कविता – 17
रात गई सो बात गई अब भोर सुनहरी आई है।
नई उमंगें और नई तरंगें साथ में अपने लाई है ।।
आलस्य त्याग बिस्तर छोड़ो करो स्वागत प्रातः का।
चीं चीं कर चिड़िया जगा रही जो दूर कहीं से आई है।।
छोड़ो कल रात की बातें मत नष्ट करो शक्ति मन की।
देखो ! मंद सुगंध समीर तुमको मीठा संदेशा लाई है ।।
नई आशा दे भोर की आभा ऊर्जा का नवस्रोत बहे।
गौरवपूर्ण उत्सव की थाली ये खूब सजाकर लाई है।।
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ” एक अमर सन्देश।
साधना शिक्षा ।और समर्पण से जीवन ने ली अंगड़ाई है।।
चरैवेति चरैवेति – यही साधना अपनी है मंत्र प्रगति का।
‘राकेश’ पकड़ना डोर तू इसकी कर इसी से आशनाई है।।
(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत