब्द बना है। (ह्वेनसांग की भारत यात्रा, अध्याय २ के आरम्भ में)
(५) हिन्दुस्थान-ज्ञान केन्द्र के रूप में इन्दु और हिन्दु दोनों शब्द हैं-हीनं दूषयति = हिन्दु। १८ ई. में उज्जैन के विक्रमादित्य के मरने के बाद उनका राज्य १८ खण्डों में बंट गया और चीन, तातार, तुर्क, खुरज (कुर्द) बाह्लीक (बल्ख) और रोमन आदि शक जातियां। उनको ७८ ई. में विक्रमादित्य के पौत्र शालिवाहन ने पराजित कर सिन्धु नदी को भारत की पश्चिमी सीमा निर्धारित की। उसके बाद सिन्धुस्थान या हिन्दुस्थान नाम अधिक प्रचलित हुआ। देवयुग में भी सिधु से पूर्व वियतनाम तक इन्द्र का भाग था, उनके सहयोगी थे-अफगानिस्तान-किर्गिज के मरुत्, इरान मे मित्र और अरब के वरुण तथा यमन के यम।
(६) कुमारिका-अरब से वियतनाम तक के भारत के ९ प्राकृतिक खण्ड थे, जिनमें केन्द्रीय खण्ड को कुमारिका कहते थे। दक्षिण समुद्र की तरफ से देखने पर यह अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। शक्ति (स्त्री) का मूल रूप कुमारी होने के कारण इसे कुमारिका खण्ड कहते हैं। इसके दक्षिण का महासागर भी कुमारिका खण्ड ही है जिसका उल्लेख तमिल महाकाव्य शिलप्पाधिकारम् में है। आज भी इसे हिन्द महासागर ही कहते हैं।
४. सनातन भारत-(१) प्राचीन राष्ट्र-भारत प्राचीन काल से राष्ट्र के रूप में विख्यात है।
महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय ९-
अत्र ते कीर्तयिष्यामि वर्षं भारत भारतम्। प्रियमिन्द्रस्य देवस्य मनोर्वैवस्वतस्य च॥५॥
पृथोस्तु राजन् वैन्यस्य तथेक्ष्वाकोर्महात्मनः। ययातेरम्बरीषस्य मान्धातुर्नहुषस्य च॥६॥
तथैव मुचुकुन्दस्य शिवेरौशीनरस्य च। ऋषभस्य तथैलस्य नृगस्य नृपतेस्तथा॥७॥
कुशिकस्य च दुर्द्धर्ष गाधेश्चैव महात्मनः। सोमकस्य च दुर्द्धर्ष दिलीपस्य तथैव च॥८॥
अन्येषां च महाराज क्षत्रियाणां बलीयसाम्। सर्वेषामेव राजेन्द्र प्रियं भारत भारतम्॥९॥
(२) विविधता की रक्षा-१९२३ में अविनाश चन्द्र दास ने ऋग्वेदिक भारत (अंग्रेजी) में लिखा था कि भारत में सभी प्रकार की जलवायु है, अतः सर्वाङ्गीण ज्ञान तथा वेद का केन्द्र यही देश हो सकता था।
वेद केन्द्र रूप में भारत विश्व का हृदय है। दक्षिण भारत के त्रिकोण के ऊपर अर्ध चन्द्राकार हिमालय मिलाने से जो आकार बनता है उसे हृदय या प्रेम चिह्न कहते हैं। वास्तविक हृदय वैसा नहीं है, यह भारत का ही प्रतीक है।
विश्व के वनों का विस्तृत वर्गीकरण श्यामकिशोर सेठ ने १९५८ में किया था जो चैम्पियन द्वारा पुराने वर्गीकरण का संशोधन था। उसके १६ मुख्य तथा ६४ गौण वर्ग हैं। केवल भारत में ही सभी ६४ प्रकार के वन आज भी हैं।
सनातन सभ्यता होने के कई कारण हैं-
(३) हिमालय से रक्षा (क) -हिमालय सशक्त प्राकृतिक दुर्ग है।
(ख) हिमालय के कारण भारत में नियमित वर्षा होती है।
(ग) हिम युग में कनाडा, रूस, उत्तर यूरोप आदि पूरी तरह हिम से ढंक कर नष्ट हो जाते हैं। उत्तर के शीत युग से हिमालय के कारण भारत बच जाता है। अतः यहां की सभ्यता २२,००० वर्षीय हिमयुग चक्र से नष्ट नहीं हुई।
(४) यज्ञ संस्था-यज्ञ चक्र को नियमित चलाने से सभ्यता अबाध रूप से चलती रही। गीता के अनुसार अपनी आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन ने साधन को यज्ञ कहा गया है। जीवन के लिए सबसे मुख्य अन्न है, अतः उसी के अनुसार पर्जन्य, अन्न आदि की परिभाषा हैं। यज्ञ का बचा भाग खाते हैं, बाकी बीज को भविष्य में भी यज्ञ चलाने के लिए बचा कर रखते हैं।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥१०॥
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः॥१३॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्न सम्भवः। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥१४॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥१६॥ (गीता, अध्याय ३)
पुरुष सूक्त के अन्तिम मन्त्र के अनुसार मूल यज्ञ से अन्य यज्ञों की व्यवस्था चला कर ही साध्य लोग उन्नति के शिखर पर पहुंचे और देव बने।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (वाज, यजु, ३१/१६)
जो यज्ञ के बदले बल (असु) द्वारा सम्पत्ति लूट कर काम चलाते थे, उनको असुर कहा गया। लूट के माल का १/५ भाग राजा को देने का नियम इसाई तथा इस्लाम मतों में है (माल-ए-गनीमत, Royal fifth)। जब लूटने योग्य नहीं बचता तो ये सभ्यतायें नष्ट हो जाती हैं। इनको दिति सन्तान भी इसी कारण कहते है। दिति का अर्थ है काटना। दूसरों को काट कर आय करना, या सभ्यता को २ भागों में बांटना। जो उनका मत माने वह अच्छा, बाकी काफिर। या पैगम्बर के बाद सब ठीक, उसके पहले का सभी चिह्न और ज्ञान नष्ट करना है।
५. देव संस्था-पिण्ड या तत्त्व रूप को देव तथा क्षेत्र या क्रिया रूप को देवी कहते हैं। मनुष्य रूप में जन्म के लिए पुरुष का योग विन्दु मात्र है, जन्म का स्थान या क्षेत्र स्त्री का गर्भ है। इसी अर्थ का विस्तार सभी पुल्लिंग-स्त्रीलिंग शब्दों में है।
(१) देवी रूप-(क) राष्ट्री-देव्यथर्व शीर्ष में देवी ने अपने को कहा है-अहं राष्ट्री संगमनी। यहां राष्ट्री का अर्थ है, राष्ट्र की भूमि स्वरूप। संगमनी का अर्थ है, एक साथ चलने वाला व्यक्ति गण, जिसकी व्याख्या ऋग्वेद के अन्तिम सौमनस्य सूक्त में है।
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर॥१॥
संगच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वेसंजानाना उपासते॥२॥
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्।
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समान्न वो हविषा जुहोमि॥३॥
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः। समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति॥४॥
(ऋक्, १०/१९१/१-४)
अर्थात्, हमारे सभी कर्म, विचार, गति, उपभोग आदि एक साथ हों। यहां मन, चित्त, हृदय, ज्ञान आदि भिन्न भिन्न कहा है। वसु का अर्थ खनिज, अन्न आदि उत्पाद है, जिनका उत्पादन, संग्रह और उपभोग मिल कर होता है।
(ख) नव दुर्गा- ९ दुर्गा की तरह भारत वर्ष के ९ खण्ड हैं। मुख्य कुमारिका खण्ड अधोमुख त्रिकोण है जिसे शक्ति त्रिकोण कहते हैं। शक्ति का मूल रूप कुमारी होने से इसे कुमारिका खण्ड कहते हैं। इसका मूल विन्दु कन्याकुमारी है। त्रिकोण रूप में उत्तर पूर्व में कामाख्या पीठ महाकाली रूप, दक्षिण में शारदा पीठ महा सरस्वती रूप तथा पश्चिमोत्तर में महालक्ष्मी स्वरूप है (विष्णु विटप कश्मीर में वैष्णोदेवी)।
(ग) शक्ति पीठ- ४९ मरुत् स्वरूप देवनागरी के ४९ वर्ण हैं। इसे इन्द्र-मरुत् ने आरम्भ किया था। इन्द्र पूर्व के तथा मरुत् उत्तर के लोकपाल थे। आज भी यह लिपि असम से अफगानिस्तान सीमा तक प्रचलित है। आकाश में पृथ्वी से क्रमशः २-२ गुणा बड़े ४९ धाम ब्रह्माण्ड सीमा तक हैं, जिसकी माप भूरिक् जगती छन्द है। उसके बाद ५२ धाम तक कूर्म या गोलोक है जिसमें ब्रह्माण्ड उत्पन्न हुआ। इन अक्षरों से शब्द रूप विश्व बना, अतः इनको मातृका कहते हैं। शरीर विश्व की प्रतिमा है, अतः उसमें भी अक्षरों की स्थिति या न्यास विभिन्न विन्दुओं पर माने गये हैं। अ से ह तक वर्णमाला है, अतः शरीर का क्षेत्र अहं है। इसे जानने वाला आत्मा क्षेत्रज्ञ है (गीता, अध्याय १३) अतः ४९ अक्षरों के बाद क्ष, त्र, ज्ञ जोड़ कर ५२ अक्षर हैं जिसे सिद्ध क्रम कहते हैं। केवल क्ष जोड़ने पर ५० अक्षर रूप काली की मुण्डमाला है जिसे अक्ष माला भी कहते हैं। ५२ अक्षरों के स्वरूप भारत भूमि में ५२ शक्ति पीठ हैं, जो शिव पत्नी सती के अंग हैं। इनकी सूची तन्त्र चूड़ामणि, देवी पुराण के अध्याय ३९ में है।
१६ स्वर वर्णों के उदात्त-अनुदात्त-स्वरित, ह्रस्व-दीर्घ-प्लुत, अल्पप्राण-महाप्राण बेदों से १०८ रूप होते हैं। या क्रान्तिवृत्त के १२ राशि तथा २७ नक्षत्र विभाजन के मिलन से १०८ भाग हैं जो नक्षत्र पाद हैं। इनके प्रतिरूप १०८ शक्तिपीठों की सूची देवी भागवत पुराण, अध्याय (७/३०) में है।
(ग) सैन्य क्षेत्र- सैन्य क्षेत्रों के अनुसार कार्त्तिकेय ने भारत को ६ भागों में बांटा था जिनको कार्त्तिकेय की ६ माता कहते हैं (तैत्तिरीय संहिता, ४/४/५/१, तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/४/४, ब्रह्माण्ड पुराण, ३/४/३२/२९)-दुला (बंगाल, ओड़िशा, दुला देवी मन्दिर, दुलाल = कार्त्तिकेय), अभ्रयन्ती (२ मॉनसून का सारम्भ-आन्ध्र, महाराष्ट्र), मेघयन्ती (गुजरात, राजस्थान, जहां मेघ कम किन्तु मेघानी उपाधि है), वर्षयन्ती (अधिक वर्षाअसम), नितत्नि (नीचे फैलने वाली लता-तमिलनाडु), चुपुणिका (पंजाब-चोपड़ा)।
(२) शिव रूप- (क) ज्योतिर्लिंग-पिण्ड या अग्नि रूप में शिव ८ वसु हैं, वायु रूप में ११ रुद्र तथा तेज रूप में १२ आदित्य है। सौर मण्डल के ये ३३ धाम हैं, अग्नि-वायु तथा वायु-तेज सन्धियों पर दो नासिक्य या अश्विन हैं। पृथ्वी पर १२ मासों में सूर्य के १२ प्रकार की ज्योति १२ आदित्य हैं। इनके स्वरूप १२ ज्योतिर्लिंग हैं।
(ख) लिंग परिभाषा- लिंग (बाह्य चिह्न) रूप में ३ प्रकार के विभाग हैं-स्वयम्भू लिंग जिसमें विश्व की उत्पत्ति तथा लय होता है, बाण लिंग गति की ३ दिशा हैं, जो आकाश के ३ आयाम हैं। इतर लिंग अनन्त प्रकार के रूप हैं जिनका १२ ज्योति में विभाजन है। लिंग का अर्थ है-लीनं गमयति यस्मिन्।
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि ।
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
(ग) भौतिक रूप-आकाश मे अव्यक्त या व्यक्त दृश्य जगत् स्वयम्भू लिंग है। अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज (जगन्नाथ धाम की सीमा) तथा व्यक्त स्वयम्भू लिंग मेवाड़ का एकलिंग (पुष्कर के ब्रह्म धाम की सीमा) है।
आकाश के ३ आयाम त्रिलिंग हैं, जिसका भौतिक रूप त्रिलिंग (तेलांगना) है, जहां के ३ पीठों को ३ प्रकार के आराम कहते हैं। ये शिव के ३ नेत्रों के प्रतीक हैं-द्राक्षारामम् (सूर्य), सोमारामम् (चन्द्र), कुमारारामम् (कुमार अग्नि या पृथ्वी)। पञ्चमुख रूप में २ और आराम हैं-क्षीराराम (विष्णु), अमराराम (अमरावती, इन्द्र)।
आध्यात्मिक रूप में मूलाधार में स्वयम्भू लिंग (उसके अंगों से मनुष्य जन्म), अनाहत चक्र में बाण लिंग (श्वास, रक्त सञ्चार केन्द्र) तथा आज्ञा चक्र में इतर लिंग। इतर का अर्थ है भिन्न रूप (other)। इनको आंख से देखते हैं तथा मस्तिष्क से पहचानते हैं। १२ रूपों के अनुसार मीमांसा दर्शन में १२ प्रकार की शब्द शक्ति हैं। (शिव संहिता, पटल ५)
(घ) शब्द लिंग-वाक् का व्यक्त रूप भी लिंग (Lingua, language) है। लिंग पुराण (१/१७/८३-८८) में कई प्रकार के शब्द लिंग या लिपियों के उल्लेख हैं-
गायत्री के २४ अक्षर-४ प्रकार के पुरुषार्थ के लिये।
कृष्ण अथर्व के ३३ अक्षर-अभिचार के लिये।
३८ अक्षर-धर्म और अर्थ के लिये (मय लिपि के ३७ अक्षर = अवकहडा चक्र + ॐ)
यजुर्वेद के ३५ अक्षर-शुभ और शान्ति के लिये-३५ अक्षरों की गुरुमुखी लिपि।
साम के ६६ अक्षर-संगीत तथा मन्त्र के लिये।
(ङ) गुरु रूप- गुरु-शिष्य परम्परा रूप मस्तिष्क में आज्ञा चक्र के ऊपर त्रिकूट या कैलास है, जहां इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना का मिलन होता है। यहां मस्तिष्क के वाम-दक्षिण भाग के वार्त्तालाप से १८ प्रकार की विद्या उत्पन्न होती है (द्वा सुपर्ण सूक्त- मुण्डक उप. ३/१/१, श्वेताश्वतर उप. ४/६, ऋक् १/१६४/२०, अथर्व ९/९/२०)।
समुन्मीलत् संवित्-कमल मकरन्दैक रसिकं, भजे हंस-द्वन्द्वं किमपि महतां मानसचरम्।
यदालापादष्टादश गुणित विद्या परिणतिः, तदादत्ते दोषाद् गुणमखिल-मद्भ्यः पय इव॥
(शंकराचार्य, सौन्दर्य लहरी, ३८)
इसके भौतिक रूप हैं-हिमालय में कैलास, मध्य में काशी तथा दक्षिण में काञ्ची।
(च) सिख मत- सिख मत में भी गुरु को शिव रूप माना गया है। गुरु गोविन्द सिंह जी की उक्ति है-देहु शिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन तें कबहूं न टरौं। भारत को गुरु रूप मान कर विभिन्न स्थानों में गुरु की कल्पना की गयी है। मंझी साहब की कथा है वहां गुरु नानक मंझी (खाट) पर बैठे थे। कटक में दान्तन साहब की कथा है कि वहां दातून किया था। अन्य स्थानों पर भी वे यह काम करते थे, पर सती के अंगों की तरह पूरा भारत उनका स्वरूप मानने की यह विधि है। शरीर में कण्ठ स्थान में जालन्धर बन्ध किया जाता है। उसके ऊपर मस्तिष्क के चोटी स्थान में विन्दु चक्र या अमृत-सर है। पंजाब में भी जालन्धर के उत्तर पश्चिम अमृतसर है।
६. लोकपाल संस्था-२९१०२ ई.पू. में ब्रह्मा ने ८ लोकपाल बनाये थे। यह उनके स्थान पुष्कर (उज्जैन से १२ अंश पश्चिम बुखारा) से ८ दिशाओं में थे। यहां से पूर्व उत्तर में (चीन, जापान) ऊपर से नीचे, दक्षिण पश्चिम (भारत) में बायें से दाहिने तथा पश्चिम में दाहिने से बांये लिखते थे जो आज भी चल रहा है।
बाद के ब्रह्मा स्वायम्भुव मनु की राजधानी अयोध्या थी, और लोकपालों का निर्धारण भारत के केन्द्र से हुआ। पूर्व से दाहिनी तरफ बढ़ने पर ८ दिशाओं (कोण दिशा सहित) के लोकपाल हैं-इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, मरुत्, कुबेर, ईश। इनके नाम पर ही कोण दिशाओं के नाम हैं-अग्नि, नैर्ऋत्य, वायव्य, ईशान।
इन्द्रो वह्निः पितृपतिर्नैर्ऋतो वरुणो मरुत्। कुबेर ईशः पतयः पूर्वादीनां दिशाः क्रमात्॥ (अमरकोष, १/३/२)
अतः बिहार से वियतनाम और इण्डोनेसिया तक इन्द्र के वैदिक शब्द आज भी प्रचलित हैं। इनमें ओड़िशा में विष्णु और जगन्नाथ सम्बन्धी, काशी (भोजपुरी) में शिव, मिथिला में शक्ति, गया (मगध) में विष्णु के शब्द हैं। शिव-शक्ति (हर) तथा विष्णु (हरि) क्षेत्र तथा इनकी भाषाओं की सीमा आज भी हरिहर-क्षेत्र है। इन्द्र को अच्युत-च्युत कहते थे, अतः आज भी असम में राजा को चुतिया (च्युत) कहते हैं। इनका नाग क्षेत्र चुतिया-नागपुर था जो अंग्रेजी माध्यम से चुटिया तथा छोटा-नागपुर हो गया। ऐरावत और ईशान सम्बन्धी शब्द असम से थाइलैण्ड तक, अग्नि सम्बन्धी शब्द वियतनाम. इण्डोनेसिया में हैं। दक्षिण भारत में भी भाषा क्षेत्रों की सीमा कर्णाटक का हरिहर क्षेत्र है। उत्तर में गणेश की मराठी, उत्तर पूर्व के वराह क्षेत्र में तेलुगु, पूर्व में कार्त्तिकेय की सुब्रह्मण्य लिपि तमिल, कर्णाटक में शारदा की कन्नड़, तथा पश्चिम में हरिहर-पुत्र की मलयालम।
७. भाषा संस्था-भाषा की भिन्नता लिपि के कारण है। अंग्रेजी में भी गणित चिह्न, रसायन विज्ञान में धातुओं के नाम, जीव विज्ञान में जीवों, वृक्षों के नाम ग्रीक तथा लैटिन पर आधारित हैं। प्राचीन मिस्र में भी ग्रहों के नाम संस्कृत में थे जो कटपयादि सूत्र के अनुसार उनकी दूरी होती थी। क, ट, प, य-इन वर्णों से १, २,—९,० तक के अंक सूचित होते थे। जैसे महताब = ५८६३ योजन। यहां योजन = विषुव वृत्त का ७२० भाग = ५५.५ किलोमीटर। यह चन्द्र की औसत दूरी है, अतः महताब का अर्थ चन्द्र हुआ। भारत में भी राशि नाम के लिए अवकहड़ा चक्र का व्यवहार होता है। इसमें २० व्यञ्जन वर्ण तथा ५ स्वर हैं-अ, इ, उ, ए, ओ। रोमन लिपि के भी यही ५ स्वर हैं-a, e, i, o, u। इसमें वर्ण संख्या २५ सांख्य तत्त्वों के बराबर है। गायत्री को सांख्यायन गोत्र सांख्य अत्रि के कारण कहा है (छन्द सूत्र, ३/६३,६६)। सांख्य अत्रि उत्तर पश्चिम दिशा में गये थे, अतः भारत से उस दिशा में यह लिपि प्रचलित हुई। आत्रेय जनपद भारत के उत्तर पश्चिम कहा गया है (मार्कण्डेय पुराण, ५४/३९)। उसके निकट पश्चिमोत्तर हिमालय में अत्रि आश्रम में पुरुरवा ने तप किया था (मत्स्य पुराण, ११८)। पश्चिमोत्तर भाग में अत्रि को असुरों ने बन्दी बनाया था (ब्रह्म पुराण, २/७०, ऋग्वेद सूक्त, १/१०८,११७)। इनको अरबी में इद्रीस, यूरोप में एट्रुस्कन कहा है।
भारत में प्राचीन लिपि ब्राह्मी थी, जिसमें ६३ या ६४ अक्षर थे (पाणिनीय शिक्षा, ३)। यह प्राकृत तथा संस्कृत दोनों में थे। ब्राह्मी का प्राकृत रूप अभी तेलुगू, कन्नड़ हैं। ब्राह्मी का लघु रूप (short hand) कार्त्तिकेय ने तमिल रूप में किया। स्पर्श वर्णों के प्रत्येक वर्ग के प्रथम ४ अक्षरों का एक ही चिह्न कर दिया। क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) पर आक्रमण के लिए उनको प्रशान्त महासागर में जल-स्थल उभय की सेना बनानी थी, जिसे मयूर कहा गया। बाहरी देशों में प्रयोग के लिए छोटी लिपि बनाई। आज भी मयूरी सेना के वंशजों माओरी की भाषा पूरे प्रशान्त सागर में आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड, हवाई आदि में एक ही है। तमिल में तकनीकी ग्रन्थों के लिये गाथा लिपि बनी रही जिसमें सभी अक्षर थे। देवनागरी लिपि में ४९ अक्षरों के वर्ग बने। जो अक्षर किसी वर्ग में नहीं आये उनको अयोगवाह कहा गया।
तन्त्र के लिए शैव दर्शन की तत्त्व संख्या ३६ अक्षर की लिपि का प्रयोग हुआ। वेद के वैज्ञानिक वर्णन के लिए (८+९) = १७ के वर्ग की लिपि का प्रयोग हुआ, जिसमें ३६ x ३ स्वर, ३६ x ५ व्यञ्जन वर्ण तथा १ ॐ है। सहस्राक्षरा लिपि का प्रयोग व्योम अर्थात् तिब्बत के परे चीन जापान में हुआ। सभी लिपियों का उल्लेख वेद में है-
गौरीर्मिमाय सलिलानि तक्षति एक पदी द्विपदी सा चतुष्पदी।
अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्राक्षरा परमे व्योमन्। (ऋक्, १/१६४/४१)
८. मूल निवासी-सिकन्दर के समकालीन सभी ग्रीक लेखकों ने लिखा है कि भारत विश्व का एकमात्र देश है, जहां बाहर से कोई नहीं आया, यथा मेगास्थनीज की इण्डिका (३८)। भारतीय साहित्य में भी बाहर से आर्यों के आने का कोई उल्लेख नहीं है। अतः अंग्रेजों ने अपनी तरह भारतीयों को विदेशी सिद्ध करने के लिए पुरातत्त्व तथा इतिहास शोध आरम्भ कर दिया जिस का निष्कर्ष पहले से तय था। राजा बलि के समय कूर्म अवतार हुआ था (प्रायः १६,००० ईपू)। उस समय संयुक्त खनिज निष्कासन के लिए उत्तर अफ्रीका से असुर झारखण्ड के निकट खनिज क्षेत्रों में आये। वही भाषा पश्चिम भारत के अरब में कही जाती थी जहां के यवनों को राजा सगर ने निष्कासित किया (६,७६२ ईपू-६७७७ ईपू के बाक्कस आक्रमण के १५ वर्ष बाद)। हेरोडोटस के अनुसार यवन पहले तुर्की के इजमीर तट पर गये, फिर ग्रीस में गये। उसके बाद ग्रीस का नाम इयोनिया (यूनान) हुआ। आज भी अरबी औषधि को ही यूनानी कहते हैं। ग्रीक तथा झारखण्ड निवासियों का एक भाषा मूल होने के कारण आज भी उनकी उपाधियां वही हैं, जो ग्रीक भाषा में खनिजों के नाम हैं। खालको = खालकोपाइराइट (ताम्र अयस्क), टोप्पो = टोपाज, ओराम (औरम = स्वर्ण), सिंकू (स्टैनिक-टिन), हेम्ब्रम (हाइग्रेरियम – पारा), किस्कू (कियोस्क-लोहे के लिए धमन भट्टी)। उन विदेशियों का चेहरा स्पष्ट रूप से अफ्रीकी लोगों से मिलता है, जैसा पश्चिम तट पर बाद में अफ्रीकी सिद्दियों का चेहरा है। पर उनको बिना किसी प्रमाण के मूल निवासी मान लिया। केवल मूल भारतीयों की बार बार डीएनए की जांच होती रहती है।
९. जाति प्रथा-विश्व के हर भाग में जाति प्रथा है। पर भारत जैसा व्यवस्थित कर्म विभाजन कहीं नहीं है। यही भारत की सबसे बड़ी शक्ति रही है। किसी भी व्यक्ति में हर प्रकार की योग्यता नहीं हो सकती है। सभी जातियों का मिलन समाज को पूर्ण शक्ति देता है। मुस्लिम तथा अंग्रेजी शासन में कई जातियों का व्यवसाय नष्ट हो गया या किया गया। इस कारण बहुत से सम्पन्न वर्ग दलित हो गये। मालवा के प्रतापी गर्दभिल्ल राजा थे। उनका समाज युद्ध तथा व्यापार के लिए सामान की ढुलाई करता था, अतः आज के व्यापारियों की तरह सबसे धनी था। विदेशी शासन ने व्यवसाय नष्ट कर दिया, अतः गदहेड़ा या बन्जारा आज का दलित समाज है। इसी प्रकार अकबर के समय सबसे शक्तिशाली गोण्डावना था जिसकी रानी दुर्गावती ने समझौता नहीं किया। अतः आज गोण्ड लोग दलित जनजाति है। किन्तु दुर्गावती के पुरोहित तथा रसोइया को अकबर ने भेद देने के लिए काशी-मिथिला की नमकहरामी जागीर दी-वे सम्मानित हो गये (वृन्दावनलाल वर्मा-रानी दुर्गावती)। पद दलित राजाओं को अपमानित करने के लिए उनको सिर पर मैला ढोने के लिए बाध्य किया। राज्य भंग होने से वे भंगी हुए (नाच्यौ बहुत गोपाल-अमृतलाल नागर)। जाति व्यवस्था द्वारा शक्ति सम्पन्न होने के कारण भगवान् राम ने बिना किसी राज्य सहायता के रावण को पराजित किया। मध्य युग में भी राणा प्रताप, शिवाजी ने २० गुणी बड़ी सेनाओं को बार बार पराजित किया। युद्ध में बलि देते समय जाति गौरव की रक्षा ही मूल भाव था, उस समय यह विचार नहीं किया कि किन पूर्वजों ने कब-कब कर्म अनुसार जाति बदली। जातिगत कर्त्तव्य के पालन द्वारा ही ८०० वर्षों तक बिना किसी तकनीकी या सामान्य विद्यालय के भारत में वेद, आयुर्वेद, ज्योतिष, शिल्प, तन्त्र, राजनीति शास्त्र आदि का ज्ञान सुरक्षित रहा। जाति व्यवस्था के कारण बचे शास्त्रों को पढ़ कर कृतघ्न लोग इसकी निन्दा करते हैं।
१०. एकत्व-एक व्यक्ति का एकत्व नहीं होता, भिन्न लोगों में ही होता है। पर भारत को भिन्न-भिन्न देश दिखाने के लिए कई वाक्य गढ़े गये हैं-विविधता में एकता, उप महाद्वीप, गंगा-यमुनी संस्कृति। क्षेत्र फल में बहुत बड़े देशों रूस, चीन, अमेरिका को किसी ने उप महाद्वीप कहने का साहस नहीं किया है। अमेरिका में ऐसा कहने वाला जेल चला जायेगा। हर व्यक्ति तथा स्थान भिन्न होते हैं। परस्पर सम्बन्धित होने से बाद में एकत्व दीखता है। अतः इसे अनुपश्यतः कहा है (ईशावास्योपनिषद्, ७)। विविधता भारत को स्वावलम्बी तथा शक्तिशाली बनाती
✍🏻अरुण उपाध्याय
Categories