शंकर शरण
सर वी. एस. नायपॉल को 2001 (साहित्य) में तथा अमर्त्य सेन को 1998 (अर्थशास्त्र) में नोबेल पुरस्कार मिला था। उस दौरान यहाँ वाजपेई नेतृत्व वाली राष्ट्रवादी सरकार थी। सेन हिन्दू-विरोधी वामपंथी थे जबकि नायपॉल गहरे हिन्दू-समर्थक और स्वतंत्रचेता थे। लगेगा कि यहाँ सत्ताधारी राष्ट्रवादियों ने नायपॉल को विशेष मान दिया होगा?
नहीं। वाजपेई ने सेन को फौरन ‘भारत-रत्न’ सम्मान देने की घोषणा कर दी थी। किसी से कोई सलाह-मशविरा तक की बात नहीं आई। फिर उसी सेन ने वाजपेई सरकार तथा हिन्दू धर्म-समाज पर कीचड़ उडेलने का सतत अभियान चलाया। जहर उगलते सेक्यूलर-वामपंथी बौद्धिक सम्मेलनों में मंच पर सेन जमे रहते थे।
उन्हीं राष्ट्रवादियों ने नायपॉल को वह सम्मान न दिया जबकि नायपॉल एक मात्र विश्व-प्रसिद्ध हस्ती थे जिन्होंने अयोध्या-आंदोलन के हिन्दू पक्ष को बहुत पहले से दुनिया में मजबूती से रखा था। सदियों की इस्लामी बर्बरता के संदर्भ में भारत के हिन्दू-जागरण को सहानुभूति से समझने का आग्रह किया था। केवल बयान नहीं, अपनी पुस्तकों में भी उन्होंने इसे सशक्त ढंग से रखा। ऐसे नायपॉल को ‘भारत-रत्न’ तो दूर, यहाँ रहने की जगह तक न दी गई जो वे चाहते थे!
राष्ट्रवादियों का यह रुख अपवाद नहीं। तब भी और आज भी। पहले वे राम स्वरूप, सीताराम गोयल की उपेक्षा-अपमान और सैयद शहाबुद्दीन, मौलाना वहीदुद्दीन की तवज्जो-सम्मान करते थे। आज कुलदीप नैयर का मान और कोएनराड एल्स्ट की अवमानना वही बात है। पचास वर्षों से चल रही इस परंपरा में चेतना का अभाव और अटपटापन यथावत् बना रहा है। असंख्य राजनीतिक कदम उठाने या न उठाने में हुई भूल उसी की देन है। निस्संदेह, हमारे राष्ट्रवादियों की ट्रेनिंग में कहीं कोई गहरी त्रुटि रही है, जिस की उन्हें समीक्षा करनी चाहिए।
अभी तक राष्ट्रवादी बंधु अपनी ‘आइडियोलॉजी’ पर गर्व करते हुए भी, व्यवहार में शुद्ध नेहरूवादी रहे हैं। उसी को उत्साह से लागू किया, बढ़ाया। न केवल नीतियों, नारों, बल्कि रोजमर्रे तौर-तरीकों में भी। इसी पर गर्व भी किया। यह संयोग नहीं कि वाजपेई के आदर्श नेता जवाहरलाल नेहरू थे।
जबकि नेहरूवाद अपनी परिभाषा से ही हिन्दू-धर्म-समाज से वितृष्णा रखता है। इसीलिए, राष्ट्रवादियों की संसदीय ताकत बढ़ने के साथ हिन्दू धर्म-समाज पर खतरा घटा नहीं, बढ़ता ही गया है। कश्मीर, बंगाल, केरल, असम, इस के बड़े उदाहरण हैं। छोटे-छोटे पर उतने ही घातक उदाहरण तो अंसख्य हैं। इस विडंबना पर कभी विचार तक नहीं किया जाता, कि ऐसा क्यों हुआ?
पहले तो, राष्ट्रवादी पार्टी को ही एक तिहाई जनता का समर्थन है। दो तिहाई वैसे ही विरोधी या तटस्थ हैं। दूसरे, हिन्दू समाज को सचेत, सशक्त बनाने के बदले पार्टी/नेता अपने को ही चमकाने में सारी बुद्धि लगाते रहे हैं। मूल शक्ति-स्त्रोत – हिन्दू समाज – को उपेक्षित किया। बल्कि राजनीतिक जातिवाद को समर्थन देकर हिन्दुओं को विभाजित किया! क्योंकि वे हिन्दू समाज के मित्र-शत्रु के बदले अपनी पार्टी के मित्र-शत्रु गिनते रहे। इसीलिए हिन्दू-शत्रुओं पर सोचने के बदले कांग्रेस को साफ करने की तरकीब में जिंदगी बिता दी। इस प्रकार, हिन्दू-शत्रुओं को पूरी छूट देते हुए उन के मूल स्त्रोतों, विशेषाधिकारों पर चोट नहीं की। तभी राष्ट्रवादियों के शासन में भी सचेत हिन्दू मायूस और हिन्दू-विरोधी हौसलामंद रहते हैं।
तीसरे, हिन्दुओं के शत्रु किसी पार्टी या नेता के भरोसे नहीं। सभी पार्टियों में वे और उन से सहयोग रखने वाले मौजूद हैं। वे सीधे हिन्दू समाज पर चोट करते हैं। उन्हें किसी संगठन, नेता, पार्टी को बढ़ाने की नहीं पड़ी है। यह चेतना उन विचार-तंत्रों – पश्चिमी/क्रिश्चियन श्रेष्ठता, कम्युनिज्म और इस्लामी साम्राज्यवाद – की विशषता है, जिस का संयुक्त ठिकाना नेहरूवाद है। इसीलिए यहाँ सभी सचेत हिन्दू-विरोधी लोग नेहरू के प्रशसंक हैं। दुर्भाग्यवश, हमारे राष्ट्रवादी भी अचेत नेहरूवादी हैं।
चौथे, भारत में जनसांख्यिकी (डेमोग्राफिक) घड़ी अहर्निश टिक-टिक कर रही है। हर मिनट हिन्दू घट रहे हैं। हर महीने भूमि का कोई टुकड़ा उन के शत्रु के पास जा रहा है। हिन्दुओं को डरा भगाकर, गैर-हिन्दुओं को बसा कर, नेताओं द्वारा अनुदान-उपहार में या सीधे खरीदकर। यह इतना बड़ा टाइम-बम है कि इसे सींग से पकड़े बिना समय के साथ सब कुछ अपने-आप चौपट हो जाएगा। पर किस राष्ट्रवादी को अपने नेहरूओं की जयकार से फुर्सत है?
इसलिए यहाँ हिन्दू धर्म-समाज के लिए किसी नेता/पार्टी के भरोसे रहना निष्फल रहा है। क्योंकि हर पार्टी नेहरूवादी और हर नेता नेहरू बनने पर तुला है। अतः गोल-मोल या प्रतीकात्मक बातों, कल्पनाओं और पार्टियों की तू-तू मैं-मैं को छोड़ ठोस नीतियों पर बात लानी चाहिए। ताकि सत्ता में आकर कोई नया नेहरू मनमाने, आकस्मिक, बेढ़ब नारे और चित्र-विचित्र घोषणाएं न करने लगे।
जैसे नौकरी के इंटरव्यू में केंद्र में काम रहता है, उम्मीदवार नहीं। उसी तरह, राजनीति में ठोस कर्तव्य कसौटी बनें। नेता-कार्यकर्ता उसे पूरा करने के दावे व योजना पेश करें। जो विश्वसनीय लगे, उसे पार्टी/ संसद/ सरकार, आदि में पद दें। तब जाकर जिस किसी महात्मा या चमत्कार के भरोसे रहने की आदत तथा हिन्दू समाज की हानि रुकेगी। अब तक चेतना के बदले अंधभक्ति; देश के बदले पार्टी; काम के बदले आडंबर; और नीतियों के बदले लफ्फाजी को प्रश्रय मिला है। इसीलिए समाज विवश, भ्रमित दर्शक बना रहा है।
अतः जनता को ताना देना बिलकुल गलत है कि वह सोई है, या मँहगाई, बेकारी, को रोती है। स्वयं राष्ट्रवादियों ने यह कह उसे निष्क्रिय रखा कि
1. ‘विकास’ सारी समस्याओं का समाधान है।
2. हमारी पार्टी सर्वसमर्थ है।
3. हमारा नेता सब करेगा।
4. सारी दुनिया हमारे नेता से ईर्ष्या करती है।
5. आतंकी, अलगाववादी ध्वस्त हुए; पाकिस्तान, अरब, सब ठंढे पड़े।
आदि। ये सब प्रचार जनता ने तो नहीं किये!
वस्तुतः यह सब दुहरा-दुहरा कर राष्ट्रवादी खुद भी भ्रमित रहे। अपना आपसी विचार-विमर्श भी पंगु रखा। वे तरह-तरह से आत्म-प्रशंसा और पर-निंदा को ही ‘विमर्श’ कहते हैं! ठोस समस्याओं पर कभी विचार तक नहीं करते। केवल चुनाव में जनता को ‘हिन्दू’ बनने को उकसाते हें। पर सत्ता में आकर हिन्दू धर्म-समाज की चिंता वाले सभी विषय भुला कर, हिन्दुओं को ही गरीब-अमीर, भ्रष्टाचारी-ईमानदार, भाजपा-कांग्रेस, दलित-गैरदलित, अगड़ा-पिछड़ा, आदि में बाँटते रहने के सारे घातक काम करते है, जो नेहरूवाद का मुख्य धंधा था।
तब उस बँटे, पिटे, असहाय, नेतृत्वहीन हिन्दू को एकाएक ‘हिन्दू’ बनाने की झक का क्या मतलब? कोई बटन नहीं कि किसी को क्षण में दलित, क्षण में ओ.बी.सी. और अगले क्षण हिन्दू बना दें! यदि हिन्दू चेतना सचमुच बनानी होती, तो गौण पहचानों, जाति, पार्टी, आदि को महत्वहीन बनाने की नीति होनी चाहिए थी। न कि उसी को प्रोत्साहित करने की।
दुर्भाग्य है कि जिन्हें पूरी सत्ता हाथ में लेकर भी स्वयं व देश को हिन्दू कहने तक की बुद्धि नहीं, वे बेबस, त्रस्त, अनजान, नेतृत्वहीन जनता को कोसते हैं कि उसे भी कुछ करना चाहिए। पर साफ-साफ यह भी नहीं बताते कि कौन से काम जनता करे? और कौन से काम सत्ताधारी-राष्ट्रवादी करेंगे? फलतः सामूहिक भ्रम या छल जारी रहता है।
कितना आश्चर्य कि ‘आइडियोलॉजी’ का दम भरने वाले राष्ट्रवादियों ने कभी ध्यान नहीं दिया कि उन के नेता विपक्ष में होने पर कांग्रेस के जिन-जिन कामों की निंदा करते हैं, सत्ता में आकर ठीक वही काम दुहरा कर गाल बजाते हैं!
सर नायपॉल ने कहा था, ‘‘भारत में नई मुद्राएं, नए दृष्टिकोण का संकेत देती प्रवृत्तियाँ प्रायः केवल शब्दों का खेल निकलती हैं।’’ हमारे राष्ट्रवादियों ने कथनी-करनी से बार-बार दिखाया है कि राज्यों में और दो-तीन बार केंद्र में उन के सत्तासीन होने से इस में कुछ न बदला। उन में शिवाजी या पटेल जैसे काम की चाह ही नहीं है। इसीलिए नेहरू के बाद केवल नेहरू ही आते रहे हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत