सच्चा वही जो सत्य स्वीकारे

सत्य इंसान के लिए वह आचरणीय विषय है जिसे स्वीकार कर लिए जाने पर तमाम सिद्धान्त और आदर्श पीछे-पीछे चलने लगते हैं। यों कहा जाए कि जो व्यक्ति सत्य को ही अपने जीवन का ध्येय बना लेता है वह अपने आप धर्म मार्ग को प्राप्त कर लेता है और उसके लिए सत्य-धर्म एकमात्र वह माध्यम है जिसके जरिये इंसानियत के सारे लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है।

सत्य का अवलम्बन किसी भी व्यक्ति के लिए आज के माहौल में निरापद नहीं रहा है फिर भी कई सारे मध्यम मार्गों  को अपना कर सत्य पर स्थिर रहा जरूर जा सकता है।  आज भी काफी लोग हैं जो सत्य पर चलते हैं, सत्य बोलते-सुनते और सत्यान्वेषण के प्रति समर्पित रहते हैं।

यों तो हर इंसान सत्य को समझना, स्वीकार करना और अनुकरण करना चाहता है लेकिन अपनी छोटी-छोटी ऎषणाओं के कारण याचक धर्म स्वीकार करने की वजह से इंसान असत्य व अधर्म का सहारा लेने लगता है और जब एक-दो इच्छाएं पूर्ण हो जाया करती हैं तब लोभी-लालची वृत्ति के बीजों का पल्लवन शुरू हो जाता है और धीरे-धीरे इंसान असत्य और अधर्माचरण में प्रेरित हो जाता है।

इसी यात्रा के दौरान एक समय ऎसा आ जाता है जबकि इंसान के लिए असत्य का आचरण करना अपनी दैनिक जीवनचर्या का प्रमुख अंग हो जाता है और तब इन लोगों को लगता है कि वे जो कुछ अधर्म और असत्य का आचरण कर रहे हैं वह कोई बुरा नहीं है बल्कि जीवन की वह अनिवार्यता है  जो किसी भी प्रकार की सफलता प्राप्त करने के लिए नितान्त जरूरी है और इसे सम सामयिक युगधर्म के रूप में स्वीकार किया जाना कोई बुरा नहीं है।

अधिकांश लोग इसी मनोवृत्ति के हैं और यही कारण है कि लोग न सत्य को स्वीकारना चाहते हैं, न सत्य का संभाषण कर पाते हैं और न सत्य को सुन पाते हैं। असत्य और झूठ का आचरण करने वाले लोग अपनी संकीर्णताओं और स्वार्थों की वजह से इतने आत्मकेन्दि्रत हो जाते हैं कि उन्हें अपने हितों और अपने बारे में अच्छा ही अच्छा सुनने की जबर्दस्त आदत पड़ जाती है और इस कारण से ऎसे लोग किसी भी प्रकार का सच स्वीकार नहीं कर पाते हैं और यही समझते हैं कि दुनिया में दूसरे सभी लोग भी उन्हीं की तरह की मनोवृत्ति वाले हैं।

सत्य के सामने सबसे बड़ा संकट यही है कि लोगों के लिए इसे किसी भी कीमत पर स्वीकारने में हिचक होती है। कोई कितना ही सच बोल दे, बता दे या सफाई दे दे, झूठे और सत्यहीन लोग कभी भी वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाते।

इंसान की सबसे बड़ी गलती यही है कि वह जैसा होता है, वैसा ही दूसरों को मानता है जबकि दुनिया में खूब सारे लोग ऎसे होते हैं जो हमसे भी काफी अधिक योग्यतम, सत्यभाषी और सिद्धान्तवादी हैं। इसलिए यह तय मानकर चलना चाहिए थे कि जो लोग खुद सच्चे नहीं हैं, वे कभी भी सत्य को स्वीकार नहीं कर पाएंगे।

जो सत्य को नहीं स्वीकारे, उसे कितनी ही बार और कितने ही जोर से सच्चाई बताई जाए, जस का तस ही रहने वाला है। ऎसे लोगों को किसी भी मामले में चाहे कितनी सफाई दी जाए, वे अपने ही अपने झूठ पर आमादा रहते हैं। ऎसे लोगों को किसी भी बात पर सफाई नहीं दी जानी चाहिए, जो सच को समझ या स्वीकार न कर पाएं, उन लोगों को सफाई देने की कोशिश करना भी अपनी ऊर्जा नष्ट करना ही है।

इसलिए ऎसे लोगों को कभी भी सफाई न दें जो अपनी सच्ची बातों पर विश्वास न करें। यह तय मान कर चलें कि जो लोग हमारी सच्ची बातों पर विश्वास नहीं करते हैं वे लोग कभी भी हमारे अपने नहीं हो सकते क्योंकि इस प्रजाति के लोग सभी हमेशा भ्रमों, शंकाओं और आशंकाओं से घिरे रहते हैं।

निष्कर्ष यही है कि जो सच को नहीं स्वीकारता वह अपने आप में झूठा ही होता है। ऎसे झूठे लोगों के समक्ष सत्य भाषण या सत्य का प्रकटीकरण करना निरर्थक ही है। ऎसे लोग जिन्दगी में कोई सी हकीकत को कभी स्वीकार नहीं कर पाते हैं बल्कि इनका पूरा जीवन इसी ऊहापोह में गुजरता रहता है कि क्या सच है और क्या नहीं।

गनीमत इसी में है कि हमेशा सशंकित रहने और नकारात्मक सोचने वाले लोगों को किसी  भी प्रकार से कोई सफाई नहीं दी जाए, बल्कि इन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाए, चाहे ये किसी भी  बात पर कुछ भी सोचते रहें। सत्य अपने आप कभी न कभी अवसर पाकर पूरे यौवन के साथ प्रकट होता ही है।  सत्यमेव जयते नानृताम्।

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