उल्लूओं को दिखाएं रोशनी
दुनिया में प्रकाश भी है और अंधकार भी, पहाड़ भी हैं और घाटियां भी, गुण भी हैं और अवगुण भी। सर्वत्र सभी प्रकार की मन-बुद्धि वाले लोग और संसाधन उपलब्ध हैं जिनका उचित उपयोग सकारात्मक माहौल का सृजन कर आनंद देता है और दुरुपयोग नकारात्मक वातावरण का सृजन कर दुःख, पीड़ाओं और विषाद का प्रसार करता है।
बौद्धिक जानवर होने के नाते इंसान को यह सोचना है कि किसे ग्रहण करे, किसे छोड़े, क्या हमारे और समाज तथा देश के हित में है, और क्या नहीं? आज का जमाना भ्रमित करने की कलाओं का इस्तेमाल कर, आकर्षण जगाकर सामने वालों को प्रभावित करने और उल्लू बनाकर अपने स्वार्थ सिद्ध करने का है जिसमें अपने मुफतिया भोग-विलास और आनंद के लिए हम औरों तथा औरों की जमीन-जायदाद तथा सभी प्रकार के संसाधनों और इंसानों का अपने हक़ में कितना अधिक उपयोग करने की प्रतिभा रखते हैं, इसी पर सारे संसार का मायावी संसार आधारित है।
जो अच्छा है उसे चुनते हुए आगे बढ़ते रहने और जो जिसके योग्य है उसे निष्काम भाव से उदारतापूर्वक बाँटते चले जाने का नाम इंसानियत है। जबकि जो अपने काम का है उसे किसी भी कीमत पर, छल, प्रपंच, कपट और दबावों या हिंसा से हथिया लेना आसुरी भाव है, और आजकल इसी का बोलबाला है।
इंसान दो तरह का हो गया है। एक वे हैं जो औरों तथा समाज को अपना मानकर समाज और देश के लिए जीते-मरते हैं और ‘जियो व जीने दो’ की भावना चलते रहकर जगत के कल्याण में भागीदार बनते हैं।
दूसरे वे हैं जो अपने स्वार्थ की पूर्ति को सबसे बड़ा काम समझते हैं और इसके लिए किसी को मारने-मरवा डालने से हिचकते तक नहीं। इन लोगों को सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा, पद और वैभव की पड़ी होती है। औरों के दुःखों और अभावों से इनका कोई लेना- देना नहीं होता।
असल में ऎसे लोग इंसानी जिस्म भले ही धारण करते हों मगर ये पूरी तरह प्रोफेशनल होते हैं और हर पल अपने लिए ही सोचते व करते हैं। मलीन बुद्धि और कलियुग की छाया का प्रवेश हो जाने पर अपने आपको ये छोटे-मोटे कियोस्क या दुकान की तरह इस्तेमाल करते हैं और धंधेबाजी, लूट-खसोट, रिश्वतखोरी, बेईमानी, चोरी-डकैती और छीनाझपटी के हुनरों को सीखकर किसी कॉम्प्लेक्स, मल्टीप्लेक्स या मॉल में रूपान्तरित कर देते हैं।
ऎसे लोगों को आदमी की बजाय धंधा कहना ज्यादा समीचीन होगा। इन लोगों के लिए संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य और आदर्श सब कुछ गौण ही होते हैं। धंधे में बरकत के लिए ये कभी भी, कुछ भी कर सकते हैं। आजकल सभी जगह इंसानों की बजाय ऎसी ही दुकानें और बड़े-बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान नज़र आने लगे हैं।
कई जगह लगातार धंधेबाजी मानसिकता में रमे हुए लोग एक साथ जुट जाते हैं और व्यवसायिक घरानों के रूप में हमारे सामने फबते नज़र आते हैं। आजकल आदमी कम, दुकानें ज्यादा दिखने लगी हैं। आदमी हर तरफ मुद्रा तलाशी का आदी होता जा रहा है।
उसे संबंधों, मानवीय संवेदनाओं और सामाजिक एवं वैयक्तिक फर्ज, राष्ट्रीय कर्तव्यों और इंसान होने से जुड़े अपने सरोकारों से कोई अर्थ ही नहीं रहा है। इंसान अर्थ के चक्कर के अनर्थ करता भी है, और खुद भी निरर्थक होता जा रहा है।
धंधेबाजी मानसिकता के चलते अब हर तरफ गुणग्राहियों का संकट पैदा हो गया है। जैसे-जैसे मुद्रालोभियों का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है, वैसे-वैसे समाज में उन लोगों की पूछ समाप्त होती जा रही है जो गुणवान हैं और जिनसे समाज और देश का भला होने वाला है।
मुद्राग्राही लोगों की आँखों के आगे अंधेरा छाया हुआ है, मन और मस्तिष्क मलीनता ओढ़ चुका है और इन लोगों को हर तरफ हर क्षण मुद्रा ही मुद्रा नज़र आने लगी है। फिर जहां मुद्रा दिख जाए और वह भी बिना कोई मेहनत किए, तब आदमी सारे रिश्तों-नातों और इंसानियत को भूल कर बिकने को तैयार हो जाता है। ऎसी प्रजातियां अब फलफूल रही हैं जो हर बाजार से लेकर हाट बाजार तक में बिकने को सदैव तैयार रहती हैं, वे भी खूब हैं जो इन्हें किसी भी कीमत पर खरीदना जानते हैं। बिकाऊ लोगों से कोई भी कुछ भी काम करवा सकता है।
मुद्रा के इस गहन अंधकार में भटकने वाले उल्लूओं को उन सभी से नफरत है जो सूरज या दीपक के नज़दीक हुआ करते हैं, इन अंधेरापसंद उल्लूओं और उल्लू के पट्ठों को वे ही लोग हर तरफ चाहिएं जो मशालों और दीपकों को अपनी तेज फूंक से बुझा कर अंधेरों का परचम लहरा सकेंं।
फिर अंधेरे में होने वाले अंधेरे कामों की फेहरिश्त आजकल इतनी लंबी होती जा रही है कि इनसे से अधिकतर कामों का पुरुषार्थ से कोई संबंध नहीं है। मामूली अंधकार का आवाहन करो और लूट लो, चाहे डरा-धमका कर अथवा किसी भी प्रकार से औरों को उल्लू बनाकर।
जो दूसरों को उल्लू बनाने की कला अपना लेता है वह अंधेरे रास्तों और गुफाओं में आधिपत्य करते हुए लक्ष्मीजी तक के आभूषण छीन लेने का आदी हो चला है। सब तरफ धंधों का मायाजाल पसरा हुआ है, हर आदमी अपने आपको इस प्रकार स्थापित करता जा रहा है जैसे कि कोई दुकान ही हो। कोई छोटी है, कोई बड़ी, दुकानें सब तरफ हैं।
आम से लेकर खास पथों तक सर्वत्र इन्हीं गुमटियों और दुकानों का बोलबाला है। सिद्धान्त और आदर्शों को पोटलियों में कहीं बांध-छुपा कर उल्लूओं का दबदबा हर तरफ बढ़ता जा रहा है। इन हालातों को देख लगता नहीं कि रोशनी का कोई कतरा कहीं शेष बचा हो, जो उल्लूओं और चिमगादड़ों की आंखों को बंद कर सके।
आसमान से लेकर जमीन तक हर तरफ दौड़ लगी है । खुले आम दौड़-भाग कर रहे हैं उल्लू और चिमगादड़, और जाने किन-किन हवेलियोें, राजप्रासादों, किलों और देवालयों तक को इन्होंने अपने कब्जे में ले रखा है। आज भी समय है। जो बचे-खुचे हैं वे ही जाग जाएं और गुणग्राही बन जाएं तो रोशनी का ज्वालामुखी दर्शा सकते हैं। इन उल्लुओं और चिमगादड़ों को सिर्फ रोशनी के कतरों से डराने भर की जरूरत है।