रामलीला मैदान में उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था-”हमारे सम्मुख दो आदर्श हैं। एक आदर्श है बुद्घ का, दूसरा है युद्घ का। हमें बुद्घ या युद्घ में से एक को अपनाना होगा। यह हमारी दूरदर्शिता पर निर्भर है कि हम बुद्घ की आत्मघाती नीति को अपनायें या युद्घ की विजयप्रदायिनी वीर नीति को।”
1957 तक हमारे तत्कालीन नेतृत्व के चीन के साथ संबंधों की परछाई दिखने लगी थी और क्रांतिवीर सावरकर को स्पष्ट होने लगा था कि चीन के इरादे नेक नही हैं। उसके प्रति हमारी सरकार और हमारा नेता नेहरू जिस नीति का अनुकरण कर रहे हैं, वह विस्तारवादी और साम्राज्यवादी चीन के साथ भारत के राष्ट्रीय हितों के दृष्टिगत उचित नही कही जा सकती। इसलिए 1947 में जब स्वतंत्रता मिल चुकी थी तो भी 1957 में सावरकर बुद्घ (छदम अहिंसावाद, जिससे राष्ट्र का अहित होता है) और युद्घ (अपने राष्ट्रीय हितों के लिए मजबूती से उठ खड़े होने में से) किसी एक को चुनने की बात कह रहे थे।
11 मई 1957 को वीर सावरकर ने दिल्ली में हिंदू महासभा के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा था-”आप लोग धन्यवाद के पात्र हैं कि आज की विषम और विपरीत परिस्थितियों में भी हिंदू ध्वज के नीचे डटे खड़े हैं। गत बीस वर्षों में जिन्होंने मुझको नेता मानकर अपमान और दरिद्रता को सहकर भी हिंदू समाज को बलवान बनाने के हेतु कष्ट उठाये, उन्हें मैं कुछ नही दे सका। अपना सब कुछ बलिदान करके भी आप मेरे साथ हैं। आपकी दृढ़ता, अडिगता और सिद्घांत निष्ठा देखकर मैं प्रसन्न हूं। इस हिंदू ध्वज को कंधे पर रखकर आगे बढिय़े। मैं जानता हूं कि यह संघर्ष आसान नही है। लेकिन मैं पूर्ण आशावादी हूं, निराशावादी नही। आप लोग पूर्ण आशा और विश्वास के साथ आगे बढिय़ेगा। अंतिम विजय हमारी है।”
आज जब देश को तोडऩे के लिए तथा देश में साम्प्रदायिक विष फेेलाकर हिंदुत्व के विनाश की योजनाएं बनाकर ‘लव जेहाद’ या मुस्लिम आतंकवाद फेेलाकर देश को संकटों में डाला जा रहा है, तब स्वातंत्र्य वीर सावरकर का उपरोक्त उदबोधन आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था।
सावरकर देश की सुरक्षा के लिए ‘राजनीति का हिंदूकरण और हिंदुओं का सैनिकीकरण’ करने के पक्ष में थे इसके लिए उन्होंने संघर्ष किया। अपने ढंग से तत्कालीन नेतृत्व को भी सजग किया कि बुद्घ के मार्ग को छोड़कर आंखें खोलते हुए सामने खड़े सच को देखो और देश के सैनिकीकरण की योजना पर काम करो। गोआ को पुर्तगालियों के नियंत्रण से मुक्त कराने का उदघोष सबसे पहले वीर सावरकर ने ही किया था। 1955 में मेरठ से सत्याग्रहियों का एक जत्था गोआ जाते समय मार्ग में बंबई रूककर वीर सावरकर से आशीर्वाद लेने पहुंचा, तो उन्होंने जत्थे के उपनेता और दैनिक प्रभात (मेरठ) के यशस्वी संपादक श्री वि.सं. विनोद से कहा था-”आप क्रांति भूमि मेरठ से इतनी दूर गोआ को मुक्त कराने की अभिलाषा से गोलियां खाने, बलिदान देने आये हो, यह आप लोगों की देशभक्ति का परिचायक है। किंतु सशस्त्र पुर्तगाली दानवों के सम्मुख आप नि:शस्त्र, खाली हाथ, मरने को जाओ, यह नीति न मैंने कभी ठीक समझी, न अब ठीक समझता हूं। जब आप लोगों के हृदय में बलिदान देने की भावना है तो आप लोग हाथों में राइफलें लेकर क्यों नही जाते? शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित होकर जाओ और शत्रु को मारकर मर जाओ।” तब उन्होंने कुछ देर रूककर पुन: जो कुछ कहा था वह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है। उन्होंने कहा-गोआ की मुक्ति का काम तो सरकार को सेना को सौंप देना चाहिए। सशस्त्र सैन्य कार्यवाही से ही गोआ मुक्त होगा। सत्याग्रह के स्थान पर शस्त्राग्रह से ही सफलता मिलेगी।
1961 में जब सरकार को गोआ में सैन्य कार्यवाही करके ही उसे मुक्त कराया जा सका तब वीर सावरकर की 1955 की भविष्यवाणी स्वत: सत्यसिद्घ हो गयी। 1962 ई. में चीन के हाथों देश के नेतृत्व की गलतियों के कारण देश को भारी अपमान झेलना पड़ा और चीन हमारा बड़ा भूभाग भी छीनकर ले गया। वीर सावरकर को यह सब देखकर असीम पीड़ा हुई थी। अपने वीर सावरकर सदन (बम्बई) की एक कोठरी में पड़े इस स्वातंत्रय वीर सावरकर को उस समय असीम वेदना ने घेर लिया था। उन्होंने बड़े ही पीड़ादायक शब्दों में अपनी वेदना को यूं प्रकट किया था-”काश, अहिंसा, पंचशील और विश्वशांति के भ्रम में फंसे ये शासनाधिकारी मेरे सुझाव को मानकर सबसे पहले राष्ट्र का सैनिकीकरण कर देते तो आज हमारी वीर व पराक्रमी सेना चीनियों को पीकिंग तक खदेड़ कर उनका मद चूर चूर कर डालती। किंतु अहिंसा और विश्वशांति की काल्पनिक उड़ान भरने वाले ये महापुरूष (नेहरू की ओर संकेत है) न जाने कब तक देश के सम्मान को अहिंसा की कसौटी पर कसकर परीक्षण करते रहेंगे?”
ये नेहरू ही थे जो अपनी भूलों पर पछताये और उन्हें चीन के हाथों मिली पराजय से इतना आघात लगा कि वे पक्षाघात से पीडि़त हो गये। 1962 के पश्चात उनका स्वास्थ्य गिरता गया और उनके अंतिम दिनों में एक अवसर ऐसा भी आया कि जब ‘आराम हराम’ है, का उदघोष करने वाले नेहरू केवल आराम कर रहे थे, और उस काल में देश का कोई नेता नही था। वह काम करने की स्थिति में नही थे और कांग्रेस उनके जीते जी उनके स्थान पर नेता चुनने की स्थिति में नही थी। यदि नेहरू सावरकर की चेतावनी को समझ लेते तो उन्हें इन दुर्दिनों से न गुजरना पड़ता जिनके कारण उनका स्वयं का व देश का स्वास्थ्य खराब हुआ। सचमुच सनक व्यक्ति के लिए आत्मघाती सिद्घ होती है। हर सिद्घांत की अपनी सीमायें हैं, जिनका अतिक्रमण नही होना चाहिए।
कांग्रेस के नेतृत्व की इन भूलों पर सावरकर बहुत खिन्न थे। वह ये नही समझा पा रहे थे कि जब चीन जैसे देश अणुबम बनाने की बात कर रहे हैं, तो उस समय भारत ‘अणुबम नही बनाएंगे’ की रट क्यों लगा रहा है? क्या इस विशाल देश को अपनी सुरक्षा की कोई आवश्यकता नही है? वह नही चाहते थे कि इतने बड़े देश की सीमाओं को और इसके महान नागरिकों को रामभरोसे छोड़कर चला जाए। इसलिए उन्होंने ऐसे नेताओं को और उनकी नीतियों को लताड़ा जो देश के भविष्य की चिंता छोड़ ख्याली पुलाव पका रहे थे। उन्होंने कहा था-”भारत के शासनाधिकारियों को यह अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि आज के युग में ‘जिसकी सेना शक्ति उसका राज सुरक्षित’ है का सिद्घांत ही व्यावहारिक है। यदि हमारे शत्रु चीन के पास अणुबम है, हाइड्रोजन बम है तो हमें उसके मुकाबले के लिए उससे भी अधिक शक्तिशाली बमों के निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। ‘हम अणुबम कदापि न बनायेंगे’ की घोषणा मूर्खता और कायरता का ही परिचायक है।”
कांग्रसी सरकार और कांग्रेसी नेता की आंखें खुलीं और उसने कुछ महत्वपूर्ण निर्णय लिये। देश के कम्युनिस्ट रक्षामंत्री कृष्णामेनन को उनके पद से हटाया गया और महाराष्ट्र के नेता यशवन्तराव चव्हाण को देश का नया रक्षामंत्री बनाया गया। तब सावरकर जी ने उन्हें बधाई संदेश भेजा और कहा-”आप वीर भूमि महाराष्ट्र से हैं। अत: मुझे विश्वास है कि आपके दृढ़ नेतृत्व में हमारा रक्षा विभाग अविलंब शक्तिशाली व दृढ़ नीति अपनाकर राष्ट्र की स्वाधीनता की रक्षा में पूर्ण समर्थ होगा।”
सरकार ने अब सेना बढ़ाने की भी घोषणा की और सैन्य सामग्री बनाने के कारखाने भी स्थापित करने आरंभ किये। तब वीर सावरकर ने देश में कम से कम 25 लाख सैनिकों की नियमित सेना बनाने और उसे आधुनिकतम शस्त्रास्त्रों से लैस करने की बात कही थी।
जब 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो भारत की बढ़त लेती सेना को देखकर वह बहुत प्रसन्न थे वह उस समय शय्या पर थे। उनके कमरे की दीवार पर भारत का मानचित्र लटका हुआ था। तब उस पर अंगुली रखकर कहने लगे।-”इस जगह शत्रु हमारे जाल में घिर जाएगा। तनिक तेजी से यदि हमारी विजयवाहिनी सेना बढ़ी और बस एक बार लाहौर हाथ में आ गया, तो फिर रावल पिंडी क्या काबुल तक हम मंजिल पा सकते हैं।”अखण्ड भारत का सपना बुनने वाले वीर सावरकर को अपनी विजयवाहिनी सेना के बढ़ते कदमों को देखकर लगा था कि अब उनके अखण्ड भारत का सपना साकार होने ही वाला है। इसलिए उन्होंने घोषणा कर दी थी कि मेरी अंत्येष्टि सिन्धु नदी के तट पर हो। पर जब ताशकंद समझौते के समय रणक्षेत्र में मिली विजय को मंच पराजय में बदल दिया गया तो-वीर सावरकर की वंदना फिर फूट पड़ी-”हजारों वीर सैनिकों ने अपना बलिदान देकर जो विजयश्री प्राप्त की, उसे ये गांधीवादी नेता गंवा देंगे। अब इनसे किंचित भी आशा करना व्यर्थ है।”
आर्य समाज अपने राष्ट्रवादी चिंतन के लिए प्रसिद्घ रहा है। आज की विषम परिस्थितियों में स्वामी श्रद्घानंद के ‘हिन्दू संगठन’ के सपने को साकार करने के लिए इस संगठन को राष्ट्रनिर्माण के लिए हिन्दू महासभा का साथ देना चाहिए। चुनौतियां आज भी हैं और कल भी रहेंगी। मोदी सावरकर के सपने की एक आशा की किरण हैं, परंतु फिर भी व्यक्ति सांत है, जबकि राष्ट्र सनातन है, सनातन की रक्षा सनातन नीतियों से ही हो सकती है। इसलिए एक ऐसी कार्ययोजना पर कार्य करने की आवश्यकता है जिससे नेता भटकें नही और राष्ट्रीय हितों की कहीं उपेक्षा न करें। इस कार्ययोजना पर काम करने के लिए जो भी मैदान में आता है, उसी का स्वागत है। इस कार्य योजना के दृष्टिगत वीर सावरकर की भारतीय राजनीति में प्रासंगिकता सदा बनी रहेगी। ‘बुद्घ नही युद्घ’ की उनकी नीति का सार यही है।