एक-दो दिन बार राजनारायणजी (जिन्होंने इंदिराजी को हराया था) का फोन आया कि डाॅक्टर साहब का आॅपरेशन बिगड़ गया है। तब से पढ़ाई लिखाई छोड़कर मैं, परिमलजी, कमलेशजी, प्रधानजी, विनयजी, जर्नादन द्विवेदी आदि अस्पताल में ही डेरा डाले रहते थे। लोहियाजी को देखने कौन-कौन नहीं आता था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, डाॅ. जाकिर हुसैन, आचार्य कृपालानी, जयप्रकाश नारायण, हीरेन मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी आदि सभी दलों के नेता आते थे। उनके साथ-साथ देश के कई गांवों के मजदूर, किसान और सफाई कर्मचारियों ने भी अस्पताल में ही अपना ठिकाना बना लिया था।
डाॅ. लोहिया रहते थे, 7 गुरुद्वारा रकाबगंज रोड में। जब उनकी शव-यात्रा निकली तो उनकी अर्थी को कंधा लगानेवालों में सबसे आगे श्री मोरारजी देसाई, आरिफ भाई और मैं भी था। जब बिजली के शव-दाह गृह में उनकी अर्थी को सरकाया गया तो जयप्रकाश बाबू फूट-फूटकर रोने लगे। वे कहते रहे कि राममनोहर की जगह तो मुझे होना चाहिए।
पता नहीं, 7 रकाबगंज का क्या हुआ? लोहिया के मुकाबले जो पिद्दी भर भी नहीं हैं, ऐसे लोगों के स्मारक बने हुए हैं, उनकी जन्म-तिथि और पुण्य-तिथि मनाई जाती है, क्योंकि उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी तोड़ने का अवसर भाग्य ने दे दिया था। इतिहास तय करेगा कि कौन बड़ा है? इतिहास की चक्की बहुत बारीक पीसती है। कल डाॅ. लोहिया के आत्मीय सहयोगी श्री अब्बास अली (94 वर्ष) का भी निधन हो गया। उन्हें मेरी श्रद्धांजलि। यदि आज डाॅ. लोहिया होते तो उनकी आयु 104 साल होती।