इसी प्रकार उर्दू पत्र ‘देशोपकारक (लाहौर) ने अपनी भावांजलि को इस प्रकार शब्दों में पिरोया था-”दिवाली की रात गो मसनूई चिरागों से रोजे रौशन है, लेकिन हकीकी आफताब गरूब हुआ। हम बिल्कुल नादान थे। वह हमें हर एक चीजें शनाख्त कराता था। हम कमताकती से उठ नही सकते थे, वह हमें उठा सकता था। हमने अपना नंगों नामूस गंवा दिया था, वह हमें फिर दिलवाना चाहता था। ऐ खुदा हम तुझसे बहुत दूर हो गये थे वह हमको तुझसे मिलना चाहता था।
‘विक्टोरिया पेपर (स्यालकोट) ने भी अपना दुख इस प्रकार प्रकट किया था-”एशिया कौचक हमें मुखतालिफ जलजलों के आने और जावा के आतिशाफिशां पहाड़ों के फट जाने से स्वामी दयानंद का इन्त काल कम अफसोस की जगह नही है, क्योंकि ऐसे लायक शख्स का जीना जिसका सानी इल्म संस्कृत में कोई न हो, लाखों आदमियों की जिंदगी पर तरजीह रखता है।…. स्वामी दयानंद नाम के संन्यासी नही थे।
दीपावली की अमावस्या की रात्रि में जब सारा संसार गहन निशा में निमग्न था, तब भारत अपने नाम के अनुरूप संसार से अज्ञानान्धार को मिटाकर ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए सर्वत्र दीप जला रहा था। तभी काल की क्रूर नियति ने व्याकरण का महान सूर्य और वेदों का प्रकाण्ड पंडित, देशोद्वारक, पतितोद्वारक, स्त्री जाति का सच्चा हितैषी, मानवता का अनुरागी, राष्ट्रचेता, राष्ट्रधर्म प्रणेता, आदि दिव्य गुणों से सुभूषित महर्षि दयानंद सरस्वती जी महाराज को हमसे छीन लिया।
आज इस घटना को घटित हुए लगभग 135 वर्ष हो रहे हैं। हम आज भी दीप जला रहे हैं, बिना इस बात का ध्यान किये कि हमारे अंत:करण में कितना अंधकार है?
आज आर्यसमाज के लिए अपने अंत:करण में झांकने का समय है। अपने आपसे ही कुछ पूछने का समय है। प्रश्न भी टेढ़े- मेढ़े नही अपितु सपाट सीधे कि ‘ऋषि मिशन भटका या हम भटके, हमारी वाणी कर्कश हुई या हम रूखे फीके और नीरस हो गये? अंतत: हम ऋषि के राष्ट्र जागरण को एक दिशा क्यों नही दे पाए? बहुत से प्रश्न, इतने प्रश्न कि झड़ी लग जाए। अनुत्तरित प्रश्न और अनसुलझे रहस्यों से भरे प्रश्न, जो लोग महर्षि के आर्य समाज को किन्ही विशेष लोगों तक समेटकर देखते हैं वे संकीर्ण हैं, उनसे भी बड़े संकीर्ण वे लोग हैं जो आर्य समाज को एक अलग सम्प्रदाय घोषित करते हैं, या ऐसा कराने की मांग करते हैं, और उनसे भी बड़े संकीर्ण वे हैं जो आर्य समाजों को किन्ही जाति विशेष की बपौती बनाकर प्रयोग कर रहे हैं। तनिक विचार करें 1875 में ऋषि दयानंद ने क्या कहा था और हम क्या कर बैठे? ऋषि ने कहा था-”भाई हमारा कोई स्वतंत्र मत नही है। मैं तो वेद के अधीन हूं और हमारे भारत में पच्चीस कोटि (तब भारत की जनसंख्या करोड़ थी और उस सारी जनता को ही ऋषि आर्य कह रहे हैं) आर्य हैं। कई-कई बात में किसी-किसी में कुछ-कुछ भेद है सो विचार करने से आप ही छूट जाएगा। (ऋषि कितने आशावादी हैं और साथ ही कितने सरल कि कुछ-कुछ भेदों को सम्प्रदाय का भेद नही मान रहे हैं) मैं संन्यासी हूं और मेरा कत्र्तव्य है कि जो आप लोगों का अन्न खाता हूं, इसके बदले में जो सत्य समझता हूं, उसका निर्भयता से उपदेश करता हूं। मैं कुछ कीर्ति का राही नही हूं। चाहे कोई मेरी निंदा करे या स्तुति करे, मैं अपना कत्र्तव्य समझ के धर्म बोध कराता हूं। कोई चाहे माने वा न माने, इसमें मेरी कोई हानि या लाभ नही हो।
ऋषि अपना मत वेदाधीन रखकर चल रहे थे इसलिए उन्होंने कहा कि मेरा कोई स्वतंत्र मत नही है। परंतु आज स्थिति शीर्षासन कर गयी है। बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि आज वेद विरूद्घ आचार विचार और आहार विहार ने कार्यों की गति और मति दोनों ही भंग कर दी हैं। नये -नये सम्प्रदाय नये-नये मत और भांति भांति के पाखण्ड नित पैर पसार रहे हैं और आर्य समाज सो रहा है। पदों पर गिद्घों की भांति लड़ रहे हैं, सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के एक से अधिक स्वरूपों को देखकर लगता है संसार को आर्य नही अनार्य बनाने का बीड़ा हमने उठा लिया है। यही स्थिति आर्य समाजों की है। किसी भी पौराणिक को अपना शत्रु सम माना जाता है, उसके देवता को अपशब्दों में संबोधित करना हमने गर्व का विषय बना लिया है। इसलिए हमारे सम्मेलनों का नाम चाहे ‘विशाल आर्य सम्मेलन रखा जाए पर वहां उपस्थिति केवल 40-50 लोगों की ही होती है। वक्ता की वाणी में विनम्रता का अभाव होता है, सहज सरल और विनम्र भाव से अपनी बात को लोगों के हृदय में उतारने वाले ‘महात्मा आनंद स्वामी अब इस संस्था के पास न के बराबर हैं। गांव में जाकर आर्य सम्मेलन करने वाले आर्योपदेशक स्वामी भीष्म जी जैसे वेद प्रचारक भी अब नही हैं। गुरूकुल कांगड़ी की स्थापना कर हजारों देशभक्तों की कार्यशाला आरंभ कर ‘हिंदू संगठन के निर्माता और नियामक स्वामी श्रद्घानंद भी नही रहे, अब तो हिंदू कहने-कहाने पर भी संग्राम आरंभ हो जाता है। ऋषि की विनम्रता नही ली और ना ही ऋषि का मण्डनात्मक चिंतन लिया। सत्यार्थ प्रकाश को विपरीत दिशा से पढऩा आरंभ कर दिया है और सारा बल खण्डनात्मक चिंतन पर लगा दिया गया है। जिससे लगता है कि आर्य समाज दूसरों की केवल निंदा करता है। इससे आगे कुछ नही करता और ना कुछ कर सकता है।
गोरक्षा और हिंदी आंदोलन इस समाज का मुख्य उद्देश्य था पर अब यह भी नही रहा लगता है। आर्य समाज के हिंदी आंदोलन को डीएवी शिक्षा संस्थानों ने तथा गौ रक्षा आंदोलन को अन्य गोरक्षा दलों ने हड़प लिया है। लगता है कि सारा समाज (अपवादों को कोटिश: नमन करते हुए) महर्षि की कमाई खाने में ही लगा है, और अकर्मण्यता इस सर्वाधिक कर्मशील संगठन की रगों में व्याप्त हो गयी है। महर्षि दयानंद जी महाराज ने कहा था-”आज यदि समाज से पुरूषार्थ कर परोपकार कर सकते हो, तो आर्य समाज स्थापित कर लो। इसमें मेरी कोई मनाही नही है, परंतु इसमें यथोचित व्यवस्था न रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय हो जाएगा। मैं तो जैसा हूं अन्य को उपदेश देता हूं, वैसा ही आपको भी करूंगा और इतना लक्ष्य में रखना कि मेरा कोई स्वतंत्र मत नही है और मैं सर्वज्ञ भी नही हूं।
इससे यदि कोई मेरी गलती आगे पाई जाए तो युक्तिपूर्वक परीक्षा करके इसी को सुधार लेना। यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जाएगा और इसी प्रकार से बाबा वाक्यं प्रमाणम् करके इस भारत में नाना प्रकार के मतमतांतर प्रचलित होके, भीतर भीतर दुराग्रह रखके धर्मांध होके लड़कर नाना प्रकार की सद्विद्या का नाश करके यह भारतवर्ष दुदर्शा को प्राप्त हुआ है। इससे यह भी (आर्य समाज) एक मत बढ़ेगा। मेरा अभिप्राय तो यह है कि इस भारतवर्ष में नाना मत मतांतर प्रचलित हैं वे भी सब वेदों को मानते हैं, इससे वेद शास्त्र रूपी समुद्र में यह सब नदी नाव पुन: मिला देने से धर्म ऐक्यता होगी और धर्म ऐक्यता से धार्मिक और व्यावहारिक सुधारणा होगी और इससे कला कौशल आदि सब अभीष्ट सुधार होके मनुष्य मात्र का जीवन सफल होके अंत में अपना धर्मबल से अर्थ, अर्थ से काम और मोक्ष मिल सकता है।’
महर्षि के मन्तव्य से हम कितने दूर चले गये। बाप की कमाई खाने से निकम्मापन तो आता ही है हममें परस्पर की शत्रुता भी बढ़ती है और आज यही हो रहा है।
दीपावली के पावन पर्व पर ऋषि के नाम का एक दीपक अपनी हृदय गुफा में जलाने की आवश्यकता है। वहां प्रकाश हो गया तो हम ऋषि को भी सच्ची श्रद्घांजलि दे सकेंगे और इस पावन प्रकाश पर्व को भी सही अर्थों में मना सकेंगे। ‘पिता की कमाई खानी छोड़ें अपनी कमाई पर भरोसा करें। – आर.के. आर्य
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