जलियांवाला बाग यह बोला …
कविता – 16
जल
मैंने पूछा जलियांवाले बाग ! व्यथा तू कह दे मन की।
कोयल है क्यों मौन यहां की कागा पीर बढ़ाते मन की।।
जलियांवाला बाग यह बोला – व्यथा नहीं मेरे मन में।
सौभाग्य समझता हूं अपना, छाया जनगण के मन में।।
फूलों की कलियों से पूछा क्यों नहीं खिलना चाहती हो ?
सूनी सूनी सी मांग तुम्हारी तुम किससे मिलना चाहती हो ?
वे बोलीं – यहाँ वीरों की शैय्या बनी हमारे आंगन में।
सजने की नहीं चाह हमारी, गौरव बसा अपने मन में।।
पौधों की डाली से पूछा-किसको झुक कर देख रही हो ?
किस को खोज रही हो प्रिये! किससे क्या तुम पूछ रही हो ?
वे बोलीं – इस बाग की माटी सोने से भी मूल्यवान है।
झुककर नमन हमारा इसको भारत की यह पहचान है।।
यहां खून के गारों के गमलों में फूल क्रांति के खिलते।
सूनापन नहीं अखरता मन में अपने ‘अपनों’ से मिलते।।
ऋतुराज यहां पर आकर जब – जब अपना डेरा डाले।
क्रांति के गीतों को गाकर अपने मन का मोर नचा ले ।।
यह ‘शोक स्थल’ नहीं भारत का उसके गौरव का स्थल है।
हमारे क्रांतिकारी योद्धाओं का दीप्तिमान रण स्थल है।।
यहां वायु झुक झुक नमन करे सूरज भी वंदन करता है।
यहां चांद पूर्णिमा को आकर अपनी शीतलता भरता है।।
यहां पुष्प अपने आप हाथ से चढ़ जाते हैं वेदी पर।
सौभाग्य नहीं मिलता, उनको गद्दारों की छाती पर।।
यहां शहीद हो गए छोटे बालक कहते देश के बच्चों से।
आजादी बड़ी कीमती नेमत, रखना सुरक्षित हाथों में।।
जिन माता और बहनों का बलिदान यहां से जुड़ा हुआ।
वे भी गौरव से बोल रहीं, सिंदूर किसी का जुदा हुआ।।
कण-कण में छिटका दिख रहा भारत का गौरवबोध यहां।
‘राकेश’ नमन शत-शत करता, पा राष्ट्रवाद का बोध यहां।।
(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत