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राजनीति

इस समय कांग्रेस देश को और देश कांग्रेस को नहीं समझ पा रहा है


हितेश शंकर

परस्पर विरोधी विचार रखने वालों के लिए भी सम्मान और सौजन्यता, वामपंथ के अपवाद को छोड़ दें तो, भारतीय लोकतंत्र और राजनीति की विशेषता रही है। राज जाने के बाद वामपंथी/ खालिस्तानी अराजकता को पोसती कांग्रेस यह परम्परा भूल गई।

क्याआपको जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे…’ के नारे याद हैं? क्या आप बता सकते हैं कांग्रेस तब किस पाले में खड़ी थी?
क्या आपको संसद हमले में शामिल आतंकी चेहरे याद हैं। … जब अफजल हम शर्मिंदा हैं, ‘तेरे कातिल जिंदा हैं’ के नारों से देश की न्यायपालिका को ललकारा जा रहा था, तब कांग्रेस खामोश क्यों थी?

आपको किसानों के वेश में लालकिले पर तिरंगे का अपमान करते खालिस्तानी तो याद होंगे! देश की सबसे पुरानी पार्टी की तब क्या प्रतिक्रिया थी?
लगता है कांग्रेस की रीति-नीतियों से खिन्न देश की जनता ने जिस अनुपात में इस दल से दूरी बनाई, उससे ज्यादा तेजी से कांग्रेस ने इस देश, लोकतांत्रिक परंपराओं और राष्ट्रभाव से दूरी बनाई है।

आज इस देश के सामने कई प्रश्न खड़े हैं। पहला, क्या प्रधानमंत्री केवल किसी दल का होता है? क्या प्रधानमंत्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी निरपेक्ष रूप से केवल एसपीजी की होती है? क्या किसी राजनीतिक दल का विरोध करते-करते राष्ट्र के विरोध की अनुमति है या दी जा सकती है? इन सबका उत्तर है- नहीं। हां, इसके कारण अलग-अलग हैं।

पंजाब में जिस तरह प्रधानमंत्री का काफिला पुल पर 20 मिनट अटका रहा और सड़क जाम किए प्रदर्शनकारी चंद कदमों की दूरी पर डटे रहे, वह अभूतपूर्व है। स्वाभाविक ही ट्विटर, फेसबुक की आभासी दुनिया से लेकर गली-मोहल्लों की वास्तविक दुनिया में यह चर्चा का विषय है। राजनीतिक दलों की सहभागिता वाली व्यवस्था की विशेषता होती है असहमति। लेकिन अगर किसी पार्टी का विरोध करते-करते नौबत राष्ट्र के विरोध की आ जाए, तो यह प्रवृत्ति गंभीर है और खतरनाक भी। आज कांग्रेस वही कर रही है।

पंजाब सरकार प्रधानमंत्री की सुरक्षा में किसी भी तरह की ‘चूक’ से इनकार कर रही है। वहीं इसके लिए एसपीजी को सवालों के घेरे में खींचने की कोशिश हो रही है। एसपीजी एक्ट की तकनीकी भाषा को बिना पढ़े भी इस देश की जनता जानती है कि जब भी प्रधानमंत्री कहीं जाते हैं तो उनके बिल्कुल आसपास के सुरक्षा घेरे के अतिरिक्त सारा इंतजाम स्थानीय तंत्र को ही करना होता है। अगर प्रधानमंत्री की सुरक्षा केवल और केवल एसपीजी की ही जिम्मेदारी होती तो इसका आकार क्या सिर्फ इतना सा होता! प्रधानमंत्री के काफिले को खराब मौसम के कारण सड़क मार्ग से ले जाने का फैसला हुआ और हवाईअड्डे पर घंटों इंतजार करने के बाद ही वह आगे बढ़े। पंजाब सरकार को इसकी जानकारी नहीं थी, ऐसे पाठ तो बच्चों को ही पढ़ाए जा सकते हैं।

प्रथमदृष्टÑया पूरा मामला आपराधिक षड्यंत्र का जान पड़ता है। प्रधानमंत्री की यात्रा के कई दिन पहले से पंजाब में उनकी रैली को बाधित करने की खुलेआम घोषणा की जा रही थी। लोगों को उनकी रैली में शामिल नहीं होने के लिए डराया-धमकाया जा रहा था और रैली वाले दिन भी उसमें भाग लेने जा रहे लोगों को जबरन रोका जा रहा था। क्या इस बात की जानकारी सरकारी अमले को नहीं थी? जब प्रधानमंत्री के काफिले को सड़क मार्ग से ले जाने का फैसला हुआ तो क्या पुलिस को रास्ते को सुरक्षित नहीं करना था? बिल्कुल करना था और पुलिस के लिए यह कोई बड़ा काम तो था नहीं। वैसे भी कांग्रेस के लोग कह रहे हैं कि प्रदर्शनकारी तो निहत्थे थे, उनसे भला क्या खतरा? तो जब कोई खतरा था ही नहीं तो सुरक्षा बलों के लिए तो उन्हें रास्ते से हटा देना और आसान था, उन्होंने हटाया क्यों नहीं?  लगता है, उन्हें ‘संयम’ से काम लेने का  ‘निर्देश’ था।

फिर जब प्रधानमंत्री लौट आते हैं तो खालिस्तानी खम ठोकते हैं कि उन्होंने कैसे भारत के प्रधानमंत्री को उल्टे पैर वापस लौटने को मजबूर कर दिया! प्रधानमंत्री की रैली के पहले और बाद के घटनाक्रम बताते हैं कि यह चूक नहीं थी और न ही अनायास हो गई कोई घटना। इसकी पूरी तैयारी हवा में तैर रही थी। सबकुछ खुलेआम हो रहा था और प्रधानमंत्री की रैली के दिन सबकुछ होने दिया गया।

इस प्रकरण को एक और आयाम से देखने की जरूरत है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने देश में विकास को राजनीति का आधार बना दिया है। अब वे दिन बीत गए जब कांग्रेस के प्रधानमंत्री को कहना पड़ता था कि विकास कार्यों के लिए सौ रुपये भेजो तो नब्बे रास्ते में ही खप जाते हैं। भ्रष्टाचार के सूख गए समुद्र में फिर से पानी भरने से रहा और अब जनता की आकांक्षा-महात्वाकांक्षा जाग गई है। उसने अपने हिस्से के संसाधन के संस्थागत भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाने को नियति मानना छोड़ दिया है। ऐसे में विकासात्मक राजनीति की धारा को उल्टी दिशा में मोड़ा नहीं जा सकता। अब अगर राजनीति होगी तो विकास की होगी, उसी की कसौटी पर राजनीतिक दलों को अपने आप को परखना-कसना होगा। चाहे वे सत्ता में बैठे लोग हों या फिर विपक्ष में। विघटनकारी उद्देश्यों और स्वार्थपरक नीतियों के बूते सत्ता में पहुंचने का रास्ता तलाशना आग से खेलने जैसा है।

एक और बात याद रखनी होगी। सूबा और सरहदें देश के भीतर ही हैं। वे न तो देश के बाहर हैं और न ही देश से बड़ी। जब देश की बात होगी तो समवेत उत्तर मिलेगा। तब मुद्दा सिर्फ पंजाब का नहीं रहेगा। दान की तरह दो चुटकी अधिकार देकर लोगों को प्रजा और खुद को शासक समझने के दिन गए। राज जाने पर अराजकता को पोसने वालों को याद रखना होगा, इस देश की जनता अब वैसी नहीं रही। वह राजनीति में सकारात्मक बदलाव की स्वीकृति के उद्घोष में बराबर की हिस्सेदार है और उसे कुत्सित इरादों को भांपना, प्रत्युत्तर देना आता है। कानून तो अपना काम करेगा ही, जनता भी सब याद रखेगी।

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