कविता — 13
प्रीत की रीत ये है नहीं स्वारथ के हित होय।
प्रीत हृदय की प्यास है वेद बता रहे मोय ।। 1 ।।
प्रीत हृदय में राखिए, धर्म का ये आधार।
जीवन में रस घोलती मधुर करे व्यवहार।।2।।
प्रीत बिना निस्सार है जीवन जगत व्यापार।
रस प्रीत जब आ बसे हो भव से बेड़ा पार।।3 ।।
मानवता के मूल में प्रीत बसे जग माहिं।
सूना सारा जग लगे यदि हिय प्रीति नाहिं।।4 ।।
प्रेम नहीं है वासना और नहीं है काम।
जो जन ऐसा मानते, है उनका अज्ञान।। 5।।
जो आया सो जाएगा, युग युग की है रीत।
जग की रीत को जानकर कर प्रभु से प्रीत।।6।।
प्रभु से प्रीत जिसने करी हुआ बंधन से मुक्त।
विवेक जगा वैराग्य से विकार हुए सब लुप्त।।7।।
नाशवान संसार से करते जो जन प्रीत ।
प्रयाण काल में ऐसे जन होते हैं भयभीत।। 8।।
दो दिन का व्यौहार है दो दिन का संसार।
स्थिर यहां कुछ भी नहीं सब कुछ चालणहार।।9।।
चालणहार संसार से मत पालो अनुराग।
आत्म तत्व की खोज कर लगा प्रेम का राग।।10।।
पराकाष्ठा धर्म की प्रेम में होय विलीन।
‘राकेश’ समय पर जाग जा हो भक्ति में लीन।।11।।
(यह कविता मेरी अपनी पुस्तक ‘मेरी इक्यावन कविताएं’- से ली गई है जो कि अभी हाल ही में साहित्यागार जयपुर से प्रकाशित हुई है। इसका मूल्य ₹250 है)
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत