क्या धर्म अफीम है* जैसा कि कार्ल मार्क्स ने बताया है ?

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कार्ल मार्क्स ने धर्म के स्थान पर मत को धर्म का स्वरुप समझ लिया । जैसा उन्होंने देखा और इतिहास में पढ़ा, उसको देख कर तो सभी कोई धर्म के विषय में इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा, जैसा मार्क्स ने बतलाया ।
कार्ल मार्क्स ने अपने चारों और क्या देखा ?
मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा यूरोप, एशिया में इस्लाम के नाम पर भयानक तबाही, चर्च के पादरियों द्वारा धर्म के नाम पर सामान्य जनता पर अत्याचार को देखने पर उनका धर्म से विश्वास उठ गया । इसलिए कार्ल मार्क्स ने धर्म को अफीम कि संज्ञा दे दी ।
जैसे अफीम को ग्रहण करने के पश्चात मनुष्य को सुध-बुध नहीं रहती, वैसा ही व्यवहार धर्म के नाम पर मत को मानने वाले करते हैं । धर्म अफीम नहीं है, अपितु उत्तम आचरण है । इसलिये धर्म को अफीम कहना गलत है, परन्तु मत को अफीम कहने में कोई बुराई नहीं हैं ।
धर्म और मत के अंतर को ठीक प्रकार से समझ लेने पर मनुष्य अपने चिंतन मनन से आसानी से यह स्वीकार करके श्रेष्ठ कल्याणकारी कार्यों को करने में पुरुषार्थ करना धर्म कहलाता है | इसलिए उसके पालन में सभी का कल्याण है ।
…… डा. विवेक आर्य |

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