गैरों के दुर्गुण जानकर, दुर्जन खुशी मनाय

vijender-singh-aryaबिखरे मोती भाग-70
गतांक से आगे….
रोगी को कड़वी दवा,
लगता बुरन परहेज।
विपदा कुण्ठित मति करै,
और घट जावै तेज ।। 766 ।।

कुण्ठित मति-बुद्घि का भ्रष्ट होना,

आया है संसार में,
कर पुण्यों का योग।
कर्माशय से ही मिलें,
आयु योनि भोग ।। 767 ।।

कर्माशय-प्रारब्ध

पूर्णायु बल सुख मिलै,
सेहत की सौगात।
परिमित भोजन जो करे,
लाख टके की बात ।। 768 ।।

निन्दित कपटी आलसी,
देश काल का न ध्यान।
ऐसे व्यक्ति को कभी,
मत देना घर स्थान ।। 769 ।।

निर्दयी बैरी मूर्ख हो,
और हो अति कंजूस।
इनसे कभी मांगो नही,
बेशक बिछ जाए फूस ।। 770 ।।

बेशक बिछ जाए फूस-अर्थात मृत्यु शैय्या

पुत्रों के संग नित कलह,
यश का करता नाश।
शत्रु को हर्षित करै,
और लक्ष्मी का हो हृास ।। 771 ।।
गैरों के दुर्गुण जानकर,
दुर्जन खुशी मनाय।
गुणों की कोई श्लाघा करै,
दुष्ट न रूचि दिखाय ।। 772 ।।

भाव यह है कि दुर्जन लोग दूसरों के उत्तम गुणों को जानने की वैसी इच्छा नही करते जैसी उनके दुर्गुणों को जानने की इच्छा करते हैं। यदि कोई किसी की प्रशंसा करता है, तो उसे दुष्ट लोग उपेक्षा से सुनते हैं। कोई रूचि नही लेते हैं, क्योंकि उनका मूलत: स्वभाव निंदा चुगली सुनने का अभ्यस्त होना है।

बेशक सुंदर शरीर हो,
मक्खी ढूंढ़ें घाव।
गुणों को अनदेखा करै,
दुष्ट का यही स्वभाव ।। 773 ।।

धर्म का ही कर आचरण,
धर्म अर्थ का मूल।
सूर्य में अमृत बसै,
अटल सत्य मत भूल ।। 774 ।।
भाव यह है कि हे मनुष्य! यदि तेरी अर्थ की चाहना है, तो तू सदा धर्म का आचरण कर, क्योंकि धर्म से अर्थ कभी अलग नही होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्य से अमृत कभी अलग नही होता है। यह नियम शाश्वत है, इसे कोई बदल नही सकता है। वेद में भी कहा है-‘सोमो गौरी अधिश्रित:’ (अथर्ववेद काण्ड 14) अर्थात सोम-अमृत सूर्य में रहता है। सोम रश्मियों के द्वारा भूमण्डल तक पहुंचकर प्राणी-अप्राणी जगत को पुष्ट करता है।

क्रोध हर्ष के वेग को,
जो जन देय लगाम।
श्री का वह स्वामी रहै,
लोग करें प्रणाम ।। 775 ।।

बुद्घिबल के सामने,
और सभी बल न्यून।
महत कहा इसे सांख्य ने,
जगाता यही जुनून ।। 776 ।।
क्रमश:

 

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