वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी को गुस्सा क्यों आया? इसीलिए न कि सर्वोच्च न्यायालय के सामने भारत सरकार ने घुटने टेक दिए। सरकारी महाअधिवक्ता ने कह दिया कि सरकार उन लोगों के नाम उजागर नहीं कर सकती, जिन्होंने विदेशी बैंकों में अपना काला धन छिपा रखा है।
यही बात तो मनमोहन सिंह सरकार कह दिया करती थी। इसी रवैए पर भाजपा चिढ़ जाती थी और कहती थी कि हम सरकार बनाएंगे तो 100 दिन में काला धन वापस ले आएंगे। काला धन वापस लाना तो दूर रहा, अब सौ क्या, डेढ़ सौ दिन हो गए, काले धनवालों के नाम बताने में भी सरकार हिचकिचा रही है। इसी पर जेठमलानी का कहना है कि जो काम अपराधियों को अपने बचाव के लिए करना होता है, वह काम यह सरकार कर रही है। जेठमलानी बड़े मंजे हुए वकील हैं, इस सरकार के कट्टर समर्थक रहे हैं, वे भावुक भी हैं। उनका गुस्सा स्वाभाविक है।
लेकिन सरकार की मजबूरियां भी हैं। विदेशी सरकारों के साथ उसके ऐसे समझौते हैं, जिनके अनुसार वह उनके बैंकों के खातेधारी भारतीय नागरिकों के नाम प्रकट नहीं कर सकती। उन नामों को उजागर करने से उन देशों के साथ कूटनीतिक रिश्ते बिगड़ सकते हैं,ं अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा खराब हो सकती है और भारत की उद्दंड राष्ट्र की छवि बन सकती है।
ये तर्क अपनी जगह हैं लेकिन मेरा सवाल यह है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने आज ही यह दावा कैसे कर दिया कि स्विटरजरलैंड ने उन 600 नामों को उजागर करने की बात मान ली है, जिनके खाते उनके देश में हैं। जिस तरह स्विस सरकार पर दबाव डाला गया, इसी तरह अन्य सरकारों पर भी दबाव डालने का वादा क्यों नहीं किया गया?
ये सरकारें अमेरिकी नागरिकों के खातों की जानकारी अमेरिकी सरकार को देती है या नहीं? इसके अलावा जेठमलानी ने सभी खाताधारियों के नाम उजागर करने के लिए नहीं कहा है। उन्होंने सिर्फ उनके नाम मांगे हैं, जिनके खिलाफ जांच चल रही है। सरकार पहले यह बताए कि क्या उसके पास सारे नामों की सूची है? यदि है तो ऐसे नामेां को छिपाकर, जो अपराधी चरित्र के हैं, सरकार फिजूल ही बदनामी मोल क्यों ले रही है? अपना मजाक क्यों बनवा रही है? सरकार ने पहले दिन ही विदेशों में जमा काले धन पर जांच बैठाकर सराहनीय कार्य किया था। अब उसे चाहिए कि उस कार्य को वह साहसपूर्वक आगे बढ़ाए। जेठमलानी और जेटली को इसे व्यक्तिगत शै और मात का खेल नहीं बनने देना चाहिए। जेठमलानी का गुस्सा जायज है लेकिन उनको इस नई सरकार को थोड़ा मौका और देना चाहिए।