ओ३म्
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हमें हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौन सिटी से कुछ पुस्तकें प्राप्त हुई हैं जिनमें से एक पुस्तक ‘यज्ञ क्यों?’ है। ‘यज्ञ क्यों?’ पुस्तक में नाम के साथ बताया गया है कि यह पुस्तक तर्क की कसौटी पर अग्निहोत्र को प्रस्तुत करती है। इस पुस्तक के लेखक हैं श्री गजानन्द आर्य, पूर्व प्रधान, परोपकारिणी सभा, अजमेर। पुस्तक का प्रकाशन ’हितकारी प्रकाशन समिति, हिण्डौन सिटी’ ने किया है। पुस्तक को हितकारी प्रकाशन समिति, ब्यानिया पाड़ा, द्वारा ‘अभ्युदय’ भवन, अग्रसेन कन्या महाविद्यालय मार्ग, स्टेशन रोड, हिण्डौन-सिटी-322230 राजस्थान राज्य से प्राप्त किया जा सकता है। पुस्तक प्राप्ति हेतु प्रकाशक महोदय से मोबाइल नम्बर 7014248035 तथा 9414034072 पर सम्पर्क भी किया जा सकता है। सन् 2020 में प्रकाशित कुल 31 पृष्ठों वाली इस पुस्तक का मूल्य मात्र रुपये 20 है। पुस्तक में मुख्यतः यज्ञ क्यों करते हैं, इसकी प्रासंगिकता, उपयोगिता एवं इससे होने वाले लाभों पर प्रकाश डाला गया है। पुस्तक से यह भी सूचित होता है कि दैनिक यज्ञ करना प्रत्येक गृहस्थी मनुष्य का प्रमुख कर्तव्य है।
विद्वान लेखक श्री गजानन्द आर्य जी ने इस पुस्तक में कुछ प्रश्नों व शंकाओं को लेकर उनका विस्तार से समाधान किया है। पुस्तक की पृष्ठभूमि में एक युवक वा शिष्य ने आचार्य से कुछ प्रश्न किये हैं जिनका समाधान पुस्तक में है। वह शिष्य आचार्य को कहता है कि यज्ञ में कुछ विशेष्ता हो तो कहे? वेद के मन्त्रों के उच्चारण के साथ घी एवं सुगन्धित पदार्थों को जला डालने में क्या तुक है, समझ में नहीं आता? अभी हमने जो प्रार्थना की है कि हमारा श्रेष्ठ, सुन्दर कर्म और धर्म यज्ञ है। बताइए! हमारा यह श्रेष्ठ कर्म संसार को क्या दे रहा है? विज्ञान में दिन-रात लगे हुए वैज्ञानिकों के तप, त्याग से बड़ा हमारा यह यज्ञ है ऐसी केवल हमारी मान्यता है। हमारे ऋषि-महर्षि जिस बात को लिख गये उसी को बिना सन्देह के मानते जाना ही हमारा धर्म हो गया। विश्व कितना आगे बढ़ गया है। तर्क की कसौटी पर जो ठीक न उतरे उस बात को आज का वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं, चाहे वह बाइबल का वचन हो या वेद का। दूसरे मतावलम्बियों की तरह आर्यसमाज भी एक पोंगा-पन्थी बन गया है। लकीर के फकीर बनना ही आपका आदेश है। यज्ञ की यह परम्परा विद्यालय के इस प्रांगण में चलती रहेगी, पर विश्व के प्रांगण में चल जाए, मुझे सन्देह है। एक विद्यार्थी के इन सन्देहों व प्रश्नों का समाधान करना ही इस पुस्तक का मुख्य उद्देश्य है। पुस्तक में यज्ञ के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
पुस्तक के आरम्भ में यज्ञ शब्द की व्याख्या की गई है। यह बताया गया है कि यज्ञ-मन्त्रों के भावार्थ जानने से पहले आप हवन के महत्व को समझ लीजिए, क्योंकि इस हवन को हमें अपने दैनिक जीवन में अपने उत्सवों और संस्कारों में प्राथमिकता देनी है। हवन करते समय हमारी वाणी जिन मन्त्रों का उच्चारण करती है, उनका भावार्थ आदि की क्रियाएं भी यज्ञ हैं जो हमें यज्ञ की महिमा को बताएंगी। आचमन आदि की क्रियाएं भी यज्ञ के महत्व को दर्शाएंगी। इसके अतिरिक्त हवन में घी एवं सुगन्धि, पौष्टिक सामग्री को जलाना है। यह हवन की अपनी विषेषता है। दुःख है कि विज्ञान के छात्र पदार्थ विद्या जानते हुए भी घी एवं पदार्थों को जला डालने की क्रिया नहीं समझते हैं।
पुस्तक में विद्वान लेखक ने बताया है कि समाज एवं राष्ट्र को उन्नतिशील एवं जीवित रहने के लिए वैज्ञानिक उपलब्धियां भी आवश्यक हैं, किन्तु इन आवश्यकताओं की पूर्ति से होनेवाले बुरे प्रभाव को हटाते रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना गन्दे शरीर एवं वस्त्र को धोकर स्वच्छ रखना। एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा यह नियम होना चाहिए कि जिस वातावरण में हम रह रहे हैं ओर हमारे कारण जो गन्दगी फैलती है, उसका निराकारण करना भी अपना धर्म समझें। जो वस्तु हम मन्दी कर रहे हैं उसी चीज को स्वच्छ रखना भी अपना वास्तविक कर्तव्य है। वायु दूषित कर देने का बदला किसी भूखे को भोजन खिला देने से पूरा समझना मात्र एक सन्तोष ही है। उचित बदला यही हो सकता है कि उस वायु को ही हम स्वच्छ बनाते रहें। वायु स्वच्छता का एकमात्र उपाय है तो वह यज्ञ ही है, परन्तु उस हवन की मात्रा इतनी होनी चाहिए कि प्रतिदिन उत्तरोत्तर बढ़ते हुए विषैलेपन का प्रभाव क्षीण कर सकें।
पुस्तक में यह भी बताया गया है कि हमारे पंच महायज्ञों में इस देवयज्ञ यानि हवन को भी एक महायज्ञ माना है। वह इसलिए कि पूरे नगर में यदि समस्त घरों से हवन की सुगन्धित पवन फैलेगी तो नगर भर का वायुमण्डल, जल, औषधि और आहार शुद्ध बना रहेगा। जिस एक काम से इतना बड़ा कार्य बनता हो तो उससे बड़ा महायज्ञ और कौन-सा होगा? हवन के कारण हमारे शत्रु भी शुद्ध वायु का लाभ प्राप्त कर सकते हैं तो इससे बड़ा पुण्य कार्य और क्या होगा? जाने-अनजाने आप असंख्य प्राणियों को जिस किसी प्रकार से लाभ पहुंचा सकते हैं तो यह यज्ञ है। इस हवन के साथ भावनाएं जुड़ी हुई हैं तथा मनुष्य को उद्यमी-परोपकारी बनाने की शिक्षा इन मन्त्रों द्वारा मिलती है। इसको विस्तार से बताने की आवश्यकता है। जहां तक हवन की अपनी विशेषता है वह अनूठी है, अनुपम है, तभी तो हम आर्यों ने इसे श्रेष्ठतम कर्म कहा है। हमारे प्रत्येक संस्कार तथा प्रत्येक सुख और दुःख के साथ यह श्रेष्ठ कर्म जुड़ा हुआ है, क्योंकि परोपकार एवं कर्तव्यपरायणता की जो भावना इसके साथ मेल खाती है वैसी और किसी कर्म से नहीं। आचार्य जी कहते हैं, अतः प्रिय शिष्यों! ऋषियों की इस पुनीत धरोहर को प्रज्वलित रक्खों। जो बातें तुम्हारी समझ से बाहर हैं उनको पोंगापन्थी कहकर परित्याग करने से पहले अपने आर्षग्रन्थों, गुरुजनों एवं निरन्तर स्वाध्याय से परीक्षा तो कर लो।
पुस्तक की समाप्ति पर लेखक महोदय कहते हैं कि सब यज्ञों से बढकर हमारा यज्ञ हवन-यज्ञ है, जिसके द्वारा हम प्राणीमात्र का उपकार कर सकते हैं। उपकार की अपेक्षा यज्ञ करना हमारा कर्तव्य भी तो है। ये तो वातावरण और हवा हमारे कारण दूषित हो जाती है, उसका निराकरण किया जाए। हम जिस संस्था में एकत्र रहते हैं या जिस परिवार में रह रहे हैं, इस परिवार और सदस्यों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग हैं। एक हवन-यज्ञ ही एक ऐसा यज्ञ है जिसे परिवार के सब सदस्यों को साथ-साथ लेकर मिल-जुलकर बैठने का एक साधन है। जीवन में जिस प्रकार खाना-पीना, सोना आवश्यक है उसी आवश्यकता की सूची में यदि हम इसे भी ले-लेवें तो यह जटिल काम नहीं है।
वेद का प्रत्येक मन्त्र भावनाओं और विचारों से इतना ओतप्रोत है कि ऋषि लोग भी पूरी थाह नहीं पा सकते। हम सब तो साधारण प्राणी हैं। ईश्वर की किसी भी रचना को हम पूरी तरह समझ नहीं पाते। चना का एक दाना मामूली-सा लगता है। प्राणी की भूख मिटाने का एक अच्छा अन्न है, किन्तु इस चने से भी कितनी तरह के भोजन और मिठाइयां बन सकती हैं, यह उसका विशेषज्ञ भी पूरी तरह नहीं जान पाता। इसके अतिरित वह एक चना विधिवत् संस्कारित होकर किसान के परिश्रम और प्रभु की कृपा से असंख्य दानों को पैदा कर देता है। इसी तरह भगवान् की वेदवाणी को जितना अधिक विचारेंगे, मनन करेंगे उतना ही ज्ञान बढ़ता जाएगा। परमात्मा के बनाए द्युलोक की तरह वेद का ज्ञान भी अति विस्तृत है। हमारी उड़ान कितनी भी तेज व ऊंची हो, पर द्युलोक में स्थान की कोई कमी नहीं है। इसीप्रकार वेदज्ञान में कोई कमी नहीं। विश्व की समस्त विद्याएं इसमें समाई हुई हैं। नदी के जल की तरह हम जितना जल उपयोग में ला सकें, ले-लेवें, प्रभु का यह भण्डारा अनन्त है। हमारी इस भौतिक अग्नि और जल के मेल से वैज्ञानिकों ने बड़े-बड़े इंजन व कल-कारखाने लगा दिये। हवन के मन्त्र भी समय के अनुसार संक्षिप्त और विस्तार से बोले जाते हैं। उन मन्त्रों के भाव को जानने के लिए तुम विद्यार्थियों को रुचि जगानी होगी, सत्संग और स्वाध्याय करना होगा। जितनी गहराई में जाओगे उतने ही अमूल्य विचारों के मोती प्राप्त होंगे। प्राप्ति के पश्चात् इतने विनीत और उदार बन जाओगे कि तुम्हारे मुंह से अनायास निकल पड़ेगा-ओ३म् स्वाहा। इदम् अग्नये इदन्नमम। इतना ही नहीं, जब सब यज्ञमय बन जाएंगे तब सारा विश्व शान्तिमय, शातिप्रिय बन जाएगा। आज जिस शान्ति की खोज प्राणीमात्र कर रहा है उसे वह खोज करनी नहीं पड़ेगी बल्कि शान्ति से ओत-प्रोत होते हुए एक स्वर से सब बोल उठेंगे-ओ३म् द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिब्र्रह्म शान्तिः सर्वम् शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। ओ३म् शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
पुस्तक में दैनिक यज्ञ के सभी मन्त्र भी स्वरों सहित दिए गये हैं। इसके आधार पर अपने घरों में दैनिक यज्ञ कर सकते हैं। पुस्तक के अन्त में पुस्तक के लेखक श्री गजानन्द आर्य जी का परिचय दिया गया है। लेखक 14 वर्षों तक ऋषि दयानन्द की उत्तराधिकारिणी परोपकारिणी सभा, अजमेर के महामंत्री तथा अनेक वर्षों तक प्रधान रहे हैं। लेखक की कुछ अन्य कृतियां हैं 1- आर्य समाजोदय, 2- आर्यसमाज की मान्यताएं, 3- मानवनिर्माण के स्वर्ण सूत्र एवं 4- वीरांगना महारानी कैकयी। यह पुस्तक यज्ञ के बारे में जानकारी प्राप्त करने तथा यज्ञ करने वाले बन्धुओं को यज्ञ कार्य करते रहने की प्रेरणा देती है। इसे पढ़कर यज्ञ विषयक सभी व अनेक भ्रान्तियां दूर होती है। इस पुस्तक का अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिये जिससे जिज्ञासु प्रवृत्ति के बन्धु अपने नित्य कर्तव्यों मुख्य दैनिक यज्ञ को जानकर प्रतिदिन यज्ञ करके लाभान्वित हो सकें। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य