गोक्षुर
गोक्षुर (ट्रकइबुलस टेरेस्टि्रस)
होमियोपैथी की दूकान पर इस का मदर टिंक्चर मिलता है Tribulus Q के नाम से .
मात्र- 20 बूंद आधा कप पानी में दिन में 2 या 3 बार या फिर गोक्षुरादि गुगुल 2 से 4 गोली दिन में 3 बार चबा कर हलके गर्म पानी से ले.
रात को सोते समय न ले नहीं तो रात को बार बार पेशाब के लिए उठाना पड़ेगा.
पेशाब में चिपचिपा सफ़ेद अंश आता हो, महिलाओं को सभी किस्म के प्रदर हो, पेशाब की कोई समस्या हो बहुत ही चमत्कारी काम करत़ा है
जिन्हें वजन बढाने की इच्छा हो, जो प्रतिदिन जिम में जाकर मासपेशियाँ बनाना चाहते हो, प्रतिदिन बिना किसी कारण के कमजोरी महसूस हो, ज़रा सा सोचने पर भी लिंग से चिपचिपा पदार्थ निकलने लगे तो यह प्रयोग करे.
जंगल में पायी जाने वाली सामान्य औषधि के छुरी के समान तेज काँटे गौ आदि पशुओं के पैरों में चुभकर उन्हें क्षत कर देते हैं । इसी कारण उन्हें ‘गौक्षर’ कहा जाता है । इसे श्वदंष्ट्रा, चणद्रुम, स्वादु कण्टक एवं गोखरु नाम से भी जाना जाता है । यह एक सरलता से उपलब्ध होने वाला घास जैसा जमीन पर फैलने वाला क्षुप है, जो वर्षा के प्रारंभ में ही जंगल में चारों ओर उग आता है । पूरे वर्ष इसमें फूल व फल आते हैं । बहुत से व्यक्ति इसे मसाले के रूप में भी प्रयुक्त करते हैं तथा अन्न के अभाव में इसके फलों को पीसकर रोटी बनाकर भी खाते हैं ।
वानस्पतिक परिचय-
इसकी शाखाएँ 2 से 3 फुट लंबी चारों ओर फैली होती है । पत्ते चने के समान होते हैं, किंतु उनसे कुछ बड़े 5 से 7 सेण्टीमीटर लंबे एक स्थान पर आमने-सामने दो स्थिति होते हैं । प्रत्येक पत्ती में चार से लेकर सात जोड़ों के पत्रक स्थित होते हैं । शाखाएँ बैंगनी रंग की चारों ओर फैली तथा श्वेत रोम व अनेकों ग्रंथि युक्त होती हैं । पुष्प पत्रकोण से निकले हुए पुष्प वृन्तों से छोटे-छोटे पीत वर्ण के चक्राकार शरद में आते हैं । ये काँटों युक्त होते हैं ।
फल, पुष्प लगने के बाद छोटे-छोटे गोल, चपटे, पंचकोणीय आकार में प्रकट होते हैं । इनमें 2 से लेकर 6 तक काँटे व अनेक बीज होते हैं । बीजों में हल्का सुगन्धित तेल होता है । जड़ मुलायम रेशेदार बेलनाकार 4 से 5 इंच लंबी, बाहर से हल्के भूरे रंग की होती है । इसमें भी एक विशिष्ट गंध आती है ।
शुद्धाशुद्ध परीक्षा संग्रह संरक्षण-
इस क्षुप में अन्य जंगली पौधों की जो आकार रूप में एक समान होते हैं, मिलावट होने से औषधीय क्षमता विवादास्पद होती है । ट्राइबुलस टेरेस्टि्रस को कई स्थानों पर मीठा गोखरु भी कहते हैं । इसे कड़वे या वृहत् गोखरु से पहचानना जरूरी है । जो समुद्र तटवर्ती प्रदेशों में पाया जाता है व नाम ‘पिडेलियम म्यूरेन्स’ है । इसके फल गोखरु से बड़े होते हैं ।
संस्कृत में इसे इक्षुगन्धिका (ईख के समान गंध वाला) भी कहते हैं । इसी प्रकार ऐसी ही गंध के एक अन्य पौधे हाइग्रोफिला स्पाइनोजा को भी इक्षुगन्धिका कहा गया है । परन्तु वह जहरीला है व गुण धर्म-कर्म में इससे बिल्कुल अलग है । इसे गोक्षुर से अलग पहचानना इसी कारण जरूरी है । इस दूसरे पौधे को जो बंगाल में ही अधिकतम पाया जाता है, काँटा यदि शरीर में गढ़ जाए तो शरीर का वह स्थान फूल जाता है व सारे शरीर में जलन होने लगती है । गोखरू के फल भी काँटेदार होते हैं, पर वे जहरीले नहीं होते ।
मूल व फल प्रयुक्त होते हैं । क्वाथादि के लिए पंचांग अथवा मूल का यथा संभव ताजी अवस्था में प्रयोग करना चाहिए । रूखी अवस्था में प्रयोग करना हो तो फल पक जाने पर पूरी वनस्पति खोदकर सुखाकर अनार्द्रशीतल स्थानों पर संग्रहीत करते हैं । पके फलों को सुखाकर बंद पात्रों में रखते हैं ।
वीर्य कालावधि-
मूल, फल व पंचांग का प्रभाव काल कुल एक वर्ष है । इसी अवधि में इसे उपयोग में ले लेना चाहिए ।
गुणकर्म संबंधी मत-
आचार्य चरक ने गोक्षुर को मूत्र विरेचन द्रव्यों में प्रधान मानते हुए लिखा है-गोक्षुर को मूत्रकृच्छानिलहराणाम् अर्थात् यह मूत्र कृच्छ (डिसयूरिया) विसर्जन के समय होने वाले कष्ट में उपयोगी एक महत्त्वपूर्ण औषधि है । आचार्य सुश्रुत ने लघुपंचकमूल, कण्टक पंचमूल गणों में गोखरू का उल्लेख किया है । अश्मरी भेदन (पथरी को तोड़ना, मूत्र मार्ग से ही बाहर निकाल देना) हेतु भी इसे उपयोगी माना है ।
श्री भाव मिश्र गोक्षुर को मूत्राशय का शोधन करने वाला, अश्मरी भेदक बताते हैं व लिखते हैं कि पेट के समस्त रोगों की गोखरू सर्वश्रेष्ठ दवा है । वनौषधि चन्द्रोदय के विद्वान् लेखक के अनुसार गोक्षरू मूत्र पिण्ड को उत्तेजना देता है, वेदना नाशक और बलदायक है ।
इसका सीधा असर मूत्रेन्द्रिय की श्लेष्म त्वचा पर पड़ता है । सुजाक रोग और वस्तिशोथ (पेल्विक इन्फ्लेमेशन) में भी गोखरू तुरंत अपना प्रभाव दिखाता है । गर्भाशय को शुद्ध करता है तथा वन्ध्यत्व को मिटाता है । इस प्रकार यह प्रजनन अंगों के लिए एक प्रकार की शोधक, बलवर्धक औषधि है ।
श्री नादकर्णी अपने ग्रंथ मटेरिया मेडिका में लिखते हैं-गोक्षुर का सारा पौधा ही मूत्रल शोथ निवारक है । इसके मूत्रल गुण का कारण इसमें प्रचुर मात्रा में विद्यमान नाइट्रेट और उत्त्पत तेल है । इसके काण्ड में कषाय कारक घटक होते हैं और ये मूत्र संस्थान की श्लेष्मा झिल्ली पर तीव्र प्रभाव डालते हैं ।यूरोप और ग्रीस में चिर पुरातनकाल से प्रयुक्त इस औषधि का हवाला देते हुए वेल्थ ऑफ इण्डिया इसके गुणों का वर्णन इस प्रकार करता है । फल मूत्रल होते हैं तथा पथरी रोग व मूत्र संस्थान के संक्रमण में लाभ करते हैं । ब्राहट्स डिसीज (गुर्दे की सुजन) नामक एक एलर्जीक संक्रमण पर भी इसका प्रभाव मारक एवं बल्य दोनों ही रूपों में पड़ता है । इस प्रकार यह औषधि मूत्रवाही संस्थान की स्वाभाविक सामर्थ्य बढ़ाकर संक्रमण रोकती है । कर्नल चोपड़ा ने गोक्षुर के टलकोहलिक निष्कर्ष के मूत्र विरेचक गुणों का हवाला देते हुए उसकी बहुत प्रशंसा की है । श्री आर.एन.खोरी की मटेरिया मेडीका ऑफ इण्डिया (भाग-2) के अनुसार गोक्षुर मूत्रल, कृच्छनाशक व यौन रोग निवारक है ।
होम्योपैथी में श्री विलियम बोरिक का मत प्रामाणिक माना जाता है । विशेषकर वनौषधियों के विषय में वे लिखते हैं कि मूत्र मार्ग में अवरोध, वीर्यपात, प्रोस्टेट ग्रंथि की सूजन व अन्य यौन रोगों में गोखरू का टिंक्चर 10 से 20 बूंद दिन में तीन बार देने से तुरंत लाभ होता है ।
यूनानी में यह खारे खसक खुर्द या खरे सहगोशा के नाम से जाना जाता है । हकीम इसे गरम और खुश्क मानते हैं । उनके अनुसार यह ब्लैडर व गुर्दे की पथरी का नाश करता है तथा मूत्रावरोध को दूर करता है । मूत्र मार्ग से बड़ी से बड़ी पथरी को तोड़कर निकाल बाहर करता है । सुजाक जैसे भयानक यौन रोग में भी यह लाभप्रद है । गर्भाशय शुद्धि फैलोपियन ट्यूब की उत्तेजना हेतु इसकी जड़ व पत्तों का स्वरस प्रयुक्त होता है ।
रासायनिक संरचना-
गोखरू की पत्तियों में 79 प्रतिशत जल, 7.22 प्रतिशत प्रोटीन तथा 4.62 प्रतिशत राख पाई गई है । खनिजों में कैल्श्ायम 1.55 ग्राम प्रतिशत, फास्फोरस 0.08 ग्राम प्रतिशत तथा लोहा 9.2 मिलीग्राम प्रतिशत होता है । कैल्शियम की प्रचुरता इस जड़ी-बूटी की विशेषता है । इसमें विटामिन सी की मात्रा 41 मिलीग्राम प्रतिशत के लगभग पायी गई है ।
क्षुप में हरमन नाम का एक एल्केलायड तथा बीजों में हरमिन नामक एल्केलायड होता है । पौधे में कई सैपोनिन भी पाए गए हैं, तीन पत्तियों में तथा दो जड़ों में । डायसोजेनिन, रस्कोजेनिन, गिटोजेनिन इन्हीं सैपोनिन से प्राप्त होते हैं ।
ग्लाइकोसाइड्स में प्रमुख हैं-केम्पफेरॉल, रुटीनोसाइड तथा एक नया फ्लेवोनायड जिसे टि्रबुलोसाइड नाम दिया गया है । गोक्षुर के फल में एल्केलायड के अतिरिक्त एक अवाष्पशील तेल, रेजिन नाइट्रेट, पेरॉक्सीडेड, शुगर व टैनिन होते हैं । इसमें डायस्टेस नाम का एक महत्त्वपूर्ण एन्जाइम भी होता है । बीजों में फास्फोरस तथा नाइट्रोजन प्रचुर मात्रा में होती है ।
आधुनिक मत एवं वैज्ञानिक प्रयोग निष्कर्ष-
गोक्षुर के मूत्रल गुण का मनुष्यों व प्रायोगिक जीवों दोनों पर अध्ययन किया गया है । निष्कर्ष यह निकला है कि इस औषधि के मूत्रल गुण यूरिया के समान ही हैं । कुछ रोगियों में अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह एक निरापद मूत्रल है । इण्डियन जनरल ऑफ मेडीकल रिसर्च तथा एण्टीसेप्टिक में प्रकाशित शोध लेखों के अनुसार सभी प्रकार के गुर्दे के विकारों में गोक्षुर का उपयोग एक चमत्कारी प्रभाव दिखाता है । (55, 7, 1967 आई.जे.एम.आर. 65, 6, 1968) मूत्र की मात्रा बढ़ती है तथा पथरी के रोगों में न केवल शूलजन्य संस्थानिक वेदना कम होती हे-15 दिन की अवधि में पथरी टूट-टूटकर मूत्र मार्ग से टुकड़ों-टुकड़ों में निकल जाती है । प्राइमरी नेफ्राइटिस नामक रोग की स्थिति में यह विशेष लाभकारी है ।ग्राह्य अंग-
सारा पौधा ही औषधीय क्षमता रखता है । फल व जड़ अलग से भी प्रयुक्त होते हैं ।
मात्रा-
फल चूर्ण 3 से 6 ग्राम, 2 या 3 बार । पंचांग क्क्वाथ- 50 से 100 मिली लीटर ।
निर्धारणानुसार उपयोग-
पथरी रोग में गोक्षुर के फलों का चूर्ण शहद के साथ 3 ग्राम की मात्रा में सुबह शाम दिया जाता है । महर्षि सुश्रुत के अनुसार सात दिन तक गौदुग्ध के साथ गोक्षुर पंचांग का सेवन कराने में पथरी टूट-टूट कर शरीर से बाहर चली जाती है । मूत्र के साथ यदि रक्त स्राव भी हो तो गोक्षुर चूर्ण को दूध में उबाल कर मिश्री के साथ पिलाते हैं ।
सुजाक रोग (गनोरिया) में गोक्षुर को घंटे पानी में भिगोकर और उसे अच्छी तरह छानकर दिन में चार बार 5-5 ग्राम की मात्रा में देते हैं । किसी भी कारण से यदि पेशाब की जलन हो तो गोखरु के फल और पत्तों का रस 20 से 50 मिलीलीटर दिन में दो-तीन बार पिलाने से वह तुरंत मिटती है । प्रमेह शुक्रमेह में गोखरू चूर्ण को 5 से 6 ग्राम मिश्री के साथ दो बार देते हैं । तुरंत लाभ मिलता है ।
मूत्र रोग संबंधी सभी शिकायतों यथा प्रोस्टेट ग्रंथि बढ़ने से पेशाब का रुक-रुक कर आना, पेशाब का अपने आप निकलना (युरीनरी इनकाण्टीनेन्स), नपुंसकता, मूत्राशय की पुरानी सूजन आदि में गोखरू 10 ग्राम, जल 150 ग्राम, दूध 250 ग्राम को पकाकर आधा रह जाने पर छानकर नित्य पिलाने से मूत्र मार्ग की सारी विकृतियाँ दूर होती हैं । प्रदर में, अतिरिक्त स्राव में, स्री जनन अंगों के सामान्य संक्रमणों में गोखरू एक प्रति संक्रामक का काम करता है । स्री रोगों के लिए 15 ग्राम चूर्ण नित्य घी व मिश्री के साथ देते हैं ।
बी.एच.यू. तथा जामनगर में हुए प्रयोगों के आधार पर कहा जा सकता है कि गोक्षुर चूर्ण प्रोस्टेट बढ़ने से मूत्र मार्ग में आए अवरोध को मिटाता है, उस स्थान विशेष में रक्त संचय को रोकती तथा यूरेथ्रा के द्वारों को उत्तेजित कर मूत्र को निकाल बाहर करता है । बहुसंख्य व्यक्तियों में गोक्षुर के प्रयोग के बाद ऑपरेशन की आवश्यकता नहीं रह जाती । इसे योग के रूप न देकर अकेले अनुपान भेद के माध्यम से ही दिया जाए, यही उचित है, ऐसा वैज्ञानिकों का व सारे अध्ययनों का अभिमत है ।
अन्य उपयोग-
ऊपर वर्णित प्रयोगों के अतिरिक्त यह नाड़ी दुर्बलता, वात नाड़ी विकार, बवासीर, दुर्बलता, खाँसी तथा श्वांस रोगों में भी प्रयुक्त होता है । यह वल्य रसायन भी है तथा कमजोर पुरुषों व महिलाओं के लिए एक टॉनिक भी है । यह दशमूलारिष्ट में प्रयुक्त होने वाला एक द्रव्य भी है । यह नपुंसकता तथा निवारण तथा बार-बार होने वाले गर्भपात में भी सफलता से प्रयुक्त होता है