धूप स्नान करने के बाद भी हम विटामिन डी की कमी के क्यों शिकार हैं ?
वीनू संधू
डॉक्टरों और विशेषज्ञों की मानें तो लोग बड़ी तेजी से विटामिन डी की कमी के शिकार हो रहे हैं। हालत यह हो गई है कि भारत ही नहीं पश्चिमी देशों में भी विटामिन डी की कमी एक महामारी का रूप लेती जा रही है।
इंटरैशनल आस्टियोपोरोसिस फाउंडेशन का अनुमान है कि भारत के शहरों में रहने वाले करीब 80 फीसदी लोग विटामिन डी की कमी के शिकार हैं। भारत में विटामिन डी का सामान्य स्तर 75 से 185 नैनोमोल्स प्रति लीटर (एनएमपीएल) माना जाता है। हालांकि कुछ पैथोलॉजी लैब इसकी ऊपरी सीमा 200 एनएमपीएल मानते हैं। सवाल उठता है कि क्या भारत में विटामिन डी की कमी एक महामारी का रूप लेती जा रही है? दिल्ली स्थित आकाश हेल्थकेयर के प्रबंध निदेशक एवं वरिष्ठ सलाहकार आशिष चौधरी कहते हैं, ‘मेरे पास आने वाले ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी है जो इस विटामिन की कमी के चलते होने वाले दर्द और पीड़ा से जूझ रहे हैं। यह विटामिन शरीर में कैल्शियम के अवशोषण के लिए जरूरी होता है जिससे हड्डिïयों और मांसपेशियों को मजबूती मिलती है।’ डॉ चौधरी बताते हैं कि एक समय खुद उनका विटामिन डी स्तर भी गिरकर 13 एनएमपीएल तक आ गया था।
आम तौर पर विटामिन डी की कमी का शिकार महिलाएं अधिक होती हैं। खास तौर पर गर्भवती या रजोनिवृत्त या बुजुर्ग महिलाएं इसकी चपेट में जल्दी आती हैं। लेकिन अब डॉक्टरों के पास आने वाले मरीजों का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। इन मरीजों में 20-30 साल की उम्र के पुरुष भी शामिल होने लगे हैं। डॉ चौधरी कहते हैं, ‘कभी-कभी तो छह महीने के नवजात बच्चे भी विटामिन डी की कमी के शिकार हो जा रहे हैं। उसकी वजह यह है कि सूरज की रोशनी में बैठकर बच्चों की तेल मालिश करने की परंपरा खत्म हो चली है।’ विटामिन डी का सबसे बड़ा स्रोत सूरज की रोशनी है। इंसानों के अलावा जानवर भी अपनी जरूरत लायक विटामिन डी सूरज की रोशनी में रहते हुए ही लेते हैं। खास बात यह है कि सुबह सात से 11 बजे के बीच की धूप इसके लिए अधिक मुफीद होती है। धूप सेंकने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि आपके शरीर का करीब 40 फीसदी हिस्सा खुला हो और कम-से-कम आधे घंटे तक धूप में बैठें।
हालांकि ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में रहते हुए भी भारत के लोग शायद ही ऐसा करते हैं। बदलते वक्त के साथ बढ़ी कामकाजी व्यस्तता होने, रहन-सहन के मौजूदा माहौल में सूरज की रोशनी के भी लग्जरी हो जाने और प्रदूषण के अलावा खुले शरीर को लेकर व्याप्त सामाजिक बुराइयों को इसके लिए जिम्मेदार माना जाता है। भारत के लोगों की त्वचा में मौजूद मेलेनिन भी शरीर के भीतर विटामिन डी के समाहित होने को मुश्किल बना देता है। त्वचा में मेलेनिन का स्तर ही भारतीय निवासियों की त्वचा का रंग भूरा बनाता है।
समस्या इस वजह से और बढ़ जाती है कि इस बीमारी का जल्दी पता भी नहीं चल पाता है। जब तक किसी रोगी के शरीर में इसकी कमी के लक्षण साफ तौर पर न दिखने लगें तब तक कुछ कहा नहीं जा सकता है। हड्डिïयों का कमजोर होना और कैल्शियम की कमी (आस्टियोपोरोसिस) इसके प्रमुख लक्षण हैं। बच्चों में इस बीमारी के लक्षण कहीं अधिक प्रत्यक्ष और चिंताजनक होते हैं, जैसे उनका विकास बाधित हो जाता है, हड्डिïयां कमजोर हो जाती हैं या शिर का आकार बड़ा हो जाता है। डॉ चौधरी के मुताबिक बच्चों में दिखने वाले लक्षणों को आसानी से पहचाना जा सकता है लेकिन बड़े-बुजुर्गों के मामले में लोग सुस्ती या कमजोरी को कसरत या शारीरिक गतिविधि की कमी मान लेते हैं।
यही वजह है कि अब डॉक्टरों ने सुस्ती या कमजोरी की शिकायत लेकर आने वाले मरीजों को सामान्य तौर पर विटामिन डी-3 टेस्ट कराने के लिए कहना शुरू कर दिया है। दरअसल इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने भारतीय आबादी में विटामिन डी की बढ़ती समस्या के प्रति डॉक्टरों को जागरूक करने का जो फैसला किया था, उसके बाद से ही डॉक्टर अधिक संवेदनशील हुए हैं। आईएमए ने विटामिन डी कमी के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए ‘राइज ऐंड शाइन’ अभियान चलाया था। असल में मेडिकल समुदाय की चिंता बढऩे की कुछ अहम वजह हैं। अक्सर विटामिन डी को कम करके आंका जाता है लेकिन शरीर के भीतर इसकी खास भूमिका होती है। हड्डिïयों और मांसपेशियों को मजबूती देने के अलावा विटामिन डी शरीर में ऊर्जा के स्तर को बनाए रखता है, दिल की धमनियों को स्वस्थ रखता है, मस्तिष्क को सक्रिय रखता है और प्रजनन में भी योगदान देता है। इसके अलावा बीमारियों से लडऩे में शरीर को सबसे ताकतवर सुरक्षा देने वाली लाल रक्त कणिकाओं (आरबीसी) का संश्लेषण भी करता है। इस तरह विटामिन डी शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में भी योगदान देता है।
शरीर के भीतर विटामिन डी की कमी के बारे में जानने के लिए खून की कैल्सीफेडियोल या 25-हाइड्रॉक्सी विटामिन-डी जांच की जाती है। कुछ डॉक्टर कहीं अधिक महंगी जांच 125-हाइड्रॉक्सी विटामिन डी-3 कराने को कहते हैं। हालांकि यह जांच विटामिन डी के सक्रिय स्वरूप की गणना के लिए की जाती है। दरअसल किडनी में विटामिन-डी के किडनी में सक्रिय होने के बाद पैदा होने वाला हॉर्मोन ही सक्रिय स्वरूप का स्तर तय करता है। लेकिन इस जांच की जरूरत हमेशा नहीं पड़ती है। आम तौर पर 25-हाइड्रॉक्सी विटामिन-डी जांच ही काफी होती है।
जब किसी व्यक्ति के शरीर में इस विटामिन की कमी की पुष्टि हो जाती है तो डॉक्टर इसकी कमी की भरपाई करने वाली दवाएं खाने को कहता है क्योंकि यह कमी दूर करने का कोई और तरीका नहीं है। सब्जियों और दूध के इस्तेमाल से विटामिन डी का स्तर बढ़ाने में कोई मदद नहीं मिलती है।
बहरहाल चबाने वाले टैबलेट, सैशे, कैप्सूल और सीरप के रूप में विटामिन-डी की दवाएं आती हैं। लेकिन कभी भी डॉक्टर की सलाह लिए बगैर इन दवाओं का सेवन नहीं करना चाहिए। अगर जरूरत से ज्यादा विटामिन-डी ले लिया जाए तो यह विटामिन की कमी जितना ही नुकसानदायक हो सकता है। विटामिन-डी की विषाक्तता होने से खून में कैल्शियम की मात्रा बढऩे या हाइपरकैल्शिमिया की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे रोगी में उल्टी आने, मतिभ्रम, पेट में दर्द, अपच, दस्त, थकान, चक्कर आने और घबराहट जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं। यह उसके हृदय, लीवर और मस्तिष्क को भी प्रभावित कर सकता है। विटामिन-डी की अधिक मात्रा हड्डिïयों को भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर सकती है। अत्यधिक गंभीर स्थिति में यह किडनी को भी काफी नुकसान पहुंचा सकता है।
हालांकि इस विटामिन की अत्यधिक कमी को देखते हुए कुछ लोगों का यह मानना है कि दूध और चीज़ जैसे खाद्य उत्पादों को विटामिन-डी से लैस किया जाना चाहिए। बच्चों के लिए चॉकलेट के स्वाद में स्वास्थ्य पेय मुहैया कराने वाली एक कंपनी विटामिन-डी से भरपूर संस्करण भी लेकर आई है। डॉ चौधरी की मानें तो इस मामले में ऊपर से नीचे का नजरिया अपनाना सही होगा। वह कहते हैं कि आयोडीन नमक की तरह सरकार को विटामिन-डी की बढ़ती समस्या के मामले में भी हस्तक्षेप करने की जरूरत है। डॉ चौधरी कहते हैं, ‘नमक में आयोडीन की मात्रा अनिवार्य किए जाने से आज इसकी कमी के मामले बहुत कम सामने आते हैं। इसी तरह का उपाय विटामिन-डी के मामले में भी करने की जरूरत है। हॉन्गकॉन्ग, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने दूध और चीज़ जैसे उत्पादों में विटामिन-डी के अंश डालना जरूरी कर दिया है। वैसा ही कदम भारत में भी उठाया जाना चाहिए।’
हालांकि दिल्ली स्थित न्यूट्रीहेल्थ की संस्थापक शिखा शर्मा खाने-पीने के सामान में विटामिन को शामिल करने की सलाह से इत्तेफाक नहीं रखती हैं। वह कहती हैं, ‘मैं सामान्य खाद्य पदार्थों को सशक्त बनाने के खिलाफ हूं। वैसा होने पर लोग अपने विटामिन-डी उपभोग को लेकर लापरवाह हो जाएंगे जो खतरनाक स्तर तक भी पहुंच सकता है।’ हालांकि जब उनसे पूरक दवाएं लेने पर लोगों के शरीर में विटामिन-डी की मात्रा बढऩे की शिकायतों के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि अंतिम बार दवा लेने के करीब चार-छह हफ्ते बाद ही यह जांच दोबारा की जानी चाहिए।
विटामिन-डी को लेकर आज के चिकित्सा जगत में काफी शोर मचा हुआ है लेकिन अभी तक इसकी पूरक दवा की सही मात्रा, इस्तेमाल की अवधि और सटीक परीक्षण को लेकर आमराय नहीं बन पाई है। ऐसे ही कई अन्य सवालों के जवाब आने भी अभी बाकी हैं।