हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्म नहीं अपितु मत अथवा पंथ है । धर्म और मत में भेद है ।
१. धर्म ईश्वर प्रदत है | परन्तु शेष मनुष्य कृत मत-मतान्तर है ।
२. धर्म लोगो को जोड़ता है | परन्तु मत विशेष लोगो में अन्तर को, दूरियों को बढ़ावा देता है ।
३. धर्म का पालन करने से समाज में प्रेम और सोहार्द बढ़ता है | परन्तु मत विशेष का पालन करने से व्यक्ति अपने मत वाले को मित्र और दूसरे मत वाले को शत्रु मानने लगता है ।
४. धर्म क्रियात्मक वस्तु है | परन्तु मत विश्वासात्मक वस्तु है ।
५. धर्म मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल अथवा मानवी प्रकृति का होने के कारण स्वाभाविक है और उसका आधार ईश्वरीय अथवा सृष्टि नियम है | परन्तु मत मनुष्य कृत होने से अप्राकृतिक अथवा अस्वाभाविक है ।
६. धर्म एक ही हो सकता है | परन्तु मत अनेक होते है ।
७. धर्म सदाचार रूप है | अत: धर्मात्मा होने के लिये सदाचारी होना अनिवार्य है । परन्तु मत अथवा पंथ में सदाचारी होना अनिवार्य नहीं है ।
८. धर्म ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है अथवा धर्म अर्थात धार्मिक गुणों और कर्मों के धारण करने से ही मनुष्य मनुष्यत्व को प्राप्त करके मनुष्य कहलाने का अधिकारी बनता है | परन्तु मत मनुष्य को केवल पन्थाई या मज़हबी अथवा अन्धविश्वासी बनाता है । दूसरे शब्दों में मत अथवा पंथ पर ईमान लाने से मनुष्य उस मत का अनुयायी बनता है, न कि सदाचारी या धर्मात्मा बनता है ।
९. धर्म मनुष्य को ईश्वर से सीधा सम्बन्ध जोड़ता है और मोक्ष प्राप्ति निमित धर्मात्मा अथवा सदाचारी बनना अनिवार्य बतलाता है | परन्तु मत मुक्ति के लिए व्यक्ति को पन्थाई अथवा मती का मानने वाला बनना अनिवार्य बतलाता है । और मुक्ति के लिए सदाचार से अधिक आवश्यक उस मत की मान्यताओं का पालन करना बतलाता है ।
१०. धर्म सुखदायक है | परन्तु मत दुखदायक है ।
११. धर्म में बाहर के चिन्हों का कोई स्थान नहीं है, क्योंकि धर्म लिंगात्मक नहीं है – न लिंगम धर्मकारणं अर्थात लिंग (बाहरी चिन्ह) धर्म का कारण नहीं है । परन्तु मत के लिए बाहरी चिन्हों का रखना अनिवार्य है जैसे एक मुसलमान के लिए जालीदार टोपी और दाढ़ी रखना अनिवार्य है ।
१२. धर्म दूसरों के हितों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति तक देना सिखाता है | परन्तु मज़हब अपने हित के लिए अन्य मनुष्यों और पशुओं की प्राण हरने के लिए हिंसा रुपी क़ुरबानी का सन्देश देता है ।
….. डा. विवेक आर्य |