पी.एम. का ‘श्रमेव जयते’ उदघोष
विगत 16 अक्टूबर को राजधानी दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते कार्यक्रम’ का शुभारंभ कर श्रम पर पूंजी के अनैतिक और अवैधानिक राज को समाप्त करने की दिशा में ठोस कदम उठाया है। प्रधानमंत्री ने श्रमिकों को ‘राष्ट्र योगी और राष्ट्र निर्माता’ जैसे विशेष अलंकरणों से संबोधित कर उनकी उपयोगिता, औचित्य, महत्व और योग्यता को नमन किया है। वास्तव में अभी तक मजदूरों के नाम पर राजनीतिक दलों ने लोगों से वोट तो मांगी हंै, पर उनके लिए ठोस कार्य नही किया। अब राष्ट्रीय आदर्श सूक्ति ‘सत्यमेव जयते’ के साथ ‘श्रमेव जयते’ को अवस्थापित कर प्रधानमंत्री ने अपने संकल्पों की बयार का संकेत दिया है कि वह किधर बहना चाहती है?
कुछ लोग प्रधानमंत्री मोदी के इस प्रकार के कार्यों में केवल राजनीति ढूंढ़ रहे हैं। उनका मानना है किप्रधानमंत्री ने जैसे महात्मा गांधी, पंडित नेहरू, इंदिरा गांधी, सरदार पटेल, लालबहादुर शास्त्री जैसे व्यक्तित्वों को छीनकर कांग्रेस को लुंज-पुंज किया है और सपा, बसपा आदि सहित अन्य दलों के ‘वोट बैंक’ में सेंध लगाई है, वैसे ही अब वे साम्यवादी दलों से भी इनका वोट बैंक छीन रहे हैं। वास्तव में ऐसा कहने वाले लोग भूल जाते हैं कि प्रधानमंत्री बनते ही व्यक्ति किसी पार्टी या वर्ग विशेष का नही रह जाता है, वह सबका होता है और सबका विकास करना व सबका विश्वास प्राप्त करना उसका धर्म होता है। इसके साथ-साथ उसे अपनी पार्टी के लिए भी कुछ करना होता है। मोदी अपना राष्ट्र ‘धर्म’ निभा रहे हैं, तो धर्म से निरपेक्ष रहे लोगों का कलेजा फटना तो स्वाभाविक ही है। क्योंकि उन्होंने अभी तक कभी अपना धर्म निभाना उचित नही समझा।
हम राजनीतिक रूप से पूर्णत: अनुत्तरदायी हो गये थे। अब सरकारी कार्यप्रणाली से लग रहा है कि अब ‘कत्र्तव्य बोध’ को समझने वाले कुछ लोग देश का शासन चला रहे हैं। इसलिए देश में विकास और विश्वास दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। अभी तक जहां विकास होता था वहां विश्वास नही होता था और जहां विश्वास होता था वहां विकास नही होता था। इसे आप यूं समझ सकते हैं कि मुलायम सिंह यादव ने अपने गांव सैफई का विकास किया, मायावती ने अपने गांव बादलपुर का विकास किया, तो वहां विकास तो था पर जब अन्य क्षेत्रों के लोग ये कहते थे कि अपने-अपने गांव के लिए विकास किया, हमारे लिए क्या हो रहा है? तब विश्वास टूट जाता था, या वह विकास से हाथ झटककर भाग जाता था। विकास के विषय में न्यूनाधिक हर राजनीतिज्ञ की यही मानसिकता बन गयी थी। पर अब मोदी ने सांसद के द्वारा किसी गांव को गोद लेकर उसका समग्र विकास करने के विषय में आवश्यक शर्त लगा दी है कि ऐसा गांव सांसद का अपना गांव नही होना चाहिए। यहां तक कि उन्होंने राजनीतिज्ञों के परिजनों को चुनावों में टिकट भी नही दिये हैं। सारे देश ने प्रधानमंत्री की इस कार्यशैली का हृदय से स्वागत किया है। फलस्वरूप विकास और विश्वास साथ-साथ चल रहे हैं। जनविश्वास का सरकार के निर्णयों के साथ सहमत होना-सरकार की बहुत बड़ी जीत होती है।
देश के लिए यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि आजादी के 67 वर्ष बीत जाने के उपरांत भी, देश में बंधुआ मजदूरों की संख्या दिनानुदिन बढ़ी है। ये लोग आज तक नही जान पाये कि आजादी किस चिडिय़ा का नाम है। पी.एम. ने हर गरीब का बैंक खाता खुलवाकर और उन्हें सरकार से सस्ती ब्याज दरों पर पैसा उपलब्ध कराने की दिशा में जो कदम उठाया है, उससे श्रम पर पूंजी के ‘क्रूर शासन’ का अंत करने में सहायता मिलेगी। ‘श्रमेव जयते’ की आदर्श व्यवस्था को स्थापित करने के लिए श्रमिक को बंधुआ मजदूरी से मुक्त कराया जाना आवश्यक है।
अब भी देश के कितने ही प्रांत ऐसे हैं जहां बंधुआ मजदूरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। आंध्र प्रदेश में बंधुआ मजदूरों की ज्ञात संख्या 3,25,000, बिहार में 1,11,000 गुजरात में 1,71,000, कर्नाटक में 1,93,000, मध्य प्रदेश में 500000 राजस्थान में 6,7,000, तमिलनाडु में 2,50,000 और उत्तर प्रदेश में 5,50,000 है। ये आंकड़े 2013 के हैं जो कि देश की भयावह स्थिति को दर्शाते हैं।
यह सच है कि शोषण और दलन किसी न किसी रूप में बना ही रहता है, परंतु भारत में यह जिस स्तर पर आज भी स्थापित है, वह अत्यंत लज्जाजनक है। क्योंकि इसकी भयावहता के कारण हमारे लोकतंत्र और सभ्य समाज के निर्माण सहित समता मूलक समाज की संरचना करने की बातें खोखले आदर्श ही नजर आती हैं।
हमारी सरकारें यदि कोई अच्छी पहल करती हैं तो यहां उन अच्छी पहलों में भी राजनीति के कीटाणु ढूंढने के लिए ‘फ्रेंचकट दाढ़ी’ वाले विद्वानों की लेखनी निंदागान करने लगती है। जिससे राजनीति के प्रति तथा राष्ट्रीय मूल्यों के प्रति एक नकारात्मक परिवेश का निर्माण होता है और सारा देश उन अच्छी नीतियों या पहलों के साथ सामंजस्य स्थापित करने या उन्हें लागू कराने में प्रमाद प्रदर्शन करने लगता है। मतदाता अपने किसी विशेष राजनीतिक दल का पिछलग्गू बना रहता है और वह विशेष राजनीतिक दल अपने मतदाताओं को भ्रमित कर अपना पिछलग्गू बनाये रखकर अपनी नकारात्मक और निंदात्मक राजनीति करता रहता है। लोकतंत्र यदि अपने देशवासियों में राष्ट्रीय मूल्यों का विकास नही कर पाता, और लोकतंत्र यदि अपने देशवासियों में राष्ट्रीय मूल्यों को अवस्थापित करने में असफल रहता है तो कहना पड़ेगा कि ऐसा लोकतंत्र परिपक्व लोकतंत्र नही है।
यदि हम श्रमिकों की समस्याओं के समाधान के लिए मात्र दो वर्ष के लिए अपने दलीय हितों को तिलांजलि देकर कार्य करना प्रारंभ कर दें तो कोई कारण नही कि देश में सर्वत्र श्रमेव जयते का संगीत न गंूजने लगे। वैसे जब तक ‘राष्ट्रयोगी और राष्ट्रनिर्माता’ श्रमिक भूखा नंगा है, तब तक ‘सत्यमेव-जयते’ कहना भी उचित नही है। सत्यमेव जयते तो ‘श्रमेव जयते’ पर ही टिका है। जहां श्रमिक का शोषण है वहां असत्य, अत्याचार, अनाचार और उत्पीडऩ अपने आप ही है, और इन अवगुणों की नींव पर आधृत समाज को कभी भी सत्यमेव जयते की परंपरा का समाज नही कहा जा सकता। इसलिए पीएम मोदी ने हमारी प्राचीन सत्यमेव जयते की परंपरा का आधुनिकता के साथ समावेश करने हेतु ‘श्रमेव जयते’ का उद्घोष किया है, जिसे सही संदर्भों और अर्थों में ग्रहण करने की आवश्यकता है। राष्ट्रीय मुद्दों पर कोई राजनीति ना हो आज की यह परम आवश्यकता है। दीपावली पर पीएम ने देश में ये आशा का एक दीप जलाया है, जिसके लिए वे साधुवाद के लिए पात्र हैं।